Categories

Posts

क्या ऋषियों की भाषा कठिन होती है ?

लेख प्रस्तुति कर्ता – आचार्य नवीन केवली 

हम सभी प्राणियों का लक्ष्य ( प्रयोजन) एक ही है। हम सब एक ही प्रयोजन से प्रेरित हो कर समस्त क्रियाओं को करते हैं और वह है दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्ति। न्याय दर्शन के भाष्यकार कहते हैं कि “तेन अनेन सर्वे प्राणिन: सर्वाणि कर्माणि सर्वाश्च विद्या व्याप्ता” अर्थात् हम सभी प्राणी उसी प्रयोजन की पूर्ति के लिए तत्पर हैं, सभी कर्म उसी कि सिद्धि के लिए किये जाते हैं और समस्त विद्याएँ उसी एक ही प्रयोजन से अभिव्याप्त हैं। उसी को जनाना चाहते हैं। इसी को उपनिषद् में भी ऋषि ने कहा कि “सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति……ओम् इत्येतत्” विद्या भी कई प्रकार की है, उनमें से जो अध्यात्मिक विद्या है, ऋषि मुनि कृत ब्राह्मणग्रन्थ, उपनिषद्,वेदांग, उपांग आदि आर्ष ग्रन्थ हैं, उस प्रयोजन को सिद्ध कराने में अत्यन्त सहायक हैं और अन्य आवान्तर विषय वा ग्रन्थ परोक्ष रूप में सहयोगी हैं। जो विद्या,ग्रन्थ हमारे प्रयोजन को सिद्ध करने में विशेष सहायक हैं वे सब शिक्षा से लेकर वेद पर्यन्त संस्कृत भाषा में विद्यमान है। वेद को समझने के लिए ही इन सबका विस्तार है। कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है अथवा कुछ लोग ऐसी शंका करते हैं कि – ये ऋषिमुनि कृत (आर्ष ग्रन्थ) इतने जटिल क्यों होते हैं ? ऋषियों ने इन ग्रंथों को इतना कठीन क्यों बनाया ? उनकी भाषा दुर्विज्ञाना क्यों है ? तो महानुभव ! आईये ! इस विषय पर कुछ विचार करते हैं।
 सबसे पहले तो हमको यह समझना चाहिये कि कोई भी विषय, कोई भी कार्य अथवा कोई भी ज्ञान-विज्ञान अपने आप में सरल वा कठीन नहीं होता। सरल और कठीन का व्यवहार अपेक्षा से होता है। अपनी अपनी योग्यता, ज्ञान, बल, सामर्थ्य, और पुरुषार्थ की अपेक्षा से ही कुछ भी सरल व कठीन के रूप में परिभाषित होता है। जैसे वैशेषिक दर्शनकार के अनुसार अणु और महत्, छोटा और बड़ा आदि का व्यवहार भी सापेक्ष होता है। अपने आप में कोई वस्तु छोटी या बड़ी नहीं होती। हम प्रत्येक वस्तु के साथ अपेक्षा से युक्त व्यवहार करते हैं, जैसे कि एक आँवला है, उसको हम छोटा या बड़ा नहीं कह सकते परन्तु उसके सामने एक बेल रख दें तो वह आँवला बेल की अपेक्षा से छोटा हो जायेगा और उसी आँवला के सामने तिल रख दें तो तिल की अपेक्षा से बड़ा कहलायेगा। ठीक ऐसे ही किसी विषय, किसी कार्य अथवा किसी ज्ञान के क्षेत्र में सरलता वा कठिनता का व्यवहार अपने आप में नहीं होता। यदि किसी कार्य के विषय में हमारा अनुभव नहीं है, ज्ञान नहीं है, योग्यता नहीं है, सामर्थ्य नहीं है और यदि हम यथार्थ रूप में विधि पूर्वक पुरुषार्थ नहीं कर पा रहे हैं तो वह कार्य हमारे लिए कठीन हो जायेगा, जैसे एक बलवान स्वस्थ व्यक्ति है, प्रतिदिन व्यायाम करता है, तो उसके लिए एक हजार, दो हजार, अथवा पांच सौ दण्ड बैठक लगाना सरल है, परन्तु ऐसे भी व्यक्ति देखे जाते हैं जो सौ तो क्या बीस दण्ड भी नहीं लगा सकते। ऐसे कमजोर व्यक्ति के लिए पांच हजार दण्ड लगाना स्वप्नवत् है, उसके लिए कठीन साध्य है, वह व्यक्ति सोचता है कि इतना कठीन व्यायाम कैसे कर लेते हैं ?कोई सरल व्यायाम नहीं है क्या ? व्यायाम को लोगों ने इतना कठीन कठीन क्यों बना दिया ? उसी स्थान में कुछ लोग ऐसे भी देखे जाते हैं जो दिन भर दण्ड लगाने में समर्थ होते हैं। तो इससे यह ज्ञात होता है कि यह व्यायाम करना कठीन और सरल व्यक्ति के सामर्थ्य की अपेक्षा से है। ठीक ऐसे ही ज्ञान के क्षेत्र में होता है। एक सामान्य ग्रामीण व्यक्ति है, उसको कम्प्यूटर चलाना नहीं आता लेकिन एक व्यक्ति उसी कम्प्यूटर का सॉफ्टवेयर भी बना लेता है। क्योंकि वह व्यक्ति कम्प्यूटर के क्षेत्र में अपने ज्ञान-विज्ञान, योग्यता, सामर्थ्य को बढाया है जिससे वह सब कार्य उसको सरल लगता है। अब बात आती है हमारे आर्ष ग्रंथों की तो समझने की बात यह है कि –ऋषियों ने जो ग्रन्थ लिखे हैं वे सब प्रपंच सरलता करने के लिए ही था, वेद को हम सरल ढंग से समझ सकें इसीलिए ही इन सब ग्रंथों की रचना की।
ये ऋषियों की हम सब पर कृपा दृष्टि व उनकी विशेषता अथवा शैली ही है कि जन-सामान्य के लिए उपकारार्थ सरल से सरल रूप में विषयों को उपस्थापित कर देते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने भी अपने सभी ग्रंथों को प्रचलित लोक भाषा हिंदी में लिख कर सरल बना दिया। आपको विदित हो कि प्राचीन काल में हमारी बोल-चाल की भाषा संस्कृत ही हुआ करती थी। जब बोलचाल कि ही भाषा थी तो सामान्य स्तर का मजदूर भी संस्कृत भाषा का प्रयोग करता था। जैसे कि एक किम्वदन्ती सुनने में आता है कि –एक लक्कड़-हारा कुछ लकड़ियों को ढोकर ले जाते रहता है। उसको देख कर एक राजकुमार पूछ लेता है कि “भवन्तं भारं तु न बाधति” उसको सुन कर वह लक्कड़ हारा प्रत्युत्तर में कहता है कि, हे राजकुमार! “भारं तु न बाधते परन्तु भवतः बाधति एव मां बाधते” अर्थात् आपने जो बाधते के स्थान पर बाधति शब्द का प्रयोग कर दिया, वह शब्द ही मुझे बाधित कर रहा है, दुःख दे रहा है। इससे ज्ञात होता है कि सामान्य व्यक्तिओं को भी संस्कृत भाषा का परिज्ञान होता था। ठीक उसी प्रकार ऋषियों ने जो भी ग्रन्थ लिखा, जिस भाषा शैली का प्रयोग किया वह उसी कालीन सरल भाषा ही थी। काल क्रम में भाषाओँ का परिवर्तन और अपनी योग्यता व सामर्थ्य की न्यूनता के कारण वही भाषा हमें कठीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में निरुक्तकार ने कहा है कि – साक्षात् धर्मिण ऋषयो बभूवुः, ते अवरेभ्यो असाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादु:। उपदेशाय ग्लायन्तो अवरे बिल्म- ग्रहणायेमं ग्रन्थं समाम्नासिषु: वेदं च वेदांगानि च।

प्राचीन काल में ऋषि मुनि लोग प्रत्येक पदार्थों के साक्षात्कृत धर्म वाले प्रत्यक्ष ज्ञान से युक्त हुआ करते थे। उन्होंने बाद वालों को जिन्होंने प्रत्यक्ष नहीं किया था, उनको उपदेश के द्वारा मन्त्रों को सीधा सीधा पढाया करते थे। और वे लोग भी अर्थ सहित सब समझ जाते थे। कालान्तर में जब हमारी योग्यता घटती गयी, और ज्ञान ग्रहण करने में वा मानसिक स्तर में न्यूनता आती गयी तब उनको अनुत्साह वा ग्लानि(खेद) होने से उन लोगों को सरल रूप में ज्ञान ग्रहण कराने के लिए, आसानी से वेदार्थ ज्ञान के लिए इन सभी शिक्षा से लेकर ब्राह्मण ग्रन्थ तक शास्त्रों की रचना की। इससे यह सिद्ध होता है कि ऋषियों ने कठिनाई नहीं बल्कि सरलता बढाई है, हमारी अपेक्षाओं को देखते हुए। और यदि ऋषियों ने सरल नहीं किया होता और हम सब की योग्यता ऐसी ही न्यून होती तो हमें कितनी बड़ी हानि उठानी पड़ती, हमारा मोक्ष का द्वार अथवा उस प्रयोजन की सिद्धि का द्वार पूर्णतया बंद हो जाता। ये तो उन उदारमना, परोपकारप्रिय, दयालु स्वाभाववाले ऋषियों की कृपा ही है कि हमें इस स्वरुप में आर्ष ग्रन्थ उपलब्ध हो रहे हैं , इससे अधिक और कितना सरल चाहिये। अ,आ, से तो प्रारंभ करके अन्त तक बता दिया, और क्या लड्डू बना कर मुंह में भी रख देते। पैसे कमाने के लिए कितना कठीन परिश्रम करना पड़ता है, एक दिन वा एक प्रहर का पेट भरने के लिए कितना कठीन परिश्रम करते हैं। हम जब अल्प कालिक सुख के लिए इतना प्रयत्न कर सकते हैं तो जो 31 नील, 10 ख़रब, 40 अरब वर्ष तक का स्थायी सुख है उसके लिए इतना प्रयत्न क्यों नहीं कर सकते। वैसे भी जितना कठीन हम मानते वा कहते हैं वास्तव में उतना कठीन है भी नहीं, केवल समय लगाने की बात है, अतः उस परम पद की प्राप्ति के लिए आईये हम सब समय प्रदान करें, अपनी योग्यता बढायें, सामर्थ्य बढायें, तपस्या करें, पुरुषार्थ करें और उस प्रयोजन की सिद्धि में सफलता को प्राप्त करें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *