Categories

Posts

ईश्वर सभी जीवों के कर्मों का साक्षी और उन कर्मों का फल प्रदाता है

क्या आप ईश्वर व उसके बनाये हुए इस संसार को जानते हैं? इसका उत्तर वह बन्धु जिन्होंने वेद व ऋषियों के शास्त्र पढ़े, जाने व कुछ समझे हैं, हां में देते हैं। कोई भी रचना तभी अस्तित्व में आती है कि  जब कोई ज्ञानी मनुष्य उसकी रचना करता है। क्या कोई पेण्टिंग बिना किसी पेण्टर के बन सकती ह? क्या कोई मकान बिना इंजीनियर व मिस्त्री-मजदूरों के बन सकता है? क्या संसार में कोई ऐसी वस्तु है, जिसका अस्तित्व हो और उसका कोई रचयिता वा बनाने वाला न हो। ऐसा सम्भव नहीं है। किसी भी पदार्थ की रचना दो प्रकार की होती है। प्रथम अपोरूषेय रचनायें और दूसरी पौरूषेय रचनायें। जिन चीजों को मनुष्य लोग बना सकते हैं वह पौरूषेय रचनायें होती है और जिन्हें मनुष्य नहीं बना सकते परन्तु जिनका अस्तित्व हो, वह रचनायें अपौरूषेय कहलाती है। यह अपौरूषेय रचनायें ईश्वर द्वारा की हुई होती हैं। हमारे इस ब्रह्माण्ड में अनन्त सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व लोकलोकान्तर हैं। इन्हें मनुष्य नहीं बना सकते। इस लिये इनकी रचना ईश्वर द्वारा की गई है। ईश्वर द्वारा रचना होने से यह अपौरूषेय रचनायें है। रेलगाड़ी, हवाई जहाज, मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, कार, बंगला, वस्त्र, भोजन आदि मनुष्य बना सकते हैं, अतः यह रचनायें पौरूषेय रचनायें होती है। किसी भी रचना में यह सिद्धान्त कार्य करता है कि रचना बिना रचयिता के नहीं होती है। यदि कहीं कोई रचना है तो उसका रचयिता अवश्य है। यह हो सकता है कि अपने अल्प ज्ञान से हम उसके रचयिता को जान व देख न पाये परन्तु रचयिता होता अवश्य है।

मनुष्य व सभी प्राणी भी ईश्वर की रचनायें हैं। प्राणियों का जन्म भी ईश्वर के द्वारा भिन्न भिन्न विधि विधान के अनुसार होता है। माता-पिता तो ईश्वर के नियमों का पालन करते हैं। वह तो अपनी किसी सन्तान के जन्म से पूर्व यह भी नहीं जानते कि गर्भ में जो बालक बन रहा है उसका लिंग क्या है? वह बालक है या बालिका। हां, आजकल कुछ वैज्ञानिक यन्त्र बन गये हैं, जिनकी सहायता से सन्तान का लिंग जाना जा सकता है। यह ंिलंग भी माता को पता नहीं होता, उसे डाक्टर बताये तो तभी ज्ञान होता है अन्यथा नहीं। इस चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि संसार में ईश्वर है जिसने इस सृष्टि को बनाया है और वही इसे चला रहा है। संसार के सभी रहस्यों को जानने के लिए वेदों का ज्ञान आवश्यक है। वेद ईश्वर का ज्ञान होने से वेदों में ईश्वर व सृष्टि के वह सभी रहस्य दिए गये हैं जिनका ज्ञान मनुष्यों के लिए आवश्यक है। वेद और मन्त्र द्रष्टा ऋषि यह बताते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है। वह ईश्वर असंख्य गुणों का धारक है। इन गुणों में ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है।

ईश्वर ने यह सृष्टि बनाई है। क्यों बनाई, इसका उत्तर है कि अपनी शाश्वत सनातन प्रजा जीवों के पूर्व जन्म व कल्प में किये गये शुभाशुभ कर्मों के सुख व दुख रूपी फल भोगने व भोगाने के लिए। मनुष्य ने पूर्व कल्प व पूर्व जन्म में जैसे कर्म किये होते हैं, उन संचित कर्मों से उसका प्रारब्ध बनता है। उस प्रारब्ध के अनुसार उसको परजन्म और कर्मानुसार सुख व दुःख आदि प्राप्त होते हैं। ईश्वर को जीवों के सभी कर्मों का ज्ञान कैसे होता है? इसका उत्तर यह है कि ईश्वर चेतन, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अमर, अविनाशी, अनन्त, सर्वज्ञ, न्यायकारी आदि अनेक व असंख्य गुणों से युक्त है। वह जीवों के प्रत्येक कर्म का साक्षी होता है। मनुष्य व अन्य प्राणी रात्रि के अन्धेरे या कहीं भी छिप कर कोई भी कर्म करे, कर्म नहीं अपितु मन में विचार भी करते हंै, तो भी सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से ईश्वर को इन सब बातों का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर में भूलने का गुण नहीं है। वह सभी जीवात्मा के सभी कर्मों को जानता है व उन्हें स्मरण रखता है। ईश्वर न्यायकारी भी है। अपने इसी गुण के कारण ईश्वर जीवात्माओं को जन्म-जन्मान्तरों में उसके पूर्व जन्मों के कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी फल देता है।

हम इस जन्म में मनुष्य बने हैं तो इसका कारण पूर्व जन्म के हमारे कर्म हैं और ईश्वर की कृपा व न्यायकारी व्यवस्था है। इसी कारण हमें इस जन्म में माता-पिता, भाई बन्धु आदि सभी सुख भोग के साधन भी मिले हैं। अतः मनुष्य को अपने किए पूर्व कर्मों का भोग करते हुए नये शुभ कर्म अवश्य करने चाहियें। यदि नहीं करेंगे तो वह अपने परजन्म का अनुमान कर सकते हैं कि वह किस प्रकार का किस योनि में हो सकता है। यही कारण है कि हमारे प्राचीन ऋषि मुनि ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते थे और वेदाध्ययन सहित वेद प्रचार करते हुए परहित एवं ईश्वर प्राप्ति के लिए उपासना आदि की साधना करते थे। ऋषि और योगी ईश्वर व आत्मा का साक्षात्कार भी करते थे। हमारे उपनिषद व दर्शन आदि ग्रन्थ ऐसे ही आप्त काम व साधना में सफल हुए ऋषियों के द्वारा रचे गये हैं। हमें अपने परजन्म को सुखी व कल्याणप्रद बनाने के लिए सद्कर्मों पर विशेष ध्यान देना होगा। इसके लिए वेदाध्ययन व शास्त्राध्ययन कर अपने कर्मों को सुधारना होगा और ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र, परोपकार, दान आदि के कार्य करने होंगे। जिन प्राणियों ने पूर्व जन्म में अच्छे काम नहीं किये थे उन्हें हम इस जन्म में कुत्ते, बिल्ली, चूहे, सांप व बिच्छू सहित गाय, भैंस आदि की योनियों में जन्म लिया हुआ देख रहे हैं। ईश्वर ने जीवात्माओं को भिन्न भिन्न योनियों में उनके पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही जन्म दिया है। किसी के प्रति अन्याय नहीं किया गया है। ईश्वर सब जीवों के कर्मों का साक्षी है। इसलिये उसे न्याय करने में दूसरे किसी की साक्षी की आवश्यकता नहीं होती। मनुष्य योनि में न्याय का कार्य करने वाले लोग एकदेशी व अल्पज्ञ होते हैं। इस कारण उन्हें न्यायालय में साक्षियों की आवश्यकता होती है। ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वदेशी व सर्वान्तर्यामी होने से उसे किसी की साक्षी की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह सब जीवों के कर्मों व भावों को जानता है। इसी कारण उसका न्याय आदर्श न्याय होता है।

जीव कर्म करने में स्वतन्त्र होता है और फल भोगने में ईश्वर के परतन्त्र होता है। यह वैदिक सिद्धान्त है जिसे वेद, ऋषियों और आप्त पुरुषों की स्वीकृति व सहमति प्राप्त है। एक प्रसिद्ध सर्वमान्य सिद्धान्त है अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं अर्थात् मनुष्य जो भी शुभ व अशुभ कर्म करता है, उसके फल उसको अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। मनुष्य अपने किसी कर्म का फल भोगे बिना छूटता नहीं है। यह जान लेने के बाद मनुष्य को विचार करना है कि उसे क्या व किस प्रकार के कर्म करने हैं। पुण्य करना है या पाप करना है, यह मनुष्य को स्वयं ही निश्चय करता है। यह भी सामान्य बात है कि सत्य ही धर्म है और झूठ बोलना व असत्य कर्म करना ही पाप व नरक में गिरना है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *