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आदर्श गुरु की तलाश में भटकता शिष्य

एक शिष्य एक आदर्श गुरु की तलाश में भटकता भटकता रात के 2:00 बजे एक गुरु के द्वार पर पहुंचा ।
उसने द्वार पर दस्तक दी, दरवाजा खटखटाया ।
अंदर से आवाज आई,
“कोऽसि अर्थात कौन हो ?”

शिष्य बोला, ” न जानामि । मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूं?”

अंदर लेटे गुरु ने समझ लिया कि यही सच्चा शिष्य है ।
मेरे लायक यही है ।
मुझे इसे बुला लेना चाहिए ।

रात को 2:00 बजे गुरु ने दरवाजा खोला और शिष्य को अंदर बुला लिया ।
शिष्य के सिर पर एक काफी बड़ी पुस्तकों की गठरी थी ।

गुरु ने कहा, “यह क्या है ?”
शिष्य बोला, “गुरुजी यह कुछ पुस्तके हैं जो मैंने अब तक पढ़ी हैं ।”
तो गुरु ने कहा, “जब आपने इतनी पुस्तकें पढ़ ली हैं तो मेरे पास क्यों आए हो ?”
शिष्य बोला,
“गुरुजी अभी मन को शांति नहीं मिली ।
इसलिए आपसे और अध्ययन करने आया हूं ।”
तो गुरुजी ने कहा, “यदि मुझ से पढ़ना चाहते हो तो इन सारी पुस्तकों को पहले यमुना में बहा आओ ।”

मित्रो! यदि आज का चेला होता तो कहता, “बड़ा घमंडी गुरु है ।
इतना अहंकार । अरे भाई मैंने इतनी पुस्तकें पढ़ी हैं । तो कुछ ना कुछ तो उनमें अच्छा होगा ही।
मैं तो ऐसा करता हूं कि किसी दूसरे गुरु के पास जाता हूं ।
मेरे लिए यह ठीक नहीं है कि इतनी कठिनाई से प्राप्त विद्या की पुस्तकों को यूँ ही फेंक आऊँ।”

लेकिन उसने ऐसा नहीं सोचा ।
वह तत्काल वहां से चला गया ।
वह यमुना के तट पर गया और उसने अपनी पुस्तकों से भरी पूरी गठरी यमुना में फेंक दी ।
और वह वहां से लौट कर गुरु के पास वापस आकर गुरु के चरणों में बैठ गया ।
गुरु ने उसको अपने गले से लगा लिया ।
गुरु बोले, “प्रभु तेरा कोटि-कोटि धन्यवाद।
जो शिष्य मुझे चाहिए था वह मुझे मिल गया ।”

गुरु ने तीन वर्ष तक शिष्य को संस्कृत व्याकरण की सारी की सारी पुस्तकें पढ़ाईं ।

अपना पूरा का पूरा ज्ञान शिष्य के मस्तिष्क में उडेल दिया।
तीन वर्ष बाद जब शिष्य की शिक्षा पूरी हो गई तब उसने सोचा कि अब मैं यहां से जाऊं ।

किंतु जाने से पहले गुरु को गुरु दक्षिणा तो देनी होती है ।
उसने सोचा कि मैं गुरु को क्या गुरु दक्षिणा दूँ?
शिष्य ने काफी परिश्रम करके एक सेर लौंग एकत्रित की ।
उस एक सेर लौंग को लेकर वह गुरु के पास पहुंचा ।
उसने कहा,
“गुरु जी यह आपकी गुरु दक्षिणा है।”
गुरु की आंखों में आंसू आ गए ।
गुरु ने कहा,
“ऐ शिष्य मेरी 3 वर्ष की मेहनत की इतनी सी गुरु दक्षिणा?
यह तो मुझे स्वीकार नहीं है ।”
शिष्य रुआंसा हो गया ।
बोला,
“गुरुजी! मेरे पास तो और कुछ नहीं है ।
जो कुछ मैं एकत्र कर सकता था यही एकत्र कर पाया ।
मेरे पास तो और कुछ नहीं ।
इसके अलावा तो मेरे पास बस मेरा यह शरीर है । इसे ले लीजिए ।”
यह कहकर शिष्य की आंखों से आंसू टपकने लगे ।
गुरु ने कहा,
“ए शिष्य मुझे यही चाहिए ।
मुझे तुम्हारा पूरा का पूरा जीवन चाहिए ।
देखो आज भारत विदेशी दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है ।
अंग्रेजों के द्वारा यहां की जनता बुरी तरह पददलित है।
भारतवर्ष को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाओ।
यहां की जनता में अज्ञान का अंधकार फैला हुआ है ।
भांति-भांति के अंधविश्वासों ने प्रगति के रास्ते को रोका हुआ है ।
जाओ और अपने तर्कों से, अपने ज्ञान से
भारत देश की जनता के अज्ञान के अन्धकार को मिटाओ ।

शिष्य ने कहा,”गुरु जी ऐसा ही होगा। मैं अपना पूरा जीवन इस देश की जनता की सेवा में लगाऊँगा । अज्ञान के अंधकार को उखाड़ फेंकूँगा ।और इस देश को ऐसा सत्य ज्ञान दूंगा जिसे प्राप्त कर ऐसे शूरवीर पैदा होंगे जो इस देश से अंग्रेजों को बाहर निकाल सकेंगे ।
गुरु जी आप के आदेश का मैं पूरा पालन करूंगा । पूरे जीवन भर पालन करूंगा ।
यह कहकर शिष्य ने गुरु से भरी आँखों से विदा ली और अपना पूरा जीवन अपनी प्रतिज्ञा के पालन में लगाया ।

आप पूछेंगे कि यह शिष्य और यह गुरु कौन थे ?

मित्रो! यह शिष्य थे स्वामी दयानंद सरस्वती ।
और यह गुरु थे प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजानंद सरस्वती ।
स्वामी विरजानंद ने स्वामी दयानंद को वह ज्ञान दिया जिससे उनके ज्ञान चक्षु खुल गए ।
उन्हें सत्य और असत्य का बोध हो गया ।
अच्छे और बुरे का ज्ञान हो गया ।
अपने और पराए का ज्ञान हो गया ।
विदेशी और स्वदेशी के महत्व का ज्ञान हो गया ।

इसके आधार पर उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी ।
प्रत्यक्ष रूप में उन्होंने यह लड़ाई नहीं लड़ी ।
क्योंकि वह जानते थे कि यदि प्रत्यक्ष रूप में लड़ाई लड़ेंगे तो उनको पकड़ लिया जाएगा ।
और उनका समाज सुधार का कार्य अधूरा रह जाएगा ।
उन्होंने समस्त विश्व का पथ प्रदर्शन करने वाली सत्यार्थ प्रकाश नामक एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी ।

सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने लिखा कि
विदेशी राजा चाहे कितना ही न्यायप्रिय,
कितना ही सत्यनिष्ठ क्यों न हो
किंतु स्वदेशी राजा सदा
विदेशी राजा से अच्छा होता है ।

सत्यार्थ प्रकाश से प्रेरणा लेकर असंख्य नौजवानों ने देश के लिए मर मिटने की कसम खाई ।
इनमें थे पंजाब केसरी लाला लाजपतराय,
शहीदे आजम सरदार भगत सिंह,
अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल,
अशफाक उल्ला खान,
चंद्रशेखर आजाद
और ऐसे ही असंख्य नौजवान ।
इन सब ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी ।

मैं आपको बता दूं कि जिन लगभग सात लाख (7,00,000) देशभक्त शूरवीरों ने अपने प्राणों की आहुति अपने देश को आजाद कराने के लिए दी
उन में से 85 प्रतिशत से अधिक स्वामी दयानंद के विचारों से प्रभावित थे
या कहें कि स्वामी दयानंद के शिष्य थे ।
धन्यवाद उस महान गुरु स्वामी विरजानंद का ।
और धन्यवाद उस श्रेषठतम शिष्य
विश्व गुरु स्वामी दयानंद का ।

आर्य समाज

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