पिछले काफी दिनों से हत्या, आत्महत्या और हिंसा के मामले जो बढ़ोतरी हुई, उसकी एक बड़ी वजह लिव इन रिलेशनशिप को भी माना जा रहा है| यानि के (सहजीवन) जो कानून की नजर में न तो अपराध है और न ही पाप” बल्कि शहरी युवाओं के एक बड़े वर्ग को तो यह रिश्ता खूब भा रहा है| उनकी नजरों में अपने बच्चों को स्वेच्छिक इच्छा के अनुसार इस रिश्ते में रहने देने वाले माता पिता ही शायद दुनिया के सबसे अच्छे माता पिता होते है| वो इस बात को गर्व से कहते है कि मेरे माम-डेड पुराने ख्यालों के नहीं है हमारा परिवार आधुनिक जीवन जीने का पक्षधर है| वैसे देखा जाये तो लिव इन रिलेशनशिप को अपनी स्वतंत्रता के रूप में देख रही युवा पीढ़ी के बीच पिछले कुछ वर्षों से इस रिश्ते की लोकप्रियता और स्वीकार्यता बढ़ी है| खास तौर पर मेट्रो शहरो में काम करने वाले युवाओं के बीच यह रिश्ता तेजी से पांव पसार रहा है| समाज शास्त्रियों और शिक्षा शास्त्रियों का मानना है कि लिव इन की बढ़ रही स्वीकार्यता में हिंदी फिल्मों और धरावाहिको का विशेष योगदान है| फिल्में हमेशा से युवाओं को प्रभावित करती रही हैं| आजकल के युवा भी फिल्मों से बहुत प्रभावित हैं| इन फिल्मों में लिव इन रिलेशनशिप को महिमा मंडित किया जाता है| पर अधिकांश फ़िल्में दो से तीन घंटे की होती है जबकि आमतौर पर जीवन लम्बा और ज्यादा प्रतिस्पर्धा और कष्टों से भरा होता है| फ़िल्मी प्यार और रिश्तें आम जीवन से बिलकुल अलग होते है क्योकिं उनमें किसी एक की कहानी हम लोग बैठकर देख रहे होते है जबकि यथार्थ में फ़िल्मी दुनिया से बाहर हर किसी की अलग कहानी होती है|
मैं इस रिश्ते का विरोध या गलत तरीके से परिभाषित नहीं कर रहा हूँ बल्कि इस रिश्ते का वो सच भी सामने रखने की कोशिश मात्र कर रहा हूँ जहाँ से अधिकतर खुशियों की बजाय दुःख, अपराध, ग्लानि हिंसा आदि भी पनपते है| विवाह जिम्मेदारी का संबध है इसी कारण इस रिश्ते की सबसे ज्यादा जरूरत युवा समुदाय को है, जो मनोरंजन और स्वतंत्रता तो चाहता है किन्तु जिम्मेदारी नहीं| वरना देखा जाये तो अपनी उम्र का एक पड़ाव पूरा कर चुकी युवतियां कहती हैं, कि “यह रिश्ता अंततः महिलाओं का शोषण करने वाला साबित होता दिख रहा है| स्वतंत्रता की चाह में लड़कियां इसे शौक से स्वीकार कर लेती हैं लेकिन उन्हें यह नहीं मालूम कि यह रिश्ता सीधे-सीधे पुरुषों को उनका शोषण करने का अवसर प्रदान करता है| जो बाद में जाकर बाँझपन जैसी बीमारी भी छोड़ सकता है, जो सामाजिक नजरिये से एक औरत के लिए सबसे बुरा रोग समझा जाता रहा है| लिव इन रिलेशन के नाम पर महिलाओं द्वारा पुरुषों के खिलाफ शादी का झांसा देकर बलात्कार करने की शिकायतों में बढ़ोतरी हुई है| लिव इन रिलेशन को लेकर समाज दो भागों में बंटा है पर इससे प्रभावित महिलाओं और बच्चों को संरक्षण दिए जाने की आवश्यकता को सभी स्वीकार करते हैं| किन्तु इसके बाद भी प्रत्युषा बनर्जी, जिया खान आदि भी किसी ना किसी लड़की या लड़के को जरुर बनना पड़ता रहेगा|
नारी एक बहती नदी की तरह होती है| जो साफ स्वच्छ रहने तक या बहते रहने तक पूजी जाती है| जहाँ वो सूखती है, पुजारी दूर भाग जाते है और रह जाते है उबड़ खाबड़ ढहे किनारे| नारी भी जब तक जवान है वो हर किसी की चाह में होती है| कोई प्रेमिका बनाकर रखना चाहता है कोई दुल्हन तो कोई रखेल! यह उस पर निर्भर करता है कि वो क्या बनकर रहना चाहती है? वो नारी समाज में नायिका बनकर जीना चाहती है या किसी का शिकार? किन्तु फिर भी एक उम्र के बाद उसे सभी संबधो की जरूरत पड़ती है| उसे सुरक्षित और भावनाओं में बंधा रिश्ता चाहिए होता है जिसमे प्यार और सम्मान की जरूरत पड़ती है| भले ही विवाह उपरांत कुछ ओरते अपनी स्वतंत्रता को लेकर रोना रोती हो लेकिन बंधन के जिन धागों में पुरुष जकड़ा होता है वो तो रो भी नहीं सकता| इसलिए बात विवाह की या लिव इन जैसे रिश्तें की नहीं बस हमें सोचना यह कि बिना तनाव और हिंसा, प्रताड़ना के हम साथ मिलकर सुखी जीवन कैसे जी सकते है| आज आर्थिक कारणों से कहो या प्यार, किन्तु इस रिश्तें को विवाह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए” कुछ साथ रह लोगों के मुताबिक यह रिश्ता आपसी सहमति के जरिये सेक्स एवं अन्य जरूरतों को पूरा करता है| या ये कहो कि स्वतंत्र रूप से संभोग का सबसे सरल मार्ग है जिसमे समाज से छिपना भी नहीं पड़ता
कई बार लगता है हमारा युवा जरूरत से ज्यादा तेज़ भाग रहा है या ये कहो पश्चिम के पीछे भाग रहा है यदि यह सच है तो बता दूँ पश्चिम के लोग अब इन रिश्तों से उब चुके है| आज यूरोपीय देशों के पास स्त्री तो है किन्तु स्नेह लुटाने वाली बहन नहीं है, प्यार लुटाने वाली पत्नी और ममता के धागे से परिवार को बांधने वाली माँ, दादी और चाची ताई नहीं है| कहीं हम भी धीरे धीरे इन रिश्तों से दूर तो नहीं भाग रहे है? यदि भाग रहे है तो गहरे अवसाद, मानसिक रोग आत्महिंसा, आत्महत्या इन सबका सामना करना लाजिमी पड़ेगा, क्योंकि आप परिवार के बीच नहीं है जहाँ जरा सा तनाव भी रिश्तों में बाँट लिया जाता है| लिव इन रिलेशन के मामले में अतीत में कही गई यह बात आज खुद को दुहराती दिख रही है| आप साथ रहो या मत रहो किन्तु पुराने शादी के बंधन को गलत कुरीतियाँ भी कहना सही नहीं है| क्योंकि आज आपका जो आधार आपकी पहचान है वो विवाह जैसे पवित्र बंधन की ही देंन है| इस प्रसंग में मेरा एक सवाल है कि जब परिवार की चल-अचल संपत्ति धन संपदा पर हर कोई अपना हक समझता है तो परिवार की परम्परा रीति-रिवाज माँ बाप के सपनों को साकार करने का उन्हें प्यार सम्मान देने का हक किसका है?