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जय हो देव दयानंद की

जय हो देव दयानंद की, आनंद की करुणानंद की।

कर्षन जी घर निकला सूरज, धन्य हो गई टंकारा रज।

नाम था उसका शंकर मूल, शारीरिक शौष्ठव ज्यों फ़ूल।

शिव रात्रि का पर्व था आया, पिता ने व्रत उपवास कराया।

बालक मूल बहुत हर्षाया, दर्शन को था जी ललचाया।

भारी भीड़ भरा था मेला, उत्सुकतावश खड़ा अकेला।

पंडित जी ने शंख बजाया, लोगों ने फ़ल-फ़ूल चढ़ाया।

पूजन कर सो गए नर-नारी, लेकिन जगा रात वह सारी।

देखी घटना उसने न्यारी, शोर हुआ चूहों का भारी।

चूहों ने मिल भोग लगाया, मूल, मूल को नज़र न आया।

कैसा शिव करवट न लेता, रक्षा निज कर भगा न देता।

सच्चा शिव कोई और है, जो जग का शिरमौर है।

घर आकर उपवास को तोड़ा, सच्चे शिव की खोज में दौड़ा।

फ़िर देखी घर में दुर्घटना, कहाँ गए चाचा, कहाँ गई बहिना।

अभी-अभी जो खड़े यहाँ, आखिर दोनों गए कहाँ।

कोई दैवीय शक्ति है, जो मुझको न दिखती है।

देख मूल की व्याकुलता को, हुई निराशा मात-पिता को।

करने लगे विवाह तैयारी, पल्ले बाँधो इसके नारी।

मगर मूल को चैन कहाँ था, लिए प्रश्न बेचैन यहाँ था।

चकमा देकर निकल गया वह, सिद्ध मेले में पकड़ गया वह।

एक बार फ़िर से आजमाया, कामयाब अपने को पाया।

घूमे मथुरा, काशी, काबा, मिले अनेकों साधु बाबा।

माला, झोली, तिलक लगाया, लेकिन दिल को चैन न आया।

पूर्णानंद मिले संन्यासी, प्राणायाम, योग, अभ्यासी।

जमकर आसन योग लगाया, ‘शुद्ध चैतन्य’ बन निखरी काया।

मिली और आशा की दस्तक, हर्षित रोम-रोम व रग-रग।

गुरु विरजानंद का पता लगाया, मथुरा में गुरुवर को पाया।

जाकरके किवाड़ खटकाया, कौन हो तुम? उत्तर था आया।

यही जानने को मैं आया, गुरु ने असली शिष्य को पाया।

जमा मैल गंगा में धोया, बीज सत्य ग्रंथों का बोया।

चले दक्ष हो विमल दयानंद, पूर्ण प्रकाश पाया परमानंद।

गुरुवर को निज भेंट चढ़ाई, लौंग ले गुरु दक्षिणा बढ़ाई।

गुरुवर बहुत ज़ोर से बोले, सुनकर चीख दयानंद डोले।

दयानंद ये क्या देते हो?, क्या तुम अब तक नहीं चेते हो?

मिटे अंधेरा मिथ्या ज्ञान का, खिले सवेरा सत्य ज्ञान का।

वेदों का डंका बजवा दो, सत्य ज्ञान का दिया जला दो।

मुझे चाहिये तेरा जीवन, करो समर्पित पूरा तन-मन।

दयानंद ने शीश झुकाया, गुरू का आशीष सिर पर पाया।

वेदों का भाष्य कर डाला, सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ रच डाला।

ॠग्वेदादि भाष्य भूमिका, व्यवहार-भानु इत्यादि पुस्तिका।

गौ-करुणानिधि, गौ वार्ता, गुरु के प्रति सच्चा आभार था।

पी-पी विष अमृत पिलवाया, सच्चे शिव का बोध कराया।

-विमलेश बंसल ‘आर्या’

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