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महर्षि दयानन्द के आदर्ष अनुयायी महामानव स्वामी श्रद्धानन्द

ओउम्
सद्धर्म, गुरूकुलीय शिक्षा , वैदिक आध्यात्म व विज्ञानाधारित देश व समाज निर्माण को समर्पित-

‘महर्षि दयानन्द के आदर्ष अनुयायी महामानव स्वामी श्रद्धानन्द’ मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी श्रद्धानन्द, पूर्व नाम महात्मा मुंशीराम , महर्षि दयानन्द के प्रमुख शिष्य थे। आपने महर्षि दयानन्द के बाद अपनी ज्ञानोपार्जित प्रतिभा व कार्यो से समाज, देश व विश्व को प्रभावित किया। वह अनेक ऐसे कार्य कर गये हैं जिनसे आर्य समाज सहित सारा विश्व समाज प्रेरणा ग्रहण कर उसका अनुकरण व अनुसरण कर सकते हैं । वह एकदेशीय महापुरूष न हो कर विश्व पुरूष थे जिसका उदाहरण उनके अनेक कार्य हैं । गुरूकुल की स्थापना, उसका सं चालन तथा उसको बुलन्दियों तक पहुँचाना उनका ऐसा कार्य है कि जिससे वह महर्षि दयानन्द के स्वप्नों को सफलतापूर्वक साकार करने के लिए आर्य समाज सहित सारी दुनियां के लिए आदर्श हैं। आज सारी दुनिया में जो शिक्षा पद्धति है उसका यदि सूक्ष्म निरीक्षण करे तो पाते हैं कि शिक्षा व  संस्कार वस्तुतः माता-पिता व आचार्यो से ही पड़ते हैं। माता-पिता का सन्तान के निर्माण में गौण स्थान होता है परन्तु आचार्य का प्रमुख स्थान होता है। गुरूकुलीय षिक्षा प्रणाली में आचार्य बालक को, माता के अपने बच्चे को गर्भ मे रखने के समान, उपनयन व वेदारम्भ संस्कार से आरम्भ कर स्नातक बनने तक अपने गुरूकुलरूपी गर्भ मे रखता है। उसका अपने शिक्षा ब्रह्मचारी की प्रत्येक गतिविधि पर ध्यान रहता है और उसमें वह जिस किसी भी प्रकार की त्रुटि व कमी देखता है, उसे दूर करने के लिए अपने ज्ञान, विवेक, आचरण, प्रेम-वात्सल्य व ताड़ना द्वारा उसका सुधार करता है। राम व कृष्ण के उदाहरण हमारे सामने हैं। इनके गुरूओं ने ही इन्हे इनके सम्मानित स्थान तक पहुँचाना था। चाणक्य का उदाहरण भी हमारे सामने हैं जिन्होने अपने शिक्षा चन्द्र गुप्त मौर्य का इसी प्रकार निर्माण किया और इतिहास को नई दिशा दी। महर्षि दयानन्द का उदाहरण भी हमें विदित है जो कुछ प्रश्न व शंकाये लेकर घर छोड़कर निकले थे और उनकी पूर्ण  तृप्ति मथुरा के प्रज्ञाचक्षु गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती के सान्निध्य में विद्या अर्जन से  पूरी हुई । महर्षि दयानन्द व गुरू विरजानन्द सरस्वती के सान्निध्य ने इस देश में ही नहीं अपितु  सारे विश्व में  एक आध्यात्मिक व सामाजिक क्रान्ति को  जन्म दिया और सदियों से जो लोग सच्चे ईश्वर की उपासना से प्राप्त हो ने वाले अमृत-मुक्ति-मोक्ष के पान से वंचित हो कर अपने  जीवन को व्यर्थ गंवा रहे थे, उन्हें संजीवनी प्रदान कर मानव जीवन के उदेश्य व लक्ष्य का बोध कराया व उसकी प्राप्ती का मार्ग प्रशस्त किया। मन मोहन कुमार आर्य स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरूकुल की स्थापना का निर्णय व संकल्प क्यों लिया? इसके जहां अनेक कारण रहे होगे वहां हमे लगता है कि महर्षि दयानन्द की दीपावली 30 अक्तूबर, सन् 1883 को मृत्यु के बाद उनका ऐसा स्मारक बनाने का विचार उनमे आया कि जिससे वह एक सजीव स्मारक भी बने और उससे उनका किया गया अधूरा कार्य भी पूरा हो सके। वह स्मारक उनकी विचारधारा के अनुरूप शिक्षा का संस्थान गुरूकुल ही हो सकता था। यहां समस्या यह भी आयी होगी कि इसके लिए प्रभूत धन, भूमि, समर्पित विद्वान आचार्यो के साथ कुछ ब्रह्मचारी जिनके माता पिता गुरूकुल में अध्ययन कराने के लिए उन्हें सौंप दे और साथ ही एक समर्पित योग्य व पात्र व्यक्ति का पूरा जीवन या समय चाहिए था जो गुरूकुल की स्थापना, भवन निर्माण व सभी आवश्यक प्रबन्ध कर सके। गुरूकुल स्थापना के पीछे यह भी कारण थे कि उन दिनों शिक्षा के लिए अंग्रेजो के शिक्षणालय, स्कूल व संस्थाये होती थीं जहां गुप्त व प्रत्यक्ष रूप से बच्चों पर ईसाईयत के  संस्कार डाले जाते थे। लार्ड मै काले ने जो शिक्षा पद्धति तैयार की थी वह भारतीयों को ईसाईयत के संस्कारों में रंगकर उन्हें उनके भारतीय वैदिक धर्म व संस्कृति से दूर करने का प्रयास ही था। प्रमुख कारण एक यह भी रहा कि स्वामी दयानन्द की स्मृति में दयानन्द ऐग्लो वैदिक कालेज का जो स्वरूप बना उसमें वेद व संस्कृत को स्थान नहीं मिला तथा कुछ ने कहा कि इनका अध्यापन समय के अनुरूप न होगा। स्वामी श्रद्धानन्द जी की पुत्री एक सरकारी संस्था द्वारा संचालित स्कूल मे पढ़ती थी। एक दिन स्कूल से घर लौटने पर वह ‘एक बार ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल। ईसा मेरा राम रमैया, ईसा मेरा कृष्ण कन्हैया।।’ कविता को बार-बार गा-कर स्मरण कर रही थी। पूछने पर उसने बताया कि स्कूल में उन्हें वह कविता  सुनाई गई और उसे याद करने के लिए कहा गया। यह पंक्तियां जिस किसी ने भी लिखी होगीं , और स्कूल में बच्चों को याद कराई गई इससे कविता के लेखक, स्कूल प्रशासन व सरकार की मंशा साफ जाहिर होती है। स्वामी श्रद्धानन्द इसे सुनकर बेचैन हो गये और भारत के भविष्य के बारे में सोचने लगे। तब उन्हें लगा कि हमारी अपनी शिक्षा प्रणाली व विद्यालय होने चाहिये और तभी हम अपनी धर्म व संस्कृति बचा सकेगें , अन्यथा नहीं। यहघटना यद्यपि छोटी है परन्तु इसने स्वामी श्रद्धानन्द को गहराई  से  प्रभावित किया था। इन सब कारणों  से , स्वामी श्रद्धानन्द के  अकथनीय प्रयासों व तप से  2 मार्च सन् 1902 ई . को गुरूकुल की स्थापना हरिद्वार के पास कांगड़ी ग्राम मे  हुई । हम अनुभव करते हैं कि वह दिन भारत के सौभाग्योदय का प्रमुख दिन था।  इस गुरूकुल से  जो स्नातक निकलने वाले थे वह संसार मे फैले  अन्धकार को चुनौती देने  वाले थे जिससे  मत-मतान्तरों के कृत्रिम बादल रूपी आवरण से  ढके हुए सत्य ‘वेद-धर्म’ के  भानु को उदय हो ना था। गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना क्यों  की गई ? इसका एक कारण डी.ए.वी. कालेज का अपने मूल उदेश्य से  भटक जाना था। डी.ए.वी. काले ज जिस रूप में  स्थापित हुआ और चला उससे  स्पष्ट हो  गया कि वहां सं स्कृत व वेद आदि साहित्य का अध्ययन जैसा ऋषि दयानन्द को अभीष्ट था, वहां के कर्ता-धर्ता लाला मूलराज व उनके अनुगामी कराना नहीं चाहते  थे। अतः गुरूकुल की स्थापना का उदेश्य  सामान्य शिक्षा के  साथ मुख्यतः सत्य ज्ञान वेदों  के अध्ययन, अध्यापन, संरक्षण, अनुसंधान व  उसका प्रचार एवं प्रसार था। महर्षि दयानन्द ने अपने लघु ग्रन्थ ‘भ्रान्ति निवारण’ में  लिखा है कि ‘‘परमात्मा की कृपा से मेरा षरीर बना रहा और कुषलता से वह दिन देखने को मिला कि वेदभा ष्य पूर्ण हो जाये तो निःसन्देह आर्यावर्त देष में सूर्य का सा प्रकाश  हो जायेगा कि जिसको मेटने और झापने को किसी का सामर्थ्य  न होगा क्यों कि सत्य का मूल ऐसा नहीं है कि जिसको कोई सुगमता से उखाड़ सके , और भानु के समान ग्रहण में भी आ जावे तो थोड़े ही काल में फिर उग्रह अर्थात् निर्मल हो जायेगा।’’ महर्षि दयानन्द वेदों के  भाष्य का कार्य  पूर्ण नहीं कर सके थे। 30 अक्तूबर सन् 1883 को मृत्यु  तक वह यजुर्वेद का भाष्य पूर्ण  कर चुके थे । ऋग्वेद के  7वें मण्डल के 61वें सूक्त के  2सरे  मन्त्र तक का भाष्य हो  चुका था। शेष  मन्त्रों  का भाष्य किया जाना था। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद व सामवेद का भाष्य भी अभी हो ना था।  महर्षि दयानन्द के बाद वेदभाष्य के अवषिष्ट कार्य  को पूरा करने की योग्यता उन दिनों किसी में  नहीं थी। कुछ योग्यता पं. गुरूदत्त विद्यार्थी  में थी जो यदि प्रयास करते  तो भावी जीवन में  कर सकते  थे।  परन्तु पं. गुरूदत्त अने कानेक कार्यो  मे  इतने व्यस्त थे कि यह कार्य  उनके  द्वारा हो ना सम्भावित नहीं था। सन् 1890 में 26 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु के कारण वह सम्भावना भी समाप्त हो गई ।गुरूकुल कांगड़ी ने सबसे बड़ा कार्य जहां वेद, वैदिक साहित्य व संस्कृत के अध्ययन द्वारा वेद-विद्या के क्षे त्र में अज्ञान का नाश किया वहां अनेकानेक वैदिक विद्वान आर्य समाज को दिये जिन्होंने वैदिक शिक्षा का महत्व दिग-दिगन्त फैलाया। जिन विद्वानों ने वेदभाष्य के कार्य को पूरा किया उनमें गुरूकुल कांगड़ी का विशेष योगदान है जिसका श्रेय स्वामी श्रद्धानन्द व उनके द्वारा स्थापित गुरूकुल-कांगड़ी को है। महर्षि दयानन्द ने वेदभाष्य के कार्य के पूर्ण हो जाने पर आर्यावर्त में सूर्य का सा प्रकाश होने का जो अनुमान, सम्भावना या विचार व्यक्त किया था, हमें लगता है कि वह एक प्रकार से पूर्ण हो गया है परन्तु किन्हीं स्वार्थों , आलस्य व प्रमाद के कारण संसार के लोग उसे मानने को तैयार नहीं हैं । कुछ कमियां आर्य समाज के संगठन में भी हैं जिससे जितना वेद प्रचार का कार्य करना था वह हो नहीं पा रहा है। महर्षि दयानन्द ने वेद के आधार पर ईश्वर , जीव व प्रकृति का जो सिद्धान्त प्रमाण-पुरस्सर प्रस्तुत किया था, आज वह सर्वत्र प्रतिष्ठित है। किसी मत-मतान्तर में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह उसे अस्वीकार करे। अतः सब चुप हैं एवं अपनी अविद्या एवं स्वार्थ आदि कारणों से उसे स्वीकार नहीं कर पा रहे है। अब आवश्यक केवल प्रचार के द्वारा उसे सर्वत्र मान्यता प्रदान कराने की है। प्रकारान्तर से आर्य समाज की वेद सम्बन्धी मान्यताओं को सभी मत-मतान्तरों की मौन स्वीकृति भी मिली हुई है परन्तु मत-मतान्तरों के लोगों का स्वार्थ ही उसे स्वीकार करने में बाधक है जिसमे हमारे पौराणिक वा कथित सनातन धर्मी बन्धु भी सम्मिलित है । गुरूकुल के जिन विद्वानों ने वेद भाष्य के कार्य को सम्पन्न किया उनमें प्रमुख स्थान पं. विश्वनाथ विद्यालंकार वेदोपाध्याय, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, डा. रामनाथ वेदालंकार, पं. सत्यकाम विद्यालंकार आदि का है। गुरूकुल की लोकप्रियता और सफलता का यह भी एक उदाहरण है कि 21 अक्तूबर सन् 1916 को वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड गुरूकुल पधारे । महात्मा मुंशीराम जी ने उनका स्वागत किया। पं. इन्द्र रचित ‘मेरे पिता’ पुस्तक में इस घटना का विस्तृत विवरण है जो पढ़ने योग्य है। इससे गुरूकुल की ख्याति मे चार चांद लगे । सन् 1913 में लेफ्टिनेण्ट गवर्नर सर जेम्स मेस्टन भी गुरूकुल पधारे थे और महात्मा मुंशीराम जी से  प्रभावित हुए। उन्होने अपने संस्करण मे कहा है कि ‘एक मिनिट भी उनके साथ रहते हुये उनके भावों की सत्यता और उनके उद्देश्यों की उच्चता को अनुभव न करना असम्भव है। दुर्भाग्यवश हम सब मुंशीराम नहीं हो सकते हैं ।’ रैम्जे मैकडानल्ड, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधान मंत्री बने, भी गुरूकुल पधारे थे। उन्होने अपने संस्मरण में लिखा है कि ‘वर्तमान काल का कोई कलाकार यदि भगवान ईसा की मूर्ति बनाने के लिये कोई जीवित माडल लेना चाहे तो मैं इस भव्य मूर्ति (स्वामी श्रद्धानन्द) की ओर इशारा करूंगा। यदि कोई मध्यकालीन चित्रकार सेंट पीटर के चित्र के लिये नमूना मांगें, तो भी मैं उसे इस जीवित मूर्ति के दर्शन करने की प्रेरणा करूगां।’ स्वामी श्रद्धानन्द ने सत्यार्थ प्रकाष से प्रभावित हो कर सन् 1884 के माघ महीने में आर्य समाज का सदस्य बनने का निर्णय किया था। आप सन् 1886 में आर्य समाज जालन्धर के प्रधान बने । लगभग 6 वर्ष बाद सन् 1892 में आप आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के प्रधान निर्वाचित हुए। गुरूकुल के स्वप्न को साकार करने के लिए आप अगस्त, 1898 मे 30,000 रूपये एकत्र  करने का संकल्प लेकर घर से निकले थे। आपका यह संकल्प 8 अप्रैल 1900 ई. को पूरा हुआ। आपने रूपये 30,000 हजार के स्थान पर रूपये 40,000 एकत्र कर अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया। अब भूमि वा स्थान का चयन एवं उसे प्राप्त किया जाना था। इसके लिए महात्मा मुंशीराम का विचार था कि नदियों क संगम और पर्वतो की उपत्यकाये जहां हो , वहां गुरूकुल स्थापित हो । उनकी दृष्टि में ऐसा स्थान हिमालय के दामन मे गंगा का तट हो सकता था। उनका स्वप्न साकार हुआ। हरिद्वार के सामने गंगा के पूर्वी तट पर स्थित कांगड़ी गांव के एक जमींदार मुंशी अमनसिंह जी- जो बड़े त्यागी, धर्मपरायण और सत्यनिष्ठ थे–ने आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को यह सूचना दी कि उन्होने गुरूकुल की स्थापना के लिये अपनी कुल सम्पत्ति (कांगड़ी गांव लगभग 1400 बीघे भूमि सहित) आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब को दान में देने का संकल्प किया है। इस प्रस्ताव को सभा ने स्वीकार किया। स्वामी श्रद्धानन्द ने कांगड़ी गांव के जंगल के कुछ भाग को साफ करवाकर वहां गुरूकुल के लिए झोपडि़यां बनवा दीं। 2 मार्च सन् 1902 को इसी भूमि पर स्वामी दयानन्द के विचारों के अनुरूप महात्मा मुंशीराम के सं कल्प व तप से सिंचित गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना हुई । स्थापना के एक वर्ष बाद 10 से 13 मार्च, 1903 तक गुरूकुल का प्रथम वार्षिकोत्सव मनाया गया। इस गुरूकुल की सफलता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 8 अप्रैल 1915 को महात्मा गांधी गुरूकुल पधारे और उनकी स्वामी श्रद्धानन्द से भेट हुई । इस अवसर पर महात्मा मुंशीराम ने पहली बार गांधीजी को महात्मा गांधी के नाम से सम्बोधित किया। यह ‘महात्मा’ शब्द इसके बाद उनके नाम का अलंकार बन गया। स्वामी जी ने गुरूकुल कांगड़ी के अतिरिक्त कुछ अन्य गुरूकुलो व शिक्षण संस्थाओं की भी स्थापना की जिनमें कन्या विद्यालय, जालन्धर (स्थापना सन् 1890), गुरूकुल मुल्तान (13 फरवरी 1909), गुरूकुल कुरूक्षेत्र (अप्रैल 1912), गुरूकुल इन्द्रप्रस्थ (सन् 1913 ), गुरूकुल मटिण्डू , रोहतक (सन् 1915), गुरूकुल रायकोट लुधियाना (सन् 1920), कन्या गुरूकुल, देहरादून जिसकी स्थापना दिल्ली में 8 नवम्बर 1923 को की थी तथा गुरूकुल सूपा (18 फरवरी 1924) आदि मुख्य हैं। गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना और उसके सं चालन में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपना सर्वस्व समर्पित किया। पहले अपने दो पुत्रों हरिष व इन्द्र को उसमें प्रविष्ट कराया। आरम्भ में लगभग 30 ब्रह्मचारी गुरूकुल में प्रविष्ट हुए थे। समय-समय पर स्वामी श्रद्धानन्द ने अपनी ‘सद्धर्म प्रचारक’ पत्र की प्रेस, अपनी जालन्धर की बड़ी कोठी को भी गुरूकुल के कार्यो में उपयोग के लिए दान देकर समपिर्त कर दी।  स्वामी श्रद्धानन्द का व्यक्तित्व बहुआयामी था। महाभारत काल के बाद से देशवासियों वा आर्यो के आलस्य व प्रमाद से देश पतन की ओर अग्रसर रहा और उसकी परिणति पहले मुगलों की गुलामी और बाद में अग्रेजों की पराधीनता के रूप में हुई । यह आश्चर्य की बात है कि एक जाति या कौम जिसने सृष्टि के आरम्भ में  संसार के सभी मनुष्यों को आदि भाषा के साथ आध्यात्मिक व भौतिक विद्याओं का ज्ञान दिया था, वह महाभारत के युद्ध व उसके बाद की अव्यवस्था, एक वर्ग के स्वार्थ व प्रमाद के कारण अवनत होते -होते पराधीन हो गई । यद्यपि जागरण का आरम्भ राजा राममोहन राय के समय से माना जा सकता है परन्तु उनके व्यक्तित्व व ब्रह्म समाज सं गठन में वह इच्छा-शक्ति व बल नहीं था कि वह देश को स्वतन्त्रता का मन्त्र या विचार दे पाते । राजा राममोहन राय तो अनेक बातों में अंग्रेजो के समर्थक थे। उनके बाद प्रमुख देशभक्त, समाजसुधारक, आध्यात्मिक व सामाजिक क्रान्ति के सूत्रधार महर्षि दयानन्द ने अपने विचारों, लेखों व ग्रन्थो आदि के द्वारा अतीत में भारत के चक्रवर्ती साम्राज्य, स्वाधीनता, स्वतन्त्रता, पराधीनता आदि शब्दों का प्रयोग किया। यहां तक लिखा कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। हमारे देश में विदेशी राजा कभी न हों तथा माता-पिता के समान कृपा, न्याय व दया के साथ भी विदेशियो का राज्य पूर्ण सुखदायक कभी नहीं हो सकता। सत्यार्थ प्रकाश में मूतिपूजा के  प्रकरण में बाघेर लोगों की वीरता की प्रशंशा करते हुए कहा कि यदि कोई कृष्ण के सृदष्य व्यक्ति होता तो इन (अंग्रेजो ) के धुर्रे उड़ा देता। आर्य समाज के कुछ विद्वानों का मानना है कि यह पंक्तियां ही महर्षि दयानन्द की मृत्यु का कारण बनी थी। इतिहास का यह भी एक प्रसिद्ध तथ्य है कि आर्य समाज की सन् 1875 मे स्थापना के 10 वर्षो बाद सन् 1885 में कांग्रे स की स्थापना हुई । आरम्भ में कांग्रे स का उद्देष्य स्वराज्य की प्राप्ति नहीं था जबकि आर्य समाज के साहित्य में पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति की भावना व विचार बीजरूप मे विद्यमान थे जिस पर अंग्रेजी शासन ने आर्य समाज पर राजद्रोह के मुकदमें किए थे । कांग्रेस की स्थापना के बाद धीरे -धीरे उसकी नीतियों व रीतियों में परिवर्तन होता रहा और आगे चल कर उसने असहयोग आन्दोलन का रूप लिया और अन्तोगत्वा पूर्ण स्वराज्य की बात हुई । स्वामी श्रद्धानन्द ने सन् 1888 में कांग्रे स की सदस्यता ली। धीरे -धीरे कांग्रेस मे आपकी पहचान बनती गई । गांधीजी आपको अपना बड़ा भाई मानते थे और दिल्ली को श्रद्धानन्द की नगरी कहते थे। अंग्रेजो द्वारा राजनैतिक व्यक्तियों को बिना मुकदमे के नजरबन्द रखने से सम्बन्धित रौलेट एक्ट लागू किया जा रहा था। गांधीजी ने रौलेट एक्ट के विरोध में सत्याग्रह करने की घोषणा की। स्वामी श्रद्धानन्द रौलेट एक्ट के विरोध में सत्याग्रह के ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वाले पहले व्यक्ति थे। 7 मार्च 1919 को दिल्ली में सत्याग्रह की तैयारी के लिए एक सभा हुई जिसमें स्वामी श्रद्धानन्द मंच पर दिखाई दिये । उनका मानना था कि राजनीतिक व धार्मिक, दोनों आधारों पर इस एक्ट का विरोध किया जाना उचित है। रौलेट एक्ट के विरोध में स्वामीजी ने मुम्बई में 5 भाषण दिये । गुजरात के भड़ौच व अहमदाबाद में भी 19 व 20 मार्च, 1919 को व्याख्यान दिये । दिल्ली में 24, 27 व 29 मार्च , 1919 को जनसभाये की। 30 मार्च को दिल्ली में हड़ताल हुई जिसमें टांगा व ट्राम तक बन्द रहे। दिल्ली की यह हड़ताल अभूतपू र्व थी। इस दिन रौलेट एक्ट के विरोध में एक सभा हुई और लगभग 40 हजार लोगों का एक विशाल जलूस दिल्ली में निकाला गया। यह जलूस घण्टाघर पर था। पुलिस का भारी प्रबन्ध था। एक सैनिक ने गोली दागी तो स्वामीजी ने जनता को शांति रखने का आदेश दिया और गोरखा सैनिक के सामने आये । कुछ सैनिको ने उनके सीने पर अपनी बन्दूक की संगीने तान दी। इस पर स्वामीजी ने अपना सीना खोल कर सिंहनाद किया और उन सैनिकों को कहा कि यदि साहस है तो चलाओ गोली। 2 से 3 मिनट तक स्वामीजी के सीने पर बन्दूकों की संगी ने तनी रही। तभी एक अंग्रेज घुड़ सवार अधिकारी वहां आ गया। स्थिति की गम्भीरता को देखकर उसने उन सैनिकों को अपनी बन्दू कें हटा लेने को कहा। इस प्रकार से एक गम्भीर दुर्घटना होने से बच गई । स्वामीजी के शौर्य की इस घटना ने उन्हें एक धीर-वीर साहसी व निर्भीक योद्धा सिद्ध किया। भारतमाता के वीर सपूत व देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने इस घटना पर लिखा है कि ‘‘वीरता और बलिदान की मूर्ति स्वामी श्रद्धानन्द जी की याद आते ही 1919 का दृश्य मेरी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है। सरकारी सिपाही फायर करने की तैयारी में है । स्वामी जी छाती खोलकर सामने आ जाते हैं और कहते हैं – ‘लो चलाओ गोलियां’, उनकी उस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं  होगा। मैं चाहता हूं कि उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहे।’’ घटना का दिल्ली की जनता पर गहरा असर हुआ। स्वामीजी हिन्दू व मुसलमान दोनों के सर्वप्रिय नेता हो गये। 4 अप्रैल 1919 को उन्हें जामा मस्जिद की वेदी से मुस्लिम बन्धुओं को सम्बोधित करने का अवसर दिया गया। स्वामीजी उस सदर दरवाजे से मस्जिद में प्रविष्ट हुए जिस दरवाजे से शाह आलम नमाज पढ़ने आया करते थे। नार-ए-तकबीर और अल्ला-हो-अकबर से मसजिद गूंज उठी। स्वामीजी जामा मस्जिद के मिम्बर पर आसीन हुए और वेद मन्त्र ‘ओउम् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता षतक्रतो बभूविथ। अघा ते सुम्नीमहे।।’ से अपना उद्बोधन आरम्भ किया और ‘ओउम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः’ कह कर विराम दिया। सभी मुस्लिम बन्धुओं ने स्वामीजी का उद्बोधन श्रद्धा व शान्ति से सुना। यह घटना इतिहास की अपूर्व घटना है कि जब एक गैर मुस्लिम व्यक्ति ने जामा मस्जिद के मिम्बर से मुस्लिमों को सम्बोधित किया। यह स्वामी श्रद्धानन्द के उच्च विचारों एवं चारित्रिक गरिमा व आदर्शो का प्रतीक है। जामा मस्जिद में व्याख्यान के बाद 6 अप्रैल को स्वामीजी का फतेहपुरी मस्जिद दिल्ली में भी व्याख्यान हुआ। इसके एक सप्ताह बाद ही अमृतसर के जलियांवाला बाग में बै साखी के पर्व पर शान्तिपूर्वक सभा कर रहे बड़ी संख्या में निहत्थे लोगों को अंग्रेज अधिकारी ओडवायर के आदेश पर बिना किसी चेतावनी के गोलियों से भून डाला।  मनुष्यता को शर्मसार कर देने वाली इस घटना के विरोध मे स्वामीजी ने कांग्रेस वर्किगं कमेटी की इलाहाबाद में सम्पन्न 8 जून 1919 को बैठक मे कांग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में करने का प्रस्ताव रखा। उन दिनों जलियांवाला बाग की घटना के कारण सारे पंजाब में भय व आतंक का वातावरण था। अन्य किसी के द्वारा उसका उत्तरदायित्व ग्रहण न करने पर स्वामी श्रद्धानन्द ने अधिवेशन का उत्तरदायित्व स्वयं लिया। 26 दिसम्बर 1919 को यह अधिवेशन हुआ जिसमें लोकमान्य तिलक, पं . मदन मो हन मालवीय, श्रीमति एनी बेसंट, प. मोतीलाल नेहरू सहित कांग्रेस के अनेक दिग्गज नेता सम्मिलित थे। स्वामीजी ने इस अधिवेशन में अपना स्वागत भाषण हिन्दी में देकर कांग्रेस में नये युग का शुभारम्भ किया। स्वामीजी ने अपने भाषण में कहा था कि ‘यदि जाति को स्वतंत्र देखना चाहते हो तो स्वयं सदाचार की मूर्ति बनकर अपनी संतान के सदाचार की बुनियाद रखो। जब हमारे ब्रह्मचारी, युवक व शिक्षक सदाचारी हों और शिक्षा पद्धति राष्ट्रीय हो तभी राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले नौजवान निकलेंगे, नहीं तो इस प्रकार आपकी सन्तान विदेशी विचारों और विदेशी सभ्यता की गुलाम बनी रहेगी।’ यहीं पर स्वामीजी ने कांग्रेस के मंच से पहली बार दलितों का उल्लेख कर कहा था कि ‘जिन साढ़े छः करोड़ अछूतों को ईसाई ब्रिटश गवर्नमेण्ट रूपी जहाज का लंगर बनाना चाहते हैं , आज से वे साढ़े छः करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहे अपितु हमारे भाई और बहन हैं। उनकी पुत्रियां और पुत्र हमारी पाठशालाओं में पढ़ेंगे । उनके गृहस्थ व नर-नारी हमारी सभाओं में सम्मिलित होंगे । हमारे स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध में वे हमारे कन्धे से कन्धा जोड़ेगे और हम सब एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए ही जातीय उदेश्य को पूरा करेगें ।’ महात्मा गांधी ने इस भाषण का उल्लेखकर यंग इण्डिया पत्र में लिखा था कि ‘स्वागत समिति के अध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द जी का भाषण उच्चता, पवित्रता, गम्भीरता और सच्चाई का नमूना था। वक्ता के व्यक्तित्व का प्रभाव आरम्भ से अन्त तक उनके भाषण में था और मनुष्य मात्र के प्रति उसमें सद्भावना प्रकट की गई थी।’ जब अंग्रेज सरकार ने पंजाब में सिक्खों पर अपना दमन चक्र कसा तो स्वामीजी 1922 में अमृतसर पहुँचे और अकाल तख्त के पास अपने भाषण मे सिक्खों के ‘गुरू का बाग मोर्चे ’ को अपना पूरा समर्थन व्यक्त किया। आपको 10 सितम्बर 1922 को गिरफ्तार किया गया और 17 महीने के कारावास का दण्ड दिया। आपको जेल में  पिंजड़े में भी बन्द रख कर यातनाये दी गयीं। स्वामीजी के व्यक्तित्व व अन्य कार्यो पर भी संक्षेप में दृष्टि डाल लेते हैं । स्वामीजी का जन्म पंजाब के जालन्धर नगर के एक ग्राम तलवन में फाल्गुन बदी त्रयोदषी सम्वत् 1913 वि. सन् 1856 मे श्री नानक चन्द के यहां हुआ था जो पुलिस विभाग मे कोतवाल के पद पर कार्यरत थे। स्वामीजी के बचपन का नाम मुंशीराम था। आप चार भाई व दो बहिनों में सबसे छोटे थे। जिन दिनों आपकी प्राथमिक शिक्षा समाप्त हुई तभी आपकी स्नेहमयी माताजी का देहान्त हो गया। आपने क्वीन्स कालेज, बनारस मे शिक्षा प्राप्त की जहां श्री ग्रिफिथ प्रिंसिपल थे। इनके किए हुए ऋग्वेद व रामायण के अनुवाद काफी प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुके थे। आपके पिता यहां शहर कोतवाल थे। घर में धन व सुख साधनों की प्रचुरता थी। सन् 1876 में प्रिन्स आफ वेल्स भारत आए और क्वीन्स कालेज बनारस में भी उनका आगमन हुआ। यहां आपको उन्हे निकट से देखने का अवसर प्राप्त हुआ था। इन दिनो आपको मूर्ति पूजा की धुन थी। एक दिन विश्वनाथ के मन्दिर में रीवां नरेश के पधारने पर उनकी मन्दिर में उपस्थित तक अन्य भक्तों को पूजा के लिए मन्दिर में आने नहीं दिया गया जिनमें आप भी थे। इस घटना से आपको मूर्ति पूजा के साथ ईश्वर के अस्तित्व पर ही शंका हो गयी और आप नास्तिक बन गये । बनारस में रहते हुए आपने भारतेन्दु हरीशचन्द्र के दर्शन भी किए। जवाहरलाल नेहरू के पिता पं . मोतीलाल नेहरू क्वीन्स कालेज में आपके सहपाठी थे। यहां रहते हुए मुंशीराम ईसाईयत की ओर कुछ झुके परन्तु एक दिन चर्च के पादरी व नन के अनैतिक दृश्य को देखकर आपका ईसाईयत पर से विश्वास जाता रहा। सन् 1877 में जालन्धर के प्रसिद्ध रईसला. शालिग्राम की सुपुत्री शिवदेवी से आपका विवाह सम्पन्न हुआ। सन् 1878 मे आप म्योर सेण्ट्रल कालेज की एफ.ए. क्लास में प्रविष्ट हुए। इन दिनों आप में नशा करने की आदत लग गई । अधिक मात्रा में शराब का सेवन करने से कई बार आप पर रोगों का आक्रमण हुआ। व्यसनों आदि के कारण आप एफ.ए. की परीक्षा में रसायन शास्त्र विषय में फेल हो गये । परीक्षा में असफलता की निराशा में आप अपने पिता के पास बरेली आ गये जो आपके भविष्य के लिए एक दैवीय घटना सिद्ध हुई। इन्हीं दिनों बरेली में स्वामी दयानन्द के उपदेश हो रहे थे। आपके पिता अपने नास्तिक पुत्र मुंशीराम को स्वामी दयानन्द के प्रवचनो में ले गये । वहां जाकर उच्च अंग्रेज अधिकारियों को सभा मे उपस्थित पाकर युवक मुंशीराम को हैरानी हुई । ऋषि दयानन्द के तर्कसंगत अभूतपू र्व उपदेश सुनकर आप हतप्रभ हुए। आपने अपने नास्तिक विचारों से सम्बन्धित अनेक प्रश्न स्वामी दयानन्द के सम्मुख रखे। सभी प्रश्नों का समाधान हो गया। इस प्रश्नोत्तर में स्वामी दयानन्द ने कहा था कि तुम्हें ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास उस दिन होगा जब ईश्वर तुम पर कृपा करेगें। ऋषि दयानन्द से संवाद से कुछ दिनों बाद आपकी नास्तिकता समाप्त हुई और आप न  केवल पक्के आस्तिक ही बने अपितु भारत माता के वीर सपूत, समाज सुधारक, स्वतन्त्रता आन्दोलन के एक प्रमुख व सर्वप्रिय नेता भी सिद्ध हुए। आप सन् 1880 में नायब तहसीलदार के रूप मे नियुक्त हुए परन्तु  अग्रेजों के भारतीयों के साथ पक्षपात करने के कारण आपने नौकरी छोड़ दी। सन् 1883 में आपने मुख्तार की परीक्षा पास कर फिल्लौर में वकालत शुरू की और कुछ समय बाद जालन्धर आ गये । इसके बाद लाहौर से मुख्तयारी की परीक्षा पास कर आपने जालन्धर में वकालत आरम्भ की। लाहौर में पढ़ाई के दिनों में आर्य समाज, लाला साई दासजी व पं. गुरूदत्त जी के भाषण सुनकर आपकी शराब व मांस से वन की आदत छूट गई और आपका भोजन व जीवन शुद्ध व सात्विक हो गया। आपने जालन्धर मे वकालत आरम्भ की जो खूब चली और आप एक सफल अधिवक्ता सिद्ध हुए। आपकी चार सन्ताने ,दो पुत्र व दो पुत्रियां हुई । परिवार सुखी व सम्पन्न था। आपने एक बड़ी कोठी भी जालन्धर में बनवाई । उन्हीं दिनों सन् 1891 में आपकी पत्नी का देहान्त हो गया। उस समय आपका छोटा पुत्र मात्र दो वर्ष का था। अपने दूसरे विवाह के प्रस्तावो को आपने बलपूर्वक ठुकरा दिया। आपकी बड़ी भाभी ने आपकी चारों सन्तानों का पालन पोषण किया। सात साल तक आपने वकालत की। सन् 1892 में आप आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के प्रधान बने। अब आपके पास वकालत करने के लिए समय नहीं रहा।  अतः वकालत का व्यवसाय छोड़कर आपने अपना सारा समय आर्य समाज को अर्पित कर दिया। सन् 1917 में आपने संन्यास लिया और महात्मा मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द नाम धारण किया। सन् 1885 में आर्य समाज का सदस्य बनने के बाद आपका लाहौर आना-जाना होता रहता था। अनेक बैठकों व आर्य समाज के अधिवेशनों मे आप सम्मिलित होते थे। वहां डी.ए.वी. कालेज की स्थापना होने के बाद पाठ्यक्रम को लेकर विवाद था। पं. गुरूदत्त विद्यार्थी का पक्ष ऋषि दयानन्द समर्थित वेद-वेदांगो तथा आर्ष व्याकरण का पक्षधर था तो दूसरा समयानुकूल शिक्षा का पक्षधर था जिसमे स्वामी दयानन्द के शिक्षा विषयक विचार गौण थे। पं .  गुरूदत्त जी का डी.ए.वी. काले ज के लिए धनसंग्रह आदि में सर्वाधिक योगदान था। हम समझते हैं कि 26 वर्ष की अल्पायु में उनकी मृत्यु मे डी.ए.वी. आन्दोलन के लिए किया गया अत्याधिक श्रम भी एक कारण था। वह आर्ष व्याकरण व वेद वेदांग की शिक्षा के पक्षधर थे। स्वामी श्रद्धानन्द भी पं . गुरूदत्त विद्यार्थी के विचारों से सहमति रखते थे। गुरूदत्त जी के प्रति श्रद्धा होने के कारण आप उनके विशेष भक्तों मे सम्मिलित हो कर अष्टाध्यायी व संस्कृत के ग्रन्थों का पठन-पाठन करने लगे। गुरूदत्त जी की सन् 1890 में मृत्यु के बाद महर्षि दयानन्द के विचारों के अनुरूप संस्कृत को उचित स्थान दिलाने के लिए इस पक्ष का नेतृत्व का भार अब मुंशीराम जी पर आ पड़ा। डीएवी काले ज मे समयानुकूल शिक्षा के पक्षधरों ने सन् 1991 में मांस-भक्षण का एक नया विवाद और खड़ा कर दिया। अब विवाद के दो विषय हो गये और संस्कृत समर्थक व मांस-भक्षण विरोधी पक्ष का नेतृत्व मुंशीराम जी को करना पड़ा। मांसाहार के समर्थक विपक्षियों ने उनके पक्ष को घास पार्टी नाम दिया। वहीं घास पार्टी वाले दूसरे पक्ष को मांस पार्टी कहकर सम्बोधित करते थे। सन् 1890 मे आपने ‘‘सद्धर्म प्र चारक’’ नामक उर्दू का पत्र निकाला। इसके लिए आपको अपने जीवन का काफी समय देना पड़ता था। डीएवी में समयानुकूल शिक्षा के पक्षधर अब पृथक हो गये । आर्य समाज का ने तृत्व स्वामी श्रद्धानन्द जी कर रहे थे जिन्होंने महर्षि दयानन्द की मान्यताओं व सिद्धांतों के अनुरूप आर्य समाज को चलाया और आने वाले समय में हम मुंशीराम जी को गुरूकुल कांगड़ी के संस्थापक, सार्वदेशिक सभा के प्रधान, देश की आजादी के लिए संघर्षरत, दलितोद्धार तथा शुद्धि आन्दोलन के लिए बढ़-चढ़ कर कार्य करते हुए देखते हैं और इन्हीं के लिए अपने प्राणों को वैदिक धर्म की सेवा में अर्पित करते हुए पाते हैं। समय-समय पर अंग्रेज सरकार की ओर से आर्य समाज व इसके नेताओं को राजद्रोही करार दिया गया। ऐसे अवसरों पर मुंशीराम जी ने इन समस्याओं का अपने विवेक व बुद्धि से सामना किया और मुसीबतों के समय अपने नेताओं , लाला लाजपत राय व भाई परमानन्द, तथा संगठन को सुरक्षित रखा। आर्य समाज लाहौर के 31वें वार्षिकोत्सव पर दिये गये उनके भाषण से समस्त आर्य समाजों मे उत्साह की लहर दौड़ गई जिसमें उन्होने लाला लाजपत राय और भाई परमानन्द जी को उच्च श्रेणी का देशभक्त व निर्दोष बताया था। आपका हिन्दी प्रेम भी प्रसिद्ध है। आपने सन् 1907 मे अपने 17 वर्षां से उर्दू मे प्रकाशित हो रहे ‘सद्धर्म प्रचारक’ पत्र को हिन्दी में निकालना आरम्भ कर दिया था जिससे आपको भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। पंजाब में उर्दू की प्रधानता थी, वहां हिन्दी का प्रचार कर उसे लोकप्रिय भाषा बनाने का मुख्य श्रेय आपको ही है। आपकी हिन्दी सेवाओं के कारण ही हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भागलपुर अधिवे षन का आपको सभापति मनोनीत किया गया था। सन् 1924 मे दिल्ली में सम्पन्न हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्वागतकत्री सभा का अध्यक्ष भी आपको बनाया गया था। स्वामी श्रद्धानन्द ने दलितोद्धार के क्षेत्र मे उन दिनों महत्वपूर्ण कार्य किया जब किसी धार्मिक संस्था या कांग्रेस के नेताओ को इसका ज्ञान भी नहीं था। इसकी वैचारिक भूमिका स्वामी दयानन्द पहले ही निर्धारित कर चुके थे । सन् 1902 से पूर्व ही महात्मा मुंशीराम आर्य समाज जालन्धर की ओर से रहतियों चमारों की शुद्धि करके दलितोद्धार की बुनियाद रख चुके थे।  कांग्रेस के सन् 1919 मे अमृतसर के अधिवेशन में व्यक्त स्वामीजी के विचारों को हम पूर्व ही प्रस्तुत कर चुके हैं। गुरूकुल की स्थापना के समय मेघ जाति के दलित बालको को आपने उच्च जातियों के बालकों के साथ गुरूकुल में प्रवेश दिया था। आपने दलितो के उत्थान के लिए एक दलितोद्धार सभा भी गठित की थी जिसने उल्लेखनीय कार्य किया। अतीत में हिन्दु ओं का धर्म परिवर्तन कर उन्हें विधर्मी बनाया गया था। आगरा में धर्मच्युत जाट व गूजर बन्धु मूले व मलकान कहलाते थे। यह लोग वेषभूषा, नाम-रूप व धार्मिक कृत्यो की दृष्टि से प्रायः हिन्दू ही थे। इन्हें शुद्ध कर अपने हिन्दू बन्धुओं से जोड़ने के लिए आपने हिन्दू शुद्धि सभा की स्थापना की और बड़ी संख्या में स्वबन्धुओं को पुनः स्वजातीत बन्धुओं में शामिल किया। स्वामीजी का यह कार्य ही आगे चलकर विधर्मियों के द्वारा उनकी मृत्यु का कारण बना। इसका कारण यही कह सकते हैं अतीत में अपने स्वबन्धु ओं को धर्मान्तरित किए जाने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती थी। इससे विधर्मी यह मान बैठे थे कि हमारे निर्धन व पिछड़े हुए भाई विधर्मियो की सम्पत्ति  हैं। स्वामीजी द्वारा अपने बिछुड़े भाईयों को फिर से स्वबन्धुओं मे शामिल करने को विधर्मी सहन नहीं कर पाये । इसका उदाहरण उन दिनों समाचार पत्रों मे इस विषय को ले कर तूफानी व गर्म वातावरण था। स्वामीजी विधवाओं के विवाह के भी समर्थक थे और इसके लिए भी उन्होंने अनेक प्रयत्न किये । आर्य समाज के सं स्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के फरवरी 1925 मे मनाये गये जन्म-शताब्दी समारोह के प्रधान भी आप ही थे । आर्य जगत प्रसिद्ध विद्वान व ने ता महात्मा नारायण स्वामी इस आयोजन के कार्यकर्ता प्रधान थे । यह कार्यक्रम भी आर्य समाज के इतिहास मे अभूतपूर्व था एवं पूर्णरूप से सफल हुआ। 25 मई सन् 1926 को असगरी बेगम नाम की एक महिला तीन बच्चों के साथ दिल्ली के एक आर्य समाज मन्दिर मे आई और शुद्धि की प्रार्थना की। उसे शुद्ध कर उसका नाम शान्ति देवी रखा गया। इसके विरूद्ध विपक्षियो द्वारा जो मुकदमा किया गया उसमें इस महिला के साथ स्वामी श्रद्धानन्द, डा. सुखदेव, ला. देशबन्धु गुप्त तथा प्रो. इन्द्र आदि को आरोपी बनाया गया। मि. लुईस ने धैर्य से मुकदमे की पूरी कार्यवाही को सुना और अपने निर्णय में सभी अभियुक्तों को निर्दोष घोषित किया। इससे विरोधी पक्ष सन्तुष्ट न हुआ और उसने विरोध जारी रखा जिसका परिणाम 23 दिसम्बर 1926 का धर्मान्घ अब्दुल रशीद द्वारा रोगग्रस्त अवस्था मे उन पर गोलियां चलाई गई जिससे उनकी मृत्यु हुई । इस घटना से स्वामीजी सदा-सदा के लिए अमर हो गये। उन्हों ने सत्य वैदिक धर्म व ईश्वर की आज्ञा के पालन करने व कराने के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया। स्वामी श्रद्धानन्द अपने मानवतावादी कार्यो व अपने यश: शरीर से सदैव जीवित रहेगे । उनके बलिदान पर उनके समकालीन अनेक महापुरूषो ने कृतज्ञतापूर्वक उनका स्मरण किया और उन्हें अपनी श्रद्धांजलियां प्रस्तुत कीं जिनमें से मात्र दो संक्षिप्त श्रद्धांजलियां प्रस्तुत हैं। श्री अक्षय कुमार जैन ने लिखा कि ‘स्वामी श्रद्धानन्द जी ने भारतीय समाज में जो चेतना उत्पन्न की, महर्षि स्वामी दयानन्द के बाद देश और समाज को इतना बड़ा आर्शीर्वाद और कहां प्राप्त हुआ। स्वामी जी के चरणों में मेरे विनम्र प्रणाम।’ हिन्दी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर ने लिखा कि ‘राष्ट्र और राष्ट्र भाषा के प्रति स्वामी श्रद्धानन्द की सेवायें मुझे सदा अनुप्राणित करती रहीं। दिल्ली में बरतानगी संगीनों के सामने छाती खोलकर वे ही खड़े हो सकते थे। उनकी सेवाओं का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है।’ स्वामीजी ने अपने जीवनकाल में अनेक उपयोगी ग्रन्थो का प्रणयन किया। सुप्रसिद्ध प्रकाशक मै . विजयकुमार गो विन्दराम हासानन्द, दिल्ली ने 11 खण्डो मे ‘‘श्रद्धानन्द  ग्रन्थावली’’ नाम से उनका प्रकाशन किया है । डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार द्वारा सम्पादित ‘‘स्वामी श्रद्धानन्द-एक विलक्षण व्यक्तित्व’’ उनके सर्वागीण व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाला एक अत्युत्तम ग्रन्थ है । उनके बलिदान दिवस पर उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धाजंलि।

Manmohan Kumar Arya

मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2,
देहरादून-248001
दूरभाषः 09412985121

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