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क्या उपनाम ही इन्सान की असली पहचान है..?

क्या नाम के बाद उपनाम यानि सरनेम जरुरी है, क्या उपनाम ही हमारा असली परिचय होता है जो हमारी जाति धर्म समूह समुदाय का प्रतिनिधित्व करता है? यानि सामने वाला आसानी से समझ जाये कि उक्त उपनाम का व्यक्ति इस जाति समूह या समुदाय से सम्बन्ध रखता है तथा उपनाम के अनुसार ही उसके साथ व्यवहार और शिष्टाचार किया जाये। दरअसल ये सवाल इस वजह से निकलकर आये कि हाल ही में हरियाणा के जींद की एक खाप पंचायत ने ऐलान किया है कि उनकी पंचायत के अंतर्गत आने वाले 24 गांव के लोग अब जाति-धर्म भूलकर अपने नाम के पीछे अपनी जाति नहीं बल्कि गांव का नाम लगाएंगे ताकि जाति और धर्म का भेदभाव कम हो।

हालाँकि भारत में अनगिनत उपनाम है, जातियों के उपनाम है, इसके बाद उपजातियों के उपनाम है। एक किस्म से कहे तो उपनामों, का एक विशाल समंदर है। किन्तु ये उपनाम आये कहाँ से? क्योंकि उपनामों के संदर्भ में भारतीय इतिहास उठाकर देखें तो रामायण काल में राजा दसरथ, राम, लक्ष्मण, रावण विभीषण को ले लिया जाये अथवा महाभारत के समय राजा महाराजाओं के नामों के साथ उपनाम नहीं थे। धृष्टराष्ट्र, भीष्म, दुर्योधन, दुषाशन अश्वत्थामा या युयुत्सु, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, कंस या कृष्ण कोई भी गोत्र या उपनाम का प्रयोग नहीं करता था। इसके उपरांत महाभारत कालखंड से आगे चलकर देखें बिंबिसार, अजातशत्रु, उदयन, निपुंजय, सुनिक, महापद्म, आदि के बाद नंद वंश का अंतिम शासक धनानंद तक उपनाम का प्रयोग कहीं दिखाई नहीं देता। किन्तु धनानंद के पश्चात चन्द्रगुप्त आया और मोर्य उपनाम शुरू हुआ। यदि सम्राट अशोक को छोड़ दिया जाये तो राजाओं में वंश का नाम उपनाम की भाँति प्रयोग आरंभ हो गया था जिसका प्रयोग मुगलशासन से पहले के राजाओं तक में देखने को मिलता है।

देखा जाये मुगलकालीन क्षत्रिय राजाओं नें अपने नाम के साथ उपनाम का प्रयोग आरंभ कर दिया था जैसे मानसिंह, महाराणा प्रताप, जयमल सिंह राठौड़, गुरू गोविन्द सिंह आदि किन्तु सामान्य तौर पर उपनाम प्रयोग नहीं होता था। जैसे मीरा, कबीर, तुलसीदास या रैदास इनमें कोई भी उपनाम का प्रयोग नहीं करता था। यानि बाद में ये चलन बढ़ा। एक समय राव, रावल, महारावल, राणा, राजराणा और महाराणा जैसी उपाधियाँ हुआ करती थी लेकिन आज यह उपनाम के तौर पर देखी जा सकती है। जैसे शास्त्र पढ़ने वालों को शास्त्री, सभी शास्त्रों के शिक्षक को आचार्य, दो वेदों के ज्ञाता को द्विवेदी, चार के ज्ञाता चतुर्वेदी कहलाते थे। उपाध्याय, महामहोपाध्याय उपाधियाँ भी शास्त्रों के अध्यन आधारित होती थी लेकिन आज ये भी उपनाम बन गये।

अंग्रेजों शासन के दौरान बहुत सी उपाधियाँ निर्मित हुई, जैसे मांडलिक, जमींदार, मुखिया, राय, रायबहादुर, चौधरी, देशमुख, चीटनीस और पटेल आदि आज यह भी सब उपनाम के रूप में देखी जा सकती हैं। भारत में नामों का बहुत होचपोच मामला है। बहुत से गोत्र तो उपनाम बने बैठे हैं और बहुत से उपनामों को गोत्र माना जाता है। अब जैसे भारद्वाज नाम भी है, उपनाम भी है और गोत्र भी। जहाँ तक सवाल गोत्र का है तो भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों चारों में लगता है। जिस किसी का भी भारद्वाज गोत्र है तो यह माना जाता है कि वह सभी ऋषि भारद्वाज की संतानें हैं. अब आप ही सोचें उनकी संतानें चारों वर्ण से हैं।

पिछले कुछ साल पहले भारतीय समाज में उपनाम का महत्त्व जानने के लिए हमने एक प्रयोग किया था। हम अलग लोगों से अलग-अलग उपनामों के साथ मिले तो हमने पाया हर एक उपनाम पर समाज में अलग व्यवहार देखने को मिला। इससे यह समझा जा सकता है चाहे कोई नाम रख लो किन्तु उपनाम ही सच्चा प्रहरी है यह बताने के लिए कि अमुक व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण है, क्षत्रिय है, वैश्य अथवा शुद्र है। यानि कर्मणा व्यवस्था की बजाय लोग उपनाम रूपी जन्मना जाति से चिपके हुए हैं। यदि इन उपनामों पर शोध करने लगे तो कई ऐसे उपनाम है जो हिंदू समाज के चारों वर्णों में एक जैसे पाए जाते हैं। दरअसल भारतीय उपनाम के पीछे कोई विज्ञान नहीं है यह ऋषिओं के नाम के आधार पर निर्मित हुए हैं। ऋषि-मुनियों के ही नाम गोत्र भी बन गए। कालान्तर में जैसे-जैसे राजा-महापुरुष बढ़े समाज बढ़ा साथ ही उपनाम भी बढ़ते गए। कहीं-कहीं स्थानों के पिता और दादा के नाम पर भी उपनाम देखने को मिलते हैं। जबकि समस्त भारतीय एक ही कुनबे के हैं, लेकिन समय सब कुछ बदलकर रख देता है जाति भी धर्म और कर्म भी। इस कारण आज जो जींद की एक खाप पंचायत ने ऐलान किया है वह बहुत सराहनीय कार्य है। किन्तु इसमें आने वाली पीढ़ी उपनाम के स्थान पर लगे गाँव के नाम को ही गोत्र न मानने लग जाये। इससे बेहतर यही है कि यदि समाज में उपनाम की दूरी पाटनी ही है और उपनाम ही इन्सान की असली पहचान से देखा जाता है तो क्यों न सभी लोग अपने नाम के पीछे आर्य लगाये शायद इससे प्राचीन सभ्यता जीवित हो उठे.

विनय आर्य

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