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पाकिस्तान का हिंदू न घर का है न घाट का.

शामियाना सजा, अतिथियों का जमावड़ा हुआ, फूलों की सजावट और इत्र की बौछारें हुई भी हुई. शामियाने  के प्रवेश द्वार पर लिखे गये शब्द दावते-ए-इस्लाम की भावना का सम्मान पता नहीं लोगों के मन में कितना था पर जमीन पर दरियाँ बिछी उसके ऊपर कुर्सियां लगी ठीक सामने मंच के इस छोर से उस छोर तक मुल्ला मौलवियों का जमावड़ा था जो खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. दरअसल ये दावत थी इस्लाम को अपनाने की. जिसका आयोजन कर पाकिस्तान के सिंध प्रांत के मातली जिले में माशाअल्लाह शादी हाल नज्द मदरसा में 25 मार्च को 50 हिन्दू परिवारों के 500 लोगों का सामूहिक रूप से जबरन धर्म परिवर्तन करवा दिया गया.

मंच पर पीर मुख्तयार जान सरहदी, पीर सज्जाद जान सरहदी और पीर साकिब जान सरहदी ने कलमा पढ़ा जिसे सभी हिंदुओं को दोहराने को कहा गया. इन लोगों ने पर्दे में बैठी महिलाओं व बच्चों के भी नाम लेकर उन्हें इस्लाम कबूल करने को  कहा. सभी हिंदू दुखी मन और छलकती आँखों से कलमा दोहराते रहे. फिर वहां मौजूद लोगों ने उन्हें नए मुस्लिम बनने की मुबारकबाद दी.

जो लोग कलमा पढ़ रहे थे, उनके चेहरों पर खुशी नहीं थी. वे बच्चों और पर्दों में बैठी महिलाओं के साथ मजबूरी में इस्लाम कबूल कर रहे थे. इनमें से अधिकांश वे थे, जो भारत में शरण लेने आए तो थे. परंतु लम्बी अवधि का वीजा नहीं मिलने के कारण उन्हें पाकिस्तान लौटना पड़ा था.

राजस्थान की सीमा के उस पार धर्म परिवर्तन का यह पूरा सिलसिला ठीक उसी दौरान चल रहा था जब जिनेवा में यूएन मानवाधिकार परिषद के 37 वें सत्र में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सिंध प्रांत में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों और जबरन धर्म परिवर्तन, हिन्दुओ की लड़कियों और महिलाओं के अपहरण पर चिंता जताई जा रही थी. इसका संचालन मुस्लिम कनेडियन कांग्रेस के फाउंडर व लेखक तारिक फतेह कर रहे थे.

बताया जा रहा है कि राजस्थान में पिछले तीन सालों में 1379 हिंदू विस्थापितों को पाकिस्तान लौटना पड़ा. ऐसे लोगों का पाकिस्तान में जबरन धर्म परिवर्तन हो रहा था. खबर है अभी भी राजस्थान में लम्बी अवधि के वीजा के लिए 15000 विस्थापित दिल्ली और संबंधित जिलों के एसपी ऑफिस के चक्कर लगा रहे हैं. हालाँकि राजस्थान में बड़े स्तर पर 2005 में नागरिकता दी गई थी, उसके बाद से 5000 विस्थापित नागरिकता के इंतजार में है.

ऐसा नहीं है कि हमारे देश में जगह कम है बल्कि यहाँ बहुत बड़ी संख्या में विस्थापित रहते आये है. इनमें लाखों की तादात में तिब्बती शरणार्थियों के अलावा लगभग 40 हजार रोहिंग्या मुसलमान, जिनके पास न वीजा है न पासपोर्ट और करोड़ो की संख्या में बंगलादेशी मुसलमान, अफगान हो या इराकी शरणार्थियों समेत भारत दुनिया का सबसे बढ़िया ठिकाना बनता जा रहा हैं. अर्थात अपने देश की अनूठी परम्पराओं का लुत्फ आज सम्पूर्ण विश्व उठा रहा है. परम्पराओं, परिपाटियों एवं एतिहासिक उदहारण की आड़ में हमारे राजनेता भी अपनी हर ख्वाहिश को न केवल पूरा कर रहे हैं बल्कि अपनी कुर्सी भी सुरक्षित रख रहे हैं.

लेकिन जब बात पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थियों की होती है तो कथित धार्मिक जगत से लेकर राजनितिक जगत में एक अजीब सी खामोशी छा जाती है. उउनके पास वैध वीजा और पासपोर्ट होते हुए भी रहने नहीं दिया जाता जबकि अभी पिछले दिनों जब भारत सरकार ने रोहिंग्या मुद्दे को उठाया तो उनके समर्थन में पूरा विपक्ष कूद पड़ा, कई धार्मिक संगठन सामने आये इन्हें मासूम, परिस्थिति का शिकार, मजलूम और न जाने कितने भावनात्मंक शब्दों से इनका शरणार्थी अभिषेक किया जा रहा था. परन्तु जब इसी महीने पाकिस्तान से अपना धर्म बचाकर भागे हिन्दू भारत में शरण मांग रहे थे तो सरकार से लेकर विपक्ष तक ने अपने कान और आँख बंद कर ली नतीजा उनके पाकिस्तान वापिस लौटते ही उनका धर्मांतरण कर दिया गया.

ये पाकिस्तान में कोई नया काम नहीं हुआ ये तो वहां हर रोज होता हैं पाकिस्तान बनने के बाद जब पहली बार जनगणना की गई थी तो उस समय पाकिस्तान की तीन करोड़ चालीस लाख आबादी में से करीब 20 प्रतिशत गैर-मुसलमान थे. मगर आज पाकिस्तान के 18 करोड़ नागरिकों में गैर-मुसलमानों की सूची में अहमदी समुदाय को शामिल कर लिए जाने के बावजूद वहां गैर-मुसलमानों की आबादी 2 से 3 फीसदी में बची है. 1947 में कराची और पेशावर में लगभग डेढ़ हजार यहूदी बसा करते थे. आज वहां कोई यहूदी दिखाई नहीं देता. विभाजन के समय कराची और लाहौर में दस हजार से अधिक पारसी मौजूद थे जबकि आज लाहौर में 20 से पच्चीस पारसी भी बा मुश्किल से नहीं बचे हैं. गोवा से कराची में आकर रहने वाले ईसाईयों की संख्या वहां कभी 20 हजार से अधिक थी. ईसाई मुश्किल से 10 हजार भी नहीं बचे. कभी लाहौर शहर पूरा सिखों का हुआ करता था आज मुश्किल से बचे 20 हजार पाकिस्तानी सिख भी भय और नफरत के साये में जी रहे है.

1971 के युद्ध के दौरान और बाद लगभग नब्बे हजार हिंदू राजस्थान के शिविरों में आ गए. ये लोग थरपारकर इलाके में थे जिस पर भारतीय सेना का कब्जा हो गया था. 1978 तक उन्हें शिविरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी. बाद में भुट्टो सरकार के साथ समझोता हुआ पाकिस्तान को  इलाका वापस दे दिया लेकिन पाकिस्तान ने लोगों को वापस लेने में कोई रुचि नहीं दिखाई. फिर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद पाकिस्तान में जो प्रतिक्रिया हुई उसके परिणाम में अगले पांच साल के दौरान लगभग सत्रह हजार पाकिस्तानी हिंदू भारत चले आये. इस बार अधिकांश पलायन करने वालों का संबंध पंजाब से था. 1965 और 1971 में पाकिस्तान से आने वाले हिंदूओं को आख़िरकार दो हजार चार में भारतीय नागरिकता मिल गई लेकिन बाबरी मस्जिद की प्रतिक्रिया के बाद आने वाले पाकिस्तानी हिंदूओं को अब तक नागरिकता नहीं मिल सकी है.

पाकिस्तान के हिंदू सिंह सोढा का कहना है कि पाकिस्तान का हिंदू न घर का है न घाट का. वहां धर्म बदलने की मजबूरी, यहां रोजी-रोटी और न जाने कब खदेड़ दिए जाने का खतरा हर समय मंडराता है. भारत सरकार विस्थापित हिंदुओं के पुनर्वास के नियम बनाती तो है, लेकिन  जिला स्तरों पर उनकी पालना नहीं होती. इसलिए जो लौट रहे हैं, उनके पास धर्म बदलने के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है. कई संगठन कलमा पढ़ने वालों को रहने के लिए घर, घरेलू सामान, दहेज का सामान, काम करने के लिए सिलाई मशीनें, नहरों से खेती करने के लिए साल भर पानी का प्रलोभन भी दे रहे हैं. थारपारकर व उमरकोट इलाकों में जबरन धर्म परिवर्तन के मामले ज्यादा आ रहे हैं. जब कोई रास्ता नहीं बचता तो लोगों के सामने दो ही रास्ते बचते है या तो धर्म बचा ले या जीवन! अधिकांश लोग जीवन ही बचाना मुनासिफ समझते है..राजीव चौधरी

 

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