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इस्लाम छोड़ने की सजा

पिछले कई रोज से यह खबर अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियाँ बटोर रही कि सऊदी अरब की एक युवती इस्लाम तथा अपने परिवार से दूर भागकर आस्ट्रेलिया जाने की कोशिश कर रही थी और  बैंकॉक के मुख्य एयरपोर्ट में फंस गई है, अब 18 साल की रहफ मोहम्मद अल-कुनन कह रही है कि अगर वह दोबारा लौट कर अपने परिवार के पास गईं तो इस्लाम त्यागने के कारण उनकी हत्या हो सकती है. हालाँकि इस्लाम त्याग कर भाग रही सऊदी लड़की को कनाडा ने उसे अपने देश में शरण दे दी हैं. दुनिया के अनेकों विचारक इस विषय पर अपनी गंभीर राय रख रहे है कि क्या इस्लाम से बाहर जाने का मौत के अलावा कोई दूसरा विकल्प क्यों नहीं है?

सऊदी अरब में इस्लाम त्यागने को एक जुर्म की तरह देखा जाता है, जिसकी सजा मौत होती है. यह कानून छठी-सातवीं शताब्दी से लागू है जिसका अभी भी पालन जारी है. माना जाता है कि यह व्यवस्था कुरान के अनुसार है जो सऊदी अरब की धार्मिक व्यवस्था का आधार भी है. यह व्यवस्था जन्म से लेकर मौत तक किसी भी इस्लाम के मानने वाले की जिंदगी के रास्ते तय करती है खासकर महिलाओं के मामले में तो इसका बेहद कड़ाई से पालन किया जाता है उनके साथ हर पल एक नाबालिग जैसे व्यवहार किया जाता है.

आज जिन लोगों को लगता होगा कि हर किसी को यह अधिकार हासिल है कि वो जिस धर्म-मजहब में पैदा हुए है उसको छोड़कर किसी दूसरे धर्म में आसानी से जा सकते है तो उनके लिए शायद इस्लाम बुरा सबक होगा क्योंकि इस्लाम शुरू से ही वन वे स्ट्रीट की तरह है जिसमें इन्सान आ तो सकता है लेकिन आसानी से जा नहीं सकता. इस्लामिक मुल्कों के जानकर कहते हैं कि कोई भी इन्सान इस्लाम स्वीकार करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है, लेकिन उसे इस्लाम को छोड़ने की स्वतन्त्रता नहीं है यदि कोई कोशिश करता है तो उसकी सजा मौत है जैसे अब 18 साल की सऊदी लड़की रहफ मोहम्मद अल-कुनन कह रही है कि यदि वह अपने घर वापिस गयी तो उसका परिवार उसकी हत्या कर देगा.

हालाँकि यह बात सभी जानते है कि अहिंसा, प्रेम, सद्भाव धर्म का मूल होता है, समस्त स्रष्टि ईश्वर की बनाई हुई हैं फर्क सिर्फ इतना हुआ कि बीते दो से तीन हजार सालों में बहुतेरे लोगों ने सोच, समझ और सनक से मत, पंथ और सम्प्रदाय बना डाले इस कारण आज ईश्वर को लोग अलग-अलग नामों से मानते हैं. इसमें सोचने की बात यह है कि अगर स्रष्टि का रचयिता एक है तो उसका आदेश अलग-अलग कैसे हो सकता है? मानवता ही हम सबका का पहला धर्म है.

पर इस्लाम के संदर्भ में क्या ऐसा कहा जा सकता है? क्योंकि देश-विदेश से जो भी जानकारी आती है वह इस कथन को उल्टा कर देती हैं. साल 2015 में बीबीसी ने धार्मिक स्वतन्त्रता को लेकर ब्रिटेन के अन्दर एक पड़ताल की थी. इस पड़ताल के बाद बीबीसी से जुड़ी पत्रकार समीरा अहमद ने एक रिपोर्ट जारी करते लिखा था कि ब्रिटेन के अंदर इस्लाम छोड़ने या छोड़ने का इरादा रखने वाले मुसलमान नौजवानों को धमकियां मिल रही है, उन्हें डराया जा रहा है और उनका समुदाय से बहिष्कार किया जा रहा हैं. ब्रिटेन के कुछ शहरी मुसलमानों का मानना है कि इस्लाम को छोड़ना गुनाह है और इसकी सजा मौत भी हो सकती है.

उन्होंने लिखा था कि कई मामलों में तो उन्हें गंभीर शारीरिक यातनाओं का भी शिकार होना पड़ रहा है. स्थानीय काउंसिलें भी हैं जिन्हें इस मसले पर कम जानकारी है कि मुसीबत में फंसे इन नौजवानों को कैसे बचाया जाए. समीरा ने एक चौदह वर्ष की लड़की का उदहारण देते लिखा था कि लंकाशायर की आयशा सिर्फ 14 साल की थीं जब उसने इस्लाम को लेकर सवाल करने शुरू कर दिए. वह क़ुरान का अध्ययन कर रही थीं. उसने हिजाब पहनने से मना कर दिया और आख़िरकार फैसला लिया कि वह इस्लाम छोड़ रही हैं. उसके बाद तो घर में हालात बुरे हो गए. उसके पिता ने उसके गले पर चाकू रखकर मारने की धमकी दी और कहा कि अगर वह ऐसा करके परिवार को शर्मिंदा करती हैं तो वो उसे मार सकते हैं. इसके बाद उसकी बुरी तरह पिटाई की गयी अंत में आयशा को पुलिस को बुलाना पड़ा.

इसी तरह कुछ समय पहले लेखक तुफैल अहमद ने भी लिखा था कि मौलिक स्वतंत्रता का हनन और बढ़ते कट्टरवाद के कारण भारत में मुसलमान इस्लाम को छोड़ रहे है. बीते 5 सालों से यह चलन बढ़ा है. यूरोप और अमेरिका में यह ट्रेंड सबसे अधिक देखा जा रहा है. इस्लाम धर्म को छोड़ने वाले मुसलमान स्वयं को एक्स-मुस्लिम अर्थात पूर्व मुसलमान कहते है. मुस्लिम धर्म को त्यागने वाले ज्यादातर नास्तिकता को अपना रहे है जबकि बड़ी संख्या में लोग हिन्दू और बौद्ध धर्म भी अपना रहे हैं. जैसे जैसे एक्स मुस्लिम का ट्रेंड बढ़ा है वैसे वैसे इनपर धमकियाँ और हमले भी बढ़े हैं.

आज मुद्दा यह नहीं है कि ये धमकियाँ और हमले क्यों बढे है बल्कि मुद्दा यह है कि सातवीं सदी के कानूनों से आज भी लोगों को उसी तरीकों से हांका जा रहा है और धार्मिक स्वतंत्रता देने की बजाय आधुनिकता का घोर विरोधी बनकर आज भी इस्लाम को छोड़ने की सजा रूप में मौत के फरमान सुनाये जा रहे हैं. शायद इसी कारण धार्मिक स्वतंत्रता के पक्षधर युवा इसे नकार रहे हैं…राजीव चौधरी

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