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मन को ईश्वर में लगाने से मन में निर्मलता आती हैः

आज इस लेख में हम गुरुकुल पौंधा देहरादून में आयोजित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका स्वाध्याय शिविर के दूसरे दिन 30 मई 2017 को आयोजित अपरान्ह सत्र में आर्य विद्वान डा. सोमदेव शास्त्री द्वारा वर्णित कुछ विषयों पर प्रकाश डाला रहे हैं। आचार्य जी ने बताया कि सांख्य दर्शन में जड़ व चेतन का विवेचन है। आपने एक अन्धे व एक लंगड़े की कथा सुनाई और कहा अन्धा व लगड़ा एक दूसरे की सहायता करके अर्थात् अन्धा लंगडे को अपने कन्धे पर बैठाकर दोनों गन्तव्य पर पहुंच सकते हैं। आचार्य जी ने शरीर और आत्मा का उदाहरण देकर कहा कि आत्मा भी अन्धे शरीर की सहायता से अपने लक्ष्य धर्म अर्थ काम व मोक्ष की प्राप्ति करता हे। कथा में आचार्य जी ने आत्मा को लगंड़ा एवं शरीर को अन्धा बताया। उन्होंने कहा कि शरीर जीवात्मा को उसके गन्तव्य पर पहुंचा कर उससे पृथक हो जाता है। आचार्य जी ने कहा कि जीवात्मा प्रकृति से अलग है। शरीर व आत्मा का विवेचन सांख्य दर्शन में होता है। योग दर्शन में आत्मा और परमात्मा इन दो चेतन पदार्थों का वर्णन है। वेद मन्त्र के आधार पर विद्वान आचार्य जी ने कहा कि शरीर में रहने वाले जीवात्मा को 10 अंगुल वाले शरीर की आवश्यकता होती है। ब्रह्माण्ड में रहने वाले परमात्मा को 10 अंगुलियों वाले शरीर की आवश्यकता नहीं है। योग दर्शन में इनका विस्तृत वर्णन है। स्वामी दयानन्द जी के अनुसार वेदों का कोई मन्त्र ऐसा नहीं है जिसमें कि ब्रह्म का वर्णन न हो। सत्य उसे कहते हैं जिसका कोई कारण न हो। सत्य नित्य होता है। जो तीनों कालों में रहता है उसे सत्य कहते हैं। आचार्य जी ने कहा कि जहां ईश्वर, जीव और प्रकृति का विवेचन किया जाता है उसे सत्संग कहते हैं। जिसको अपनी सत्ता का अनुभव होता है उसे चित वा चेतन पदार्थ कहते हैं। जहां पर इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, ज्ञान व प्रयत्न होता है वहां आत्मा होता है। ज्ञान व प्रयत्न को उन्होंने आत्मा की पहचान बताया। जीवात्मा प्रयत्न सुखों की प्राप्ति तथा दुःखों को छोड़ने के लिए करता है। आनन्द हमारा वा जीवात्मा का स्वाभाविक गुण नहीं अपितु नैमित्तिक गुण है।

अग्नि में पदार्थों को जलाने का गुण उसका स्वाभाविक गुण है। पाणिनी के अनुसार अन्तर्यामी उसे कहते हैं जो अन्दर से नियमन करता है। ईश्वर सब पदार्थों के अन्दर विद्यमान है। इसलिये वह अन्दर से सब व्यवस्थायें करता है। आचार्य जी ने कहा कि परमात्मा का कोई भी निर्णय गलत नहीं होता क्योंकि वह सबका हर काल में साक्षी होता है। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि ईश्वर की स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति होती है। ईश्वर की प्रार्थना करने में मनुष्यों को निरभिमानता का गुण प्राप्त होता है। ईश्वर की व्यवस्था में स्वयं को समर्पित कर देने से ईश्वर उस मनुष्य को ठीक प्रकार से संभालता है। आचार्य जी ने कहा योग दर्शन पर व्यास मुनि का भाष्य पढ़ना चाहिये। मनुष्य का मन संकल्प और विकल्प करता है तथा बुद्धि उनका निर्णय करती है।

आचार्य जी ने कहा कि योग चित्त की वृत्तियों के निरोध को कहते हैं। आत्मा के साधन शरीर में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, सभी ज्ञान व कर्मेन्दियां आदि हैं। प्रत्याहार की चर्चा कर आचार्य जी ने कहा कि भोजन करना बुरा नहीं है अपितु भोजन की उतनी मात्र लेनी चाहिये जो हमारे स्वास्थ्य को किसी प्रकार से हानि न पहुंचायें। आत्मा को उन्होंने शरीर रूपी रथ का स्वामी बताया। मन को लगाम, बुद्धि को चालक, इन्द्रियों को रथ के घोड़े, विषयों को रास्ते तथा जीवात्मा को उस रथ का रथी बताया। वृत्तियों की चर्चा कर आचार्य जी ने कहा कि क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध यह 6 प्रकार की वृत्तियां होती हैं। क्षिप्त वह वृत्ति है जिसमें तमो गुणों की अधिकता होती है। मृढ़ वह अवस्था है जिसमें मुनष्य सही और गलत का निर्णय नहीं कर पाता। यह रजो गुण की प्रधानता के कारण होता है। विक्षिप्त वृत्ति में रजोगुण व तमोगुण मिलकर सतोगुण को दबा देते हैं। सतोगुण की प्रधानता से एकाग्रता की स्थिति बनती है। आचार्य जी ने कहा कि प्रातः 3 से 6 बजे तक सतोगुण प्रधान रहता है जिसमें अशान्ति नहीं रहती। दिन निकलने पर रजोगुण प्रधान हो जाता है। सायं व रात्रि को तमोगुण प्रधान रहता है जिसके प्रभाव से मनुष्य में आलस्य रहता है व वह आराम करना पसन्द करता है। आचार्य जी ने कहा कि आत्मा, सत, रज व तम गुणों से ऊपर है। वृृत्तियों का परमात्मा में रूक जाना निरुद्ध अवस्था है। भक्ति का सच्चा अर्थ ईश्वर की आज्ञा पालन में तत्पर रहना है। मन की वृत्तियों को बाह्य विषयों से रोकने पर वह परमात्मा में स्थिर होती हैं।

आचार्य जी ने स्वस्थ व अस्वस्थ मनुष्य की मीमांसा भी की व उसके अनेक उदाहरण दिये। उन्होंने कहा कि कोई मनुष्य मकान की प्राप्ति तो कोई शरीर के रोगों में टिका हुआ है। चिकित्सा शास्त्र का उल्लेख कर आचार्य जी ने कहा कि शरीर में रोग के दो कारण होते हैं। शारीरिक व मानसिक। जीवन में प्रसन्नता की अल्पता भी शरीर को रोगी बनाती है। अतः मनुष्य को प्रसन्न रहने का अभ्यास करना चाहिये जिससे वह अस्वस्थ न हो। आचार्य जी ने कहा कि जीवात्मा अपने स्वरूप सत्य व चित्त में स्थिर होकर सच्चिदानन्द परमात्मा में स्थिर हो जाता है। अपने स्वरूप में स्थिर हुए बिना जीवात्मा परमात्मा में स्थिर व स्थित नहीं हो सकता। आचार्य जी ने कहा कि मन को ईश्वर में लगाने से मन में निर्मलता आती है। जो परमात्मा का चिन्तन नहीं करते उनके मन में कलुषता आती है। आचार्य जी ने पांच वृत्तियों प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय व प्रमा आदि की भी चर्चा की व उनके स्वरूप पर प्रकाश डाला और इसके उदाहरण भी दिये।

इसी के साथ मंगलवार 30 मई, 2017 का अपरान्ह सत्र का ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका स्वाध्याय शिविर सम्पन्न हुआ। इसके बाद दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के अधिकारी श्री सुखवीर सिंह जी ने आचार्य जी का धन्यवाद करते हुए कुछ सूचनायें दी। शान्ति पाठ के साथ शिविर के सदस्य विसृजित हुए।

मनमोहन कुमार आर्य

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