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बवाल का सवेंधानिक दिन

किसी प्रकार की हिंसा रोकने के लिए जब कोई सरकार काफी कुछ नहीं करती है और इसके कारण आगे की हिंसा की आशंका रहती है. देश में लोकतांत्रिक सरकार है लेकिन मजहब के नाम अक्सर जायज ठहराई जा रही हिंसा लोकतंत्र की कमजोरी को लेकर चिंता पैदा करती हैं. किसी भी हिंसा को हिंसा की नजर से देखने के साथ उसकी तह में जरुर जाना चाहिए यदि उक्त हिंसा से जाति, मजहब या आस्था के नाम पर बचाव किया तो उसका कद बढ़ जाता है और वह जायज दिखने लगती है. पिछले दिनों जब महाराणा प्रताप की शोभा यात्रा को लेकर सहारनपुर में जो बवाल हुआ था हमने आर्य सन्देश में उसकी भी निंदा की थी. हमने खबर का हवाला देते हुए तब भी लिखा था कि जाति मत या मजहब के नाम हिंसा देश के लोकतंत्र को कमजोर करती है.

इस बार फिर ताजिया जुलूस को लेकर कई शहरों में हिंसा और विवाद हुआ. इस दौरान बलिया  और कानपुर में जमकर बवाल हुआ. दो पक्षों के बीच पथराव और आगजनी के साथ फायरिंग भी हुई. सिकन्दरपुर कस्बे में मोहर्रम जुलूस के दौरान पथराव और आगजनी के साथ 3 बाइक को क्षतिग्रस्त किया गया. कानपूर और बाराबंकी में भी हालात लगभग ऐसे ही रहे इसके बाद बहराइच के फखरपुर में मूर्ति विसर्जन जुलूस के रास्ते को लेकर दो समुदाय आमने-सामने आ गए और पथराव हुआ. कुशीनगर में थानाध्यक्ष पर हमला हुआ तो पीलीभीत में हिंसा के चलते कई लोग घायल हुए. मतलब ये कि 1400 साल पहले हुए अरब देश में हुए हिंसात्मक मातम के नाम पर 21 वीं सदी के भारत में खूब मातम मनाया गया ताजिये तो जुलूस निकालकर चले गये पर जली दुकान, फूंके वाहन और घायल लोग आज के भारत की कहानी बयाँ कर रहे है. ये कोई इस बार का नया मामला नहीं है हर वर्ष यही हाल होता है. मजहब के नाम पर एक दिन की प्रतिवर्ष की यह हिंसा जैसे संविधानिक रूप से जायज सी हो गयी हो?

दरअसल मुहर्रम इस्लामिक  कैलेंडर का पहला महीना है. लेकिन इसका स्वागत मुसलमान नम आँखों से करते हैं, खुशिया नहीं मनाते, कहा जाता हाही इसी दिन हजरत मुहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को  एक दहशतगर्द गिरोह ने, कर्बला मैं उनके परिवार के साथ घेर कर 10 मुहर्रम 61 हिजरी को भूखा प्यासा कत्ल कर दिया.  हर साल १० मुहर्रम को मुसलमान इमाम हुसैन की कुरबानी  को याद करते हैं.   ताजिया का जुलूस उस गम को याद करने के लिए निकाला  जाता है.इमाम हुसैन की  बहन हजरत जैनब और इमाम हुसैन के सुपुत्र इमाम जैनुल आबेदीन  को अन्य महिलाओं और बच्चों के साथ कैदी बनाया गया.

इसकी प्रतिक्रिया में मुसलमान नाम लेकर पुकारते हैं, मातम मनाते है और उस घटना के आक्रोश प्रकट करते हैं, जैसे 1400 वर्ष पहले हुए उस संहार की क्षतिपूर्ति की माँग कर रहे हो. कुछ लोग ताजिये के दौरान उस घटना का उल्लेख भाषण के जरिये इस तरीके से करते है जैसे उसमें दोषी आज के लोग हो? या कुछ यू समझिये कि माहौल मानसिक रूप से इस कदर रच दिया जाता है जैसे यदि हम सब लोग चाहते तो बादशाह यजीद को रोक सकते थे. इसके बाद घटना पर हिंसा की धमकी देकर वास्तविक हिंसा भी करने से नहीं चुकते हैं. इसके विपरीत हमारे देश के नेता कुछ भी स्पष्ट नहीं बोलते,  यदि बोलते हैं तो अंत में झुक जाते हैं. इसके साथ ही प्रत्येक विवाद के बाद धर्मनिपेक्षता का विषय अवश्य चर्चा में आ जाता है.

इस क्रम में मैं दो बिन्दुओं के बारे में चर्चा करना चाहूँगा. पहला तो यह कि मुसलमानों के बारे में चर्चा करने, उनके किसी भी हिंसक कृत्य की आलोचना करने का अधिकार क्षीण हुआ है. दूसरा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग तो अत्यंत छोटा पहलू है इसकी आड़ में दाँव पर तो कुछ कहीं अधिक लगा है जो कि निश्चय ही हमारे समय का सबसे मह्त्वपूर्ण प्रश्न है, क्या हिंसा और इस तरीके के कृत्यों से लोग अपनी ऐतिहासिक हजारों साल पुरानी सभ्यता सुरक्षित रख पायेंगे? या फिर किसी एक संस्कृति और कानून के समक्ष समर्पण कर द्वितीय श्रेणी के नागरिक होकर रह जायेंगॆ? इस्लाम के आरम्भ से आधुनिक काल तक इसकी सर्वोच्चता को लेकर इसके बारे में कुछ नहीं बदला जैसे कि इसके कुछ लक्ष्य हो जैसे पहला लक्ष्य है, इस्लाम की महत्ता को स्थापित करना. जैसे एक मजहब को विशेष विशेषाधिकार प्राप्त हो और उसे विचारों के रास्ते इन्सान, बाजार, सरकार या वाहन जो आएगा उसे फूंक दिया जायेगा. मोर्हरम के दिन हुई उपरोक्त सभी हिंसक घटनाएँ इसी तरफ इशारा कर रही है.

मगर जो चीज नहीं होनी चाहिए और जो कहीं नहीं हुई है, यह हमारे देश में हो रही है, क्योंकि शायद सरकार न तो प्रेम से समझा-बुझाकर लोगों को सीधी राह पर ला सकती है और उसका परिष्कार भी नहीं कर सकती दसरी सोच यह स्थिर हो गयी कि इन घटनाओं से इस्लाम को वह लाभ मिलेगा जो अन्य मजहबों को नहीं मिला है. मसलन अफगानिस्तान में बुद्ध की मूर्ति खंडित हो सकती है. बोधगया के मंदिर में बमविस्फोट हो सकते है, जीसस की खिंचाई हो सकती है. राम और श्रीक्रष्ण को अपशब्द बोला जा सकता है, लेकिन नबी का चित्र नहीं बन सकता, ताजिये का रास्ता नहीं बदला जा सकता यदि कोशिश भी की तो हिंसा के तांडव के लिए तैयार रहिये इससे इस्लाम के सम्बंध में लाभ भी होगा जो कि अब भी उसकी सर्वोच्चता और बलात के सिद्धांत से प्रेरित है. इस बात के लिये करतल ध्वनि भी होती हैं. इसे कुछ यूँ भी समझा जा सकता है कि आज विश्व में इस्लामवाद काफी तेजी से बढा है जो कि एक क्रांतिकारी सशक्त उदहारण बन चुका है जिसने कि वामपंथ के साथ एक गठबन्धन बना लिया है जो कि सभ्य समाज को प्रभाव में ले रहा है जो कि अनेक सरकारों को चुनौती दे रहा है, और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में अपने एजेंडे को चतुराई से लागू कर रहा है. शायद इसी कारण मजहब और आस्था के नाम पर हो रही हिंसक घटनाएँ वामपंथ और सेकुलरवाद द्वारा स्वीकार की जा रही है.

राजीव चौधरी

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