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धार्मिक व सामाजिक अंधविश्वास व पाखण्डों का कारण अविद्या है”

हमारे देश में अनेक प्रकार के धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वास एवं पाखण्ड प्रचलित हैं। इन अन्धविश्वास एवं पाखण्डों का कारण देश में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों की अविद्या है। इस अविद्या के कारण अनेक प्रकार की कुरीतियां भी प्रचलित हैं और सामाजिक विद्वेष उत्पन्न होने सहित किन्हीं दो समुदायों में हिंसा भी होती रहती है। अन्धविश्वासों व पाखण्डों का कारण अविद्या है, यह सत्य होने पर भी कोई मत-मतान्तर इसे स्वीकार नहीं करता। सभी मतों के आचार्य एवं उनके अनुयायी मुख्यतः अविद्या एवं अपने-अपने प्रयोजन की सिद्धि आदि के कारण जानबूझकर भी सत्य वैदिक मत को स्वीकार नहीं करते। यह भी तथ्य है कि महाभारतकाल के बाद लोगों के आलस्य व प्रमाद के कारण वैदिक धर्म का सत्यस्वरूप विकृत व विलुप्त हो गया था। लोगों ने वेदाध्ययन करने में प्रमाद किया जिससे सत्य वेदार्थ विलुप्त होते गये। कुछ स्वार्थी प्रकृति के लोगों ने अपनी अविद्या के कारण वेदों के मिथ्या व भ्रान्तियुक्त अर्थ भी किये जिससे समाज में मिथ्या विश्वासों की वृद्धि हुई। समय बीतने के साथ समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड तथा सामाजिक कुरीतियां में वृद्धि होती गई। बौद्ध काल में महात्मा बुद्ध ने मुख्यतः यज्ञ में पशु हिंसा एवं अन्य कुप्रथाओं का विरोध किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुयायियो ंने बौद्धमत की स्थापना की। इसी कालावधि में देश में महावीर स्वामी के अनुयायियों ने जैनमत की भी आलोचना की। लोग वैदिक मत छोड़कर नव-बौद्ध-मत व जैनमत को स्वीकार करने लगे। कालान्तर में स्वामी शंकराचार्य जी का आविर्भाव हुआ। उन्होंने बौद्ध व जैन मत की ईश्वर के अस्तित्व को न मानने के सिद्धान्त को वेद विरुद्ध होने के कारण उनसे शास्त्रार्थ करके उनकी मान्यताओं का खण्डन किया और विजयी हुए। इसके परिणाम स्वरूप तत्कालीन जैनी वा बौद्धमत के राजाओं ने स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतमत को स्वीकार किया। इससे बौद्ध व जैन मत पराभव को प्राप्त हुए और स्वामी शंकराचार्य का मत देश भर में प्रचलित हुआ। ऐसा होने पर भी देश व समाज से अज्ञान व अन्धविश्वास आदि समाप्त न हुआ और अल्पकाल में ही स्वामी शंकर की मृत्यु के कारण बौद्ध व जैन मत पुनः प्रभावशाली होने लगे। बौद्ध व जैन मत भी सत्य पर आधारित न होने के कारण वह भी सर्वमान्य नहीं हुए। वैदिक मत के अन्धविश्वास व मिथ्या परम्पराओं में वृद्धि होती गई। इस कारण वह भी वेद की सत्य मान्यताओं से बहुत दूर चले गये। कालान्तर में देश में 18 पुराणों का प्रचलन हुआ जिससे अनेक पौराणिक मत अस्तित्व में आये। मुख्य मत शैव, वैष्णव व शाक्त थे। कालान्तर में इनकी भी अनेक शाखायें हुईं और अन्य अनेक नये मत प्रचलित हो गये जिनका आधार सत्य ज्ञान न होकर अविद्या थी। स्वामी दयानन्द (1825-1883) के समय तक देश में मत-मतान्तरों की वृद्धि के साथ अन्धविश्वासों व कुप्रथाओं में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई और आज भी यह क्रम बढ़ता ही जा रहा है।

 संसार में जितने भी मत-मतान्तर हैं उनमें कुछ ज्ञानपूर्वक मान्यतायें भी हैं, वह सब मतों में सामान्य हैं। मत-मतान्तरों की जो मान्यतायें भिन्न व परस्पर विरुद्ध हैं, उसका कारण अज्ञान वा अविद्या है। धर्म सार्वभौमिक सत्य सिद्धान्तों को कहते हैं जिनका प्रतिपादन सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने वेदों में किया है। वेद की सभी बातें व सिद्धान्त सत्य पर आधारित हैं। हमारे प्राचीन ऋषि मुनियों ने वेद के सिद्धान्तों की परीक्षा कर इसे सत्य व धर्म का मूल सिद्ध किया था। ऋषि दयानन्द ने अपने समय में भी वेदों के सिद्धान्तों को समग्रता व सम्पूर्णता से सत्य पाया और उसका प्रचार किया। उन्होंने डिन्डिम घोष कर कहा कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इसके साथ उन्होंने यह सिद्धान्त भी दिया कि ‘सब सत्य विद्या (चार वेद) और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है।’ इसका अर्थ यह है कि चार वेद और सृष्टि के पदार्थ जिन्हें हमारे विद्वान व वैज्ञानिक विद्या से जानते हैं उन सब पदार्थों का आदि मूल अर्थात् रचयिता, उन्हें बनानेवाला व पालक परमेश्वर है। वेदों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप भी जनसमुदाय के सम्मुख रखा और घोषणा की कि ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।” आज भी कोई मत व उनका बड़ा या छोटा आचार्य और वैज्ञानिक ऋषि दयानन्द के इस सत्य सिद्धान्त को झुठला नहीं पाया। इससे ईश्वर विषयक यह सिद्धान्त सत्य सिद्ध हुआ है।

 जीवात्मा अर्थात् मनुष्यात्मा व प्राणिमात्र की आत्मा के विषय में ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ में लिखा है कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अत्पज्ञ नित्य है उसी को ‘जीव’ मानता हूं। उन्होंने जीव और ईश्वर के स्वरूप के विषय में आगे लिखा कि जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य-व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न है अर्थात् जैसे आकाश से मूर्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था न है, न होगा और न कभी एक था, न है, न होगा इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूं। ऋषि दयानन्द अभाव से भाव का उत्पन्न होना व भाव का अभाव होना नहीं मानते। यह आधुनिक विज्ञान का नियम भी है कि हर पदार्थ की उत्पत्ति का कोई एक व कुछ उपादान कारण होते हैं। उस उपादान कारण से ही ज्ञान व शक्ति का प्रयोग कर कोई चेतन सत्ता, ईश्वर व मनुष्य, नया पदार्थ बना सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने भी दर्शनों के आधार पर इस सृष्टि का निमित्त कारण ईश्वर तथा उपादान कारण प्रकृति को बताया हैं। वैदिक सिद्धान्तों से भी कारण-कार्य सिद्धान्त पुष्ट होता है। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि किसी वेद में अन्य मत-मतान्तरों के ग्रन्थों की तरह यह नहीं लिखा व कहा है कि ईश्वर ने कहा कि ‘हो जा’ या ‘बन जा’ और इतना कहने मात्र से ही यह ब्रह्माण्ड बन गया। ऐसा कहना व मानना अज्ञानता व सत्य का परिहास है। महर्षि दयानन्द के वैदिक सिद्धान्तों का किसी भी मत व वैज्ञानिकों ने खण्डन नहीं किया। उनमें खण्डन की क्षमता है भी नहीं। हमारा मत है कि जो बात तर्क व युक्ति से सिद्ध हो वह सत्य होती है और वही विज्ञान भी है। ईश्वर व जीवात्मा के सम्बन्ध में वेद, दर्शन और ऋषि दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषि पर्याप्त प्रमाण देते हैं। अतः संसार में वेद और वैदिक सिद्धान्त, जो महर्षि दयानन्द आदि ऋषियों के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश आदि में वर्णित हैं, वह पूर्ण सत्य व पूरे विश्व के सभी लोगों के लिए मान्य व स्वीकार्य होने चाहिये। इन्हें मानकर ही देश व समाज सुखी हो सकता है और साथ ही कल्याण को प्राप्त हो सकता है। समस्त मानव समाज मिथ्या अन्धविश्वासों सहित पाखण्डों से मुक्त भी हो सकता है।

 अन्धविश्वास का अर्थ होता है कि किसी असत्य, लाभरहित अथवा हानिकारक मान्यता व सिद्धान्त को सत्य स्वीकार कर उसका आचरण करना। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, सर्वशक्तिमान, अजन्मा आदि गुणों वाला है। सर्वव्यापक व निराकार स्वरूप वाले ईश्वर की मूर्ति व आकृति कदापि नहीं बनाई जा सकती। ईश्वर प्रत्येक स्थान पर होने से मूर्ति के अन्दर व बाहर दोनों स्थानों पर होता है। फिर मूर्ति के बाहर स्वीकार न करना व उसे दृष्टि से ओझल करना, मूर्ति से बाहर उसका ध्यान न करना, ईश्वर को मूर्ति में ही मानना तथा उस पाषाण जड़ मूर्ति से अपनी इच्छाओं की पूर्ति व कामनाओं को सफल होना मानना यह घोर अविद्या व अज्ञान है। ऋषि दयानन्द और वेदों की मान्यता है कि हम मूर्ति की कितनी भी पूजा कर लें, उससे हमें किसी प्रकार के सुख व कामना पूर्ति आदि का कोई लाभ नहीं होता। इसके स्थान पर यदि हम ईश्वर को निराकार, सर्वव्यापक, सर्वत्र उपलब्ध वा विद्यमान तथा सर्वशक्तिमान मानकर गायत्री मन्त्र आदि से उसका ध्यान, प्रार्थना व उपासना करते हैं तो इससे ईश्वर हमारी प्रार्थना को स्वीकार करता है। फलित ज्योतिष भी मिथ्या ज्ञान है। इसको मानने से मनुष्य अपनी हानि ही करता है, लाभ इससे कुछ होता नहीं। आज विज्ञान ने विश्व में जो उन्नति की है वह फलित ज्योतिष की उपेक्षा करके ही की है। हर्ष का विषय है कि हमारे वैज्ञानिक भी फलित ज्योतिष को नहीं मानते। विवाह के अवसर पर जन्म पत्रियों का मिलान फलित ज्योतिष की मान्यताओं के आधार पर करते हैं। इस कारण कई योग्य वर-वधुओं के विवाह नहीं हो पाते। हमने ऐसे ज्योतिषी भी देखें हैं जिन्होंने किसी वृद्ध महिला को बताया कि तुम्हारे परिवार में पुत्र के यहां पुत्र उत्पन्न न होगा। वह महिला मर गई और उसके बाद उसके पुत्र के यहां दो पुत्र हो गये। वेदों के ऋषि दयानन्द ने भी फलित ज्योतिष को मिथ्या और देश की गुलामी का प्रमुख कारण माना है।

 मृतक श्राद्ध भी मिथ्या मान्यता है। मरने के बाद जीवात्मा का पुनर्जन्म हो जाता है या फिर लाखों व करोड़ों आत्माओं में किसी एक धर्मात्मा व वेदज्ञानी मनुष्य की आत्मा का मोक्ष होता है। अन्य सब आत्माओं का पुनर्जन्म होना निश्चित है। जिस आत्मा का पुनर्जन्म हो गया उसे भोजन जहां उसका जन्म हुआ है, वहां उसके माता-पिता आदि व वह स्वयं पुरुषार्थ कर प्राप्त करेगा। यहां से बिना पते के भोजन वहां कदापि नहीं पहुंच सकता। वर्ष में एक दो बार भोजन बनाकर अग्नि में डाल देने से मृतक का पूरे वर्ष के लिए पेट नहीं भर सकता। यदि यह मान लें कि मृतक आत्मा का जन्म नहीं हुआ तो भी उस अजन्मी आत्मा को तो भोजन की आवश्यकता ही नहीं होगी। भोजन की आवश्यकता तो शरीर को होती है न कि आत्मा को। अतः मृतक श्राद्ध भी अन्धविश्वास व पाखण्ड है और इसे कुछ लोगों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए बनाया हुआ प्रतीत होता है। जन्मना जातिवाद भी एक बहुत बड़ा अन्धविश्वास व कुपरम्परा है। अतीत में यह बहुत से निर्दोष लोगों पर सबल लोगों के अत्याचार का कारण बना है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में सबसे पहले इसका विरोध किया था। आज के आधुनिक युग में जन्मना जातिवाद जारी है। यह लोगों के अज्ञान व अविद्या के कारण ही विद्यमान है अन्यथा इसे आज और अभी समाप्त कर देना चाहिये। किसी को भी जन्मना जातिवाचक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये। अपने बच्चों के विवाह भी सबको गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर वैदिक धर्म के ही भीतर ही करने चाहियें। अविद्या और अन्धविश्वास केवल हिन्दूओं में ही नहीं हैं अपितु बौद्ध, जैन, ईसाई व मुसलमानों सहित सभी मत-मतान्तरों में भी हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्य के निर्णयार्थ सत्यार्थप्रकाश में मत-मतान्तरों की अविद्या व अन्धविश्वासों का दिग्दर्शन कराया है। सभी समझदार व बुद्धिमान मनुष्यों को सत्यासत्य का विचार कर अन्धविश्वास और पाखण्डों सहित मिथ्या कुपरम्पराओं का त्याग करना चाहिये और सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर एकमात्र सत्य वैदिक धर्म की शरण में आकर अपने जीवन को सुखी व कल्याण से युक्त करना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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