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दलित, मंदिर और भगवान बस एक समाधान

जिस देश में भगवान की जातियों को लेकर राजनीतिक हलकों में खींचतान जारी हो वहां एकाएक इन्सान की जाति से संबधित कोई खबर आ जाये तो इसमें हैरत में पड़ने की कोई बड़ी बात नहीं हैं। अब एक खबर है कि देश के कुछ प्रतिष्ठित मंदिरों में आज भी दलितों से भेदभाव जारी है। कहा जा रहा है, भक्तों की जाति से जुड़ी शुद्धता और अपवित्रता की पुरातन पंथी सोच अभी भी देश के कुछ प्रमुख मंदिरों में अंदर तक घर की हुई है, जहां देवी-देवताओं की पवित्रता को बचाए रखने के लिए दलितों का प्रवेश वर्जित है। इनमें एक मंदिर आस्था की नगरी वाराणसी का काल भैरव मंदिर है, यहां दलितों के भगवान के छूने पर रोक है. दूसरा ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में 11वीं सदी के प्रतिष्ठित लिंगराज मंदिर में भी दलित भक्त ऐसी ही पाबंदियों का सामना कर रहे हैं। तीसरा उत्तराखंड में जागेश्वर मंदिर, शिव के इस मंदिर में भी दलितों का प्रवेश वर्जित है। इसके बाद ऐसे ही एक दो मंदिर और भी हैं, जहाँ दलितों के प्रवेश पर रोक मानी जा रही है।

अक्सर ऐसी खबरें हमें निराशा प्रदान करती हैं ऐसे मंदिरों के कथित ठेकेदारों की बीमार सोच पर तरस खाने के साथ-साथ 21 वीं सदी में ऐसे भेदभाव मन में दुःख भी पैदा करता हैं, हालाँकि इसी बीच कुछ स्वस्थ खबरें भी आती रहती हैं जैसे इसी वर्ष केरल में सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए छह दलितों को आधिकारिक तौर पर त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड का पुजारी नियुक्त किया गया है। वैसे तो मंदिरों में ब्राह्मणों को ही पुजारी बनाने की परंपरा रही है, लेकिन यह पहला मौका था जब दलित समुदाय के लोगों को पुजारी बनाया गया है।

परन्तु यह कोई तुलना का सवाल नहीं कि आखिर इन्सान को जातियों में बांटकर उनके साथ भेदभाव कर रहे पुजारीगण उस भगवान को कैसे मुंह दिखाते होंगे जिसने इन्सान को बनाने में कोई भेद नहीं किया। यह सही है कि देश में किसी भी मंदिर में दलितों के प्रवेश पर घोषित तौर पर कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन रह-रहकर दलितों के मंदिर प्रवेश पर आपत्तियां उठती भी रहती हैं, ऐसी खबरें भी आती रहती है,  ये आपत्तियां कभी परंपरा के नाम पर सामने आती हैं, तो कभी मान्यताओं के नाम पर। जहाँ ऐसी कथित परंपराओं-मान्यताओं को खत्म करने में धर्माचार्यों की विशेष भूमिका होनी चाहिए थी, लेकिन उनमें से बहुत कम ऐसे रहे, जो सामाजिक समरसता के लिए सक्रिय हुए, अब तो आम हिंदू के लिए यह जानना मुश्किल है कि आखिर ये बड़े-बड़े धर्माचार्य करते क्या हैं?

मुझें नहीं पता इन लोगों के धार्मिक ज्ञान की सीमा कितनी है, इनकी सोच का दायरा कितना बड़ा है, ये लोग धर्म को कितनी गति देने की इच्छा रखतें है किन्तु इतना जरुर पता है कि ऐसे कथित धर्माचार्यों को अपने इतिहास का ज्ञान जरुर न्यून है। यदि एक भी दिन ये लोग अपना इतिहास उठाकर पढ़ लेंगें तो शायद जान पाएंगे कि इस जातिवाद और छुआछूत के कारण ही हम अफगानिस्तान से सिमटते-सिमटते दिल्ली तक रह गये। इस सब के बाद भी हम नहीं समझ रहे हैं। आज भी देश के कोने-कोने से आ रही धर्मांतरण की खबरों के बीच जहाँ धर्माचार्यों, शंकराचार्यों पुजारियों महंतों को हिंदू समाज को दिशा दिखानी चाहिए, लेकिन लगता है कि खुद उन्हें दिशा दिखाने की जरूरत है। क्योंकि घटनाओं या खबरों पर ये लोग मौन रहकर अपनी मूक स्वीकृति सी प्रदान जो कर रहे हैं?

2016 की वो खबर सबको याद होगी जब उत्तरांखंड के चकराता के पोखरी गांव के शिल्गुर देवता मंदिर में दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने गए सांसद को ही लोगों ने पीट दिया था, तो सोचिए, साधारण आदमियों की क्या दशा होगी। बात सिर्फ दलित मंदिर प्रवेश के अधिकार की नहीं है ये अधिकार तो हमारा कानून भी हमें देता है। बात है सामाजिक चेतना की, अपने इतिहास से सीखने की और इसमें ज्यादा पन्ने पलटने की भी जरूरत नहीं स्वामी श्रद्धानन्द के विचारों को उनके द्वारा लिखित पुस्तकों को पढने से ही ज्ञात हो जायेगा कि अतीत के कालखंड में हमने जातिवाद के कारण धार्मिक रूप से कितना नुकसान उठाया है। किस तरह स्वामी श्रद्धानन्द ने मन के कपाट खोलकर समरसता का दीप जलाया था।

आज एक ओर तो हिंदू समाज के धर्माचार्य दलितों के धर्मांतरण पर चिंता जताते दिखते हैं। दूसरी ओर वे ऐसी अप्रिय घटनाओं की अनदेखी करते हैं। जबकि हिंदुओं के बड़े धर्माचार्यों को स्वयं सामने आकर यह दिवार गिरानी होगी, एक वैचारिक आधुनिकता लानी होगी, इसके आये बिना तो इस समस्या का निर्णायक हल होने से रहा। जब वो स्वयं सामने आयेंगे तब अंध परम्पराओं और झूठी मान्यताओं के नाम पर इस दीवार को सजाने वाले छोटे-मोटे पुजारी खुद पीछे हट जायेंगे। इस समस्या में सबसे पहला समाधान मन में प्रवेश करने से आरम्भ करना होगा, मंदिर में प्रवेश तो स्वयं अपने आप हो जायेगा वरना इस तरह की खबरें बनती रहेगी और पढ़कर दुःख व्यक्त होते रहेंगे।…लेख-राजीव चौधरी

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