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आदर्शों की तलाश में भटकता युवा

जो राष्ट्र अपने महापुरुषों से मुंह मोड़ लेता है उस राष्ट्र का क्षरण कोई नहीं रोक सकता। इस बार विश्व पुस्तक मेले में सनी लियोनी के जीवन पर आधारित पुस्तक प्रसि( प्रकाशकों के स्टाल पर बेची जा रही थी जो एक कलाकार से साथ पोर्न स्टार भी हैं। सनी के जीवन पर आधारित पुस्तक में उसकी सफलता की कहानी को युवा समाज के सामने परोसने का कार्य कुछ इस तरह हो रहा था मानो भावी भारत की निर्माता नई पीढ़ी के पास आदर्श सफल महापुरषों की कमी हो और इस कमी की पूर्ति सनी लियोनी आदि से पूरी की जा सकती हो? उसे नवयुवतियों बच्चियों के सामने एक आदर्श के तौर पर पेश किया। मुझे पता नहीं चल पा रहा है कि 21वीं सदी में हमने सफलता की क्या परिभाषा गढ़ ली किन्तु जो भी गढ़ी वो आने वाली पीढ़ी के लिए या कहो इस राष्ट्र के लिए बिल्कुल भी शुभ संकेत नहीं है। जिस तरह आज हमारे पाठ्क्रम बदले जा रहे हैं उसे देखकर अहसास जरुर होता है कि शायद आने वाले वर्षों में नैतिक शिक्षा जैसे विषयों में भी सनी लियोनी जैसी कलाकार अपनी जगह बना ले तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

इस काम में देश के युवाओं का मार्गदर्शन जहाँ मीडिया आदि को करना था वहां इसके उलट कार्य होता दिख रहा है मसलन अमूल घी का विज्ञापन दिन में एक बार और पेप्सी कोक आदि का दस बार आएगा तो वो युवा अमूल घी नहीं पेप्सी कोक को ही अपने स्वास्थ के लिए सही समझेगा! यह बात सर्वविदित है कि वर्तमान समय में हम जिस भारत में बैठे हैं उसका निर्माण हमने नहीं किया इसके निर्माण के पीछे असंख्य क्रांतिकारियों, स्वामी दयानन्द जैसे धर्म और समाज सुधारकां, स्वामी श्र(ानन्द जैसे बलिदानियों और देश के अन्य महापुरुषों का त्याग है। लेकिन क्या हम आज इन्हें भुलाकर फिल्मी पर्दों के हीरो और तथाकथित धर्मगुरुओं से इनकी पूर्ति करना चाह रहे हैं?

हम धीरे-धीरे अपने आदर्श मिटा रहे हैं भारतीय नारी तो ऐसी होती थीं जो महापुरुषों को भी पुत्र के रूप में प्राप्त कर लेती थीं। हमारा इतिहास आदर्श नारियों से भरा है अपने स्कूलों के दिनों की याद आते ही, उस समय हमारे पाठ्यपुस्तक में कहानी के रूप में दिया गया महापुरुषों के जीवनी पर आधारित लेख पर ध्यान चला जाता है। झाँसी की रानी, रानी सारन्धा, सुभाष चन्द्र बोस, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, स्वामी दयानन्द आदि के जीवन-कथा और उनके राजनीतिक और दार्शनिक उपलब्धियों के बयान उन दिनों के शिक्षक काफी लगन के साथ विद्यार्थियों के सामने पेश करते थे। वास्तव में, उस समय, देश में नायक के रूप में, ऐसे ही व्यक्तित्व का पूजन होता था। एक आध बार फिल्मी हीरो या मशहूर खिलाड़ी को लेकर तो आम बैठक में चर्चा जरूर हो जाती थी, लेकिन कभी भी उन्हें महापुरुषों का दर्जा देना तो दूर, बराबरी की कल्पना भी नहीं की जाती थी। बल्कि उन महापुरुषों की जीवन-शैली तथा देश और देशवासियों के प्रति अपार प्रेम हमेशा ही बच्चों के लिए मार्गदर्शन का काम करता था।

अब मीडिया द्वारा परोसे जा रहे नये महापुरुष यानी अवतार के रूप में फिल्मी सितारें और क्रिकेट खिलाड़ियों का आगमन उन महापुरुषों की विदाई का रास्ता साफ कर रहे हैं। आजकल के नौजवानों के लिए इन जगमगाते महापुरुषों से लगाव गत जमाने के अपने देशभक्ति और आदर्श के लिए पहचाने वाले लोगों से काफी अधिक हैं। आधुनिक समाज में इनके प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कहीं ये नई संस्कृति का जन्म तो नहीं? यदि हाँ तो इस जन्म के परिणाम ही कितने खतरनाक होंगे अभी से समाचार पत्रों में पढ़कर पता लगाया जा सकता है, एक समय था जब पंजाब केसरी अखबार के गुरुवार के रंगीन पेज को भी अधिकतर बच्चों से छिपा दिया जाता था। लेकिन बदलते समय में आज छोटे बच्चों के हाथ में मोबाइल और उसमें खराब फिल्में आसानी से मिल जाएगीं। सोचिये आने वाले देश के भविष्य का चरित्र कैसा होगा!

एक बच्चे का निर्माण विद्यालयों में, परिवारों में, बच्चों की परवरिश का ढंग ही निर्धारित करता है। समाज में बुनियादी तौर पर परिवार और उसके पूरक के रूप में विद्यालय ही अच्छे नागरिक बनाने का काम करते हैं। छोटे बच्चे तो कच्ची मिट्टी के गोले जैसे हैं, जैसे एक कुम्हार अपने कलाकृतियों के सहारे उससे मूर्तियां बनाते हैं, उसी तरह समाज के इन प्रतिष्ठानों को ही नागरिक बनाने का जिम्मेदारी दी गई है। लेकिन आज कालेज-स्कूल राजनीति और फूहड़ता के अड्डे बनते जा रहे हैं। ना शिक्षा बची न ढंग के शिक्षक यदि कुछ शिक्षक हैं भी तो जो विद्यादान और संस्कारों के जरिये मानवता का पाठ पढ़ाकर अच्छे नागरिक बनाने का सपना देखते हैं पर फिर भी यह उनका सपना ही रह जाता है कारण बाहरी दुनिया में नायक के रूप में शाहरुख खान भगत सिंह से ज्यादा अहमियत रखता है और लक्ष्मीबाई से सनी लियोनी कहीं अधिक लोकप्रिय बन गयी। आधुनिक फिल्मी हीरो की नकली फाईटिंग के सामने तो महाराणा प्रताप, नेताजी सुभाषचंद्र बोस,  शिवाजी महाराज की वीरता बौनी ही लगती है। हम केवल एक शानदार परम्परा को ही नहीं भूल रहे बल्कि अपना इतिहास भी मिटा रहे हैं हालाँकि कुछ लोग कहते हैं कि हम सिर्फ अतीत की जुगाली करके आगे नहीं बढ़ सकते पर हम अतीत्त से वो प्रेरणा ले सकते हैं जो हमारे हर कदम को मजबूत बनाने के लिए मदद करती है। दुनिया में कोई भी देश या जाति ने अपनी परम्परा भूलकर दूसरों की नकल करके प्रगति नहीं की यदि की तो उसका इतिहास तो बचा पर संस्कृति और भूगोल दिखाई नहीं दिया! यदि आज युवा इन आधुनिक अभिनेता/अभिनेत्रियों को अपना आदर्श समझने लगे तो युवाओं के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का भी क्षरण होगा।

 

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