” पो…पो , हटो-हटो…घटो-बढ़ो , रास्ता छोड़ो। ईश्वर के दूत पधार रहे हैं , महाराजा की बिरादरी आ रही है।”
यह कहते हुये नादर , एझवा आदि हिंदू दलित जातियों को उनके मार्ग से दूर कर दिया जाता रहा। क्योंकि अगर उनका स्पर्श हो भी गया तो हर हर गंगे कर ही शुध्दि की जा सकती थी। इतना ही नहीं यदि निम्न जाति ने साहेब बहादुरों को देख भी लिया तो वो अपवित्र हो जाते थे। इसलिये हिंदू धर्म गंथ्रों के मनमाने संदर्भ देते हुय दक्षिणी केरल के ताकतवर हिंदू राज्य त्रावणकोर में यह प्रथा बनवा ली गयी थी कि नंबूदरी ब्राह्मण से नादर 36 कदम और उच्च जाति नायर से 12 कदम दूर ही रहे। छाता लेकर न ले , नंगे पैर ही चले , आभूषण न धारण करे , एक मंजिल घर ही बनाये , मंदिरों और उच्च जातियों के घर , कार्यालय आदि में फोकट की ऊलियम सेवा अर्थात बेगारी करे।दलित जातियां भी ऊपर-नीचे श्रेणियों में बंटी थीं । नादरों से भी दूसरी दलित जातियों को भी चलते समय दूरी बनाये रखनी थी।
नादर ऐतिहासिक रूप से स्वाभिमानी और लड़ाकू हिंदू जाति रही है और इनमें क्षत्रियों के सभी गुण मौजूद रहे हैं। कालांतर में दुर्भाग्यवश इनपर निम्न जाति का ठप्पा लगा दिया गया।तमिलनाडु तथा केरल के दक्षिण भाग में इनकी अच्छी जनसंख्या है। ईसाई मिशनरियों ने इन कुप्रथाओं के कारण सर्वाधिक धर्मातरण इन्हीं का किया है। कन्याकुमारी और इसका समुद्री किनारा तो समझिये लगभग हाथ से गया। उत्तर भाग में नादरों का धर्मांतरण नहीं हो पाया है।इसके उपरांत भी आज बहुसंख्यक नादर हिंदू ही है। ईसाई मिशनरियों के दस्तावेजों के अनुसार केवल पैसों के लालच और ऊलियम प्रथा से मुक्त होने के लिये ही वो ईसाई बने।उनका ईश्वर पुत्र से कोई लगाव नहीं था। विदेशी पादरी रिंगेटाबी के अनुसार :
” तीन हजार दलित बपतिस्मा के लिये इच्छुक हैं और मैं चाहता तो सभी को दो-दो सौ रुपयों में खरीद लेता। चूंकि मैंने उनके निजी ऋण चुकाने से मना कर दिया , सब वापस चले गये और फिर कभी नहीं लौटे।”
एक सच्चे ईसाई के रूप में उसे आश्चर्य और निराशा हुयी कि नादर ईसा और ईसाइयत में तनिक भी रुचि न रखते हुये मात्र फौरी लाभ से ही आकर्षित हुये थे।उदास होकर उसने पुन: 1813 में लिखा :
” मेरे पास अभी 600 दलित ईसाई हैं और इनमें से शायद ही तीन या चार मुक्ति चाहते होंगे। शेष सभी स्वार्थ के चलते ईसाई बने हैं।”
लंदन मिशनरी सोसाइटी के निदेशकों को लिखे एक मिशनरी पत्र के अनुसार :
” संपूर्ण डेढ़ लाख की जनसंख्या वाली नादर जाति हमारे सामने इसी भेदभाव के चलते ईसाई बनाई जा सकती है। ”
ऐसे अनेक तत्कालीन विदेशी मिशनरियों के दस्तावेज उपलब्ध हैं जो इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। लेकिन सारे संदर्भ यहां देना संभव नहीं है।
इसी ताकतवर हिंदू साम्राज्य की सीमा में उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में प्रचलित एक और घृणित प्रथा के अनुसार नादर , एझवा आदि दलित महिलायें अपनी कमर के ऊपर कोई वस्त्र नहीं धारण नहीं कर सकती थीं ।साथ ही अपने वक्ष के आकार के अनुपात में इन महिलाओं को कम या अधिक कर भी देना पड़ता था। इसे ‘मुलक्करम’ अर्थात ‘वक्ष कर’ का नाम दिया गया। अपमान और विवशता से आक्रोशित चेरथला में एक एझवा महिला ने इसके चलते जो कदम उठाया वह किसी भी सभ्य समाज की चेतना को झकझोर देगा। नांगेली अत्यंत गरीब परिवार से थी और ‘मुलक्करम’ देने में असमर्थ थी। बार-बार मांगे जाने पर भी हर बार उसने अपना वक्ष खुला रखने से मना कर दिया। अंत में जब राज्य के कर अधिकारी बकाये सहित ‘वक्ष कर’ वसूलने इसकी झोपड़ी पर आये तो नांगेली ने अपने दोनों स्तन काटकर केले के पत्ते पर रख अधिकारियों के सामने रख दिये। जब ये अंग ही नहीं रहे तो किस बात का मुलक्करम ! अतिशय रक्तस्राव से नांगेली ‘मुलक्करम’ही नहीं जीवन से भी मुक्त हो गई। भयभीत होकर कर अधिकारी भाग खड़े हुये ।नांगेली के पति ने पत्नी की चिता में कूदकर आत्मदाह कर लिया जो भारत में किसी पुरुष के सती होने का प्रथम उदाहरण है। राज्य में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। नांगेली के इस क्रांतिकारी कदम के चलते राज्य को इस कुप्रथा को प्रतिबंधित करना पड़ा।
सदियों से अपमानित होने के पश्चात् भी एझवा केरला में बीस प्रतिशत से भी अधिक हैं।स्वयं को राज्य में हिंदू धर्म का रक्षक भी कहते हैं।लेकिन गिनती के एझवा ही आजतक धर्मांतरित हुये।
अब नये युग के रसूल पेरियार को याद करिये जिन्होंने ब्राह्मणों और हिंदू धर्म को द्रविड़नाडु में सभी समस्याओं का मूल बता गैर ब्राह्मणों को इनके विरुध्द एकजुट किया। द्रविड़नाडु में वर्तमान केरल, कर्नाटक , आंध्रप्रदेश के बड़े भूभाग भी सम्मिलित थे। पेरियार के गैर ब्राह्मण समूह से दलित बहिष्कृत था। वायकोम सत्याग्रह , जो दलित एझवाओं को त्रावणकोर राज्य में पद्मनाभ मंदिर के मार्ग के उपयोग के अधिकार के लिये था , में काफी समय बाद पेरियार सम्मिलित हुये। यह आंदोलन गांधीवादियों द्वारा शुरु किया गया था।पेरियार , जिनको इसकी टोपी पहनाने का कुचक्र भी किया गया , के जीवन काल में ही वर्ष 1952 में केरला के त्रिशूर जिले के वेलूर गांव में वेला पर्व पर मंदिर का रथ खींचते समय दलित महिलाओं को कमर से ऊपर निर्वस्त्र रहने को गांव के जमींदार विवश करते थे। ये जमींदार गैर ब्राह्मण थे और शायद इसी के चलते पेरियार ने इस मुद्दे से अनदेखी कर ली। वैसे भी पेरियार दलित विरोधी ही थे। लक्ष्मीकुट्टी अम्मा ने इस प्रथा के विरूध्द आंदोलन किया और सफलता भी प्राप्त की।
यह स्वीकार तो करना ही पड़ेगा कि कुप्रथायें थीं लेकिन क्या त्रावणकोर का हिंदू राजवंश और धार्मिक शिक्षायें ही इसके लिये जिम्मेदार है इस बात की ऐतिहासिक तथ्यों की रोशनी में पड़ताल आवश्यक है।आगे बढ़ने से पहले यह खुलासा भी आवश्यक है कि ईसाई मिशनरियों ने त्रावणकोर राजवंश को बदनाम करने की कोई कसर नहीं छोड़ी। इस राजवंश के शिल्पकार राजा मार्तंड वर्मा (1729–1758 )से लेकर अंतिम शासक श्री चित्तिरा तिरुन्नाल बालराम वर्मा (1931–1947 ) को जातिवादी ,ईसाइयों का द्रोही , क्रूर जिजिया जैसा कर ईसाइयों पर लगाने वाला , उनके गिरजागर जलवाने वाला अत्याचारी कहा। ऐसे बेबुनियाद आरोप मिशनरियों के लेख , आपसी पत्र व्यवहार , दस्तावेजों में लिखित हैं।चूंकि यह हिंदू राजवंश लगातार ईसाइयत के प्रचार के विरुध्द चीन की दीवाल की तरह खड़ा था , दुष्प्रचार आवश्यक था। राजा मार्तण्ड वर्मा की सेना में शिवाजी की तरह सभी जातियां सम्मानपूर्वक शामिल थीं। उन्होंने ईसाइयों की भी सेना में भर्ती की।उनके निजी सुरक्षा में सभी बत्तीस सैनिक नादर जाति के थे।इनका प्रमुख भी एक नादर ही था। जब उनको कत्ल करने का प्रयास किया तो जीवित बचकर बाहर एक नादर के घर ही छुप कर रहे। डच सेना ने जब उनपर आक्रमण करने की घोषणा की तो उन्होंने ललकार लगाई कि वो नीदरलैंड पर ही आक्रमण कर देंगे। युध्द में डच सेना को पूरी तरह परास्त किया और सैकड़ों युध्दबंदियों में शामिल डच सेना के पराजित सेनापति यूस्टेकियस दलैनो को अपनी सेना में महत्वपुर्ण पद भी दिया। अपनी जल सेना को ताकतवर बनाया। राज्य का विस्तार किया और गृह कलह भी समाप्त किया।इनके उत्तराधिकारी कार्तिक तिरुन्नाल रामवर्मा और धर्मराजा (1758 – 1798) ने टीपू सुल्तान के हमलों का डटकर मुकाबला किया।
स्वाति तिरुनाल रामवर्मा (1829 – 1847) का काल त्रावणकोर का सुवर्णकाल माना जाता है। उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा का प्रारंभ किया, कला और विज्ञान को भी बढावा दिया। सन् 1836 में उन्होंने तिरुवनन्तपुरम में प्लेनेटोरियम की स्थापना की और 1834 में तिरुवनन्तपुरम में जो इंग्लिश स्कूल शुरू किया वह 1866 में यूनिवर्सिटी कॉलेज बना, जो आज भी है। सन् 1836 में त्रावणकोर में जनगणना भी हुई।
महाराजा उत्रम तिरुन्नाल मार्ताण्ड वर्मा (1847 – 1860) के काल में नाडार जाति की नारियों को छाती ढंकने की अनुमति दी गई। तिरुवनन्तपुरम में सन् 1859 में जो स्कूल लड़कियों के लिए खोला गया वही आज का सरकारी महिला विद्यालय है। त्रावणकोर का पहला डाकघर आलप्पुष़ा में खोला गया तथा सन् 1859 में पहली आधुनिक कौयर फैक्टरी भी खोली गई। इस राजवंश के अंतिम शासक श्रीचित्तिरा तिरुन्नाल बालराम वर्मा (1931–1947 ) थे जिन्होंने दलित जातियों को मंदिरों में प्रवेश दिलवाया।
इतना सब कुछ अच्छा होते हुये गड़बड़ी कहां और कैसे हुयी ? यह माना जाता है कि जब एक नंबूदरी ब्राह्मण राजा के दीवान बने तो ये कुप्रथायें प्रचलन में आईं। कारण ? नंबूदरी ब्राह्मणों को वेदज्ञ मानने के कारण उनके वचन अंतिम माने गये। हालांकि ऐसा कोई भी आधिकारिक आज्ञापत्र किसी भी राजा के काल में नहीं है जो इन कुप्रथाओं को लागू करवाने के लिये हो। इसके विपरीत इनको प्रतिबंधित करने के लिये शासनादेश अवश्य है। संभव है कि बिना राज्य की अनुमति के केवल नंबूदरियों के कारण ये कुप्रथायें लागू हो गई हों और राजा ने इसको वेद सम्मत समझ लिया हो।
यहां बरबस स्वामी दयानंद सरस्वती जी का वचन याद आ जाता है कि:
” इसप्रकार आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करे और विशेषकर राजा इतर क्षत्रिय , वैश्य और उत्तम शूद्रों को विद्या का अभ्यास करायें।…जब क्षत्रियादि विद्वान होते हैं तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभास और धर्मपथ पर चलते हैं और उन क्षत्रियादि विद्वानों के सामने पाखंड , झूठा व्यवहार भी नहीं कर सकते।और जब क्षत्रियादि अविद्वान होते हैं तो वो जैसा मन में आता है वैसा ही करते कराते हैं।इसलिये ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहे तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्र का अभ्यास अधिक प्रयत्न से करायें।…और जब सब वर्णों में विद्या सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखंडरूप , अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार को नहीं चला सकता। इससे क्या सिध्द हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं।इसलिये सब वर्णों के स्त्री पुरूषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिये।”
निश्चित ही त्रावणकोर राजवंश में यही चूक हुयी होगी। आइये अब संकल्प करें कि सभी वर्ण , स्त्री-पुरुष , वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कर इसकी शिक्षाओं के अनुरूप जीवन में आचरण करें। धर्म की रक्षा का यही एकमात्र मार्ग है।
-अरुण लवानिया