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मासूम बचपन को बचा लो!!

अभी परसों टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर पढ़ी कि मध्य प्रदेश के दामोह में 3 सरकारी कर्मचारियों को राज्य में लागू दो बच्चों के नियम का उल्लंघन करने का दोषी पाए जाने पर बर्खास्त कर दिया गया है। ये तीनों सरकारी कर्मचारी दामोह जिला अदालत में चपरासी पद पर नियुक्त थे। पहली बात क्या उस राज्य के वो मंत्री, विधायक, सांसद भी बर्खास्त होंगे जिनके बच्चे की संख्या 2 से ज्यादा है? दूसरा सब सोच रहे होंगे आखिर इस खबर से बचपन और रिश्तों का क्या तुक| किन्तु रिश्ता है और समझने वालों के लिए बहुत गहरा रिश्ता है अभी कई रोज पहले की बात मैं अपने एक परिचित के घर गया था| वहां उनका बेटा भी बैठा था जिसकी आयु 7 साल है मैंने उससे पूछ लिया बेटा इस बार गर्मियों की छुट्टियों में कहाँ गये थे? उसने जो जबाब दिया वो चौकाने वाला था कि हमारा कोई नहीं है| तो हम कहाँ जाये? पापा भी दादा दादी की इकलोती संतान है और मम्मी भी नाना-नानी की अकेली बेटी है| ना कोई मौसी ना मामा ना बुआ ना चाचा तो कहाँ जाये? |बच्चें के इस जबाब ने मेरे मन पर एक भावुक सी चोटकर प्रश्न खड़ा किया कि बच्चा एक तो रिश्तें अनेक कैसे? कहीं हम अपने हाथों से ही रिश्ते नातों और बच्चे के बचपन की खुशियों गला तो नहीं घोट रहे है? आने वाले समय मे बच्चें तो होंगे किन्तु रिश्ते नहीं होंगे|वो चपरासी भले ही पद से हटा दिए गये हो किन्तु उनके बच्चे अपना बचपन तो जी रहे है|
बहुत समय पहले किसी राजा ने बच्चों के लिए कहा था, “अन्धेरा सहनेवालों के आंसू बह रहे हैं, और उनको शान्ति देनेवाला कोई नहीं!” एक समय जब सब बच्चे गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने अपने गाँव, बुआ या मामा-नाना के घर जाया करते थे| वहां पहुंचकर शरारत करना मामा मौसी के बच्चों के साथ खेलना कूदना उनके बचपन में रोमांच भर देता था| लेकिन अब एक बड़ा बदलाव आया कि एक बच्चें की चाह ने आज बचपन अकेला कर दिया| मेट्रो शहरों में हर महीने कम से कम चार बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। इनका प्रमुख कारण है तनाव और डिप्रेशन यानी अवसाद, सबसे ज्यादा इस बीमारी का कारण पाया अकेलापन| मान लिया जाये सरकार और समाज शास्त्री कहते है बच्चा एक ही अच्छा और साथ में यह भी दलील दी जाती है कि बचपन ही बच्चे के जीवन को दिशा देता है| एक बच्चा एक फ्लैट में पैदा होता है लिफ्ट से स्कूल, स्कुल से लिफ्ट फिर उसी फ्लेट में माता-पिता दोनों कामकाजी है, उन्हें इस बच्चे का मन पढने की फुरसत नहीं तो वो अकेला बच्चा जीवन को क्या दिशा देगा? अवसाद या इसके बाद आत्महत्या!!
बचपन का मतलब है कई बच्चों द्वारा इकट्ठा होकर शरारत करना स्वतंत्र घूमना और बिना किसी जिम्मेदारी के उन्मुक्त उडान भरना किन्तु बदले समय में अब सब कुछ बदलता सा दिखाई दे रहा है| बचपन शब्द तो ज्यों का त्यों रहा पर आज बचपन के मायने बदल गये| लगातार सिकुड़ते रिश्तें ने इस बचपन को एकांकी और नीरस बना दिया| इसके अलावा, बचपन के साथ समाज में और भी कई तरह की नाइंसाफियाँ हो रही हैं जो बच्चों के जज़्बातों को कुचल रही हैं और उनके दिल को गहरी चोट पहुँचा रही हैं सुविधावादी संस्कृति हमारी परंपराओं और संस्कारों को निगलती जा रही है। प्रतियोगिता और स्पर्धा जीवन के हर निर्णय पर हावी होती जा रही है। यही अकेलापन बच्चों को मानसिक बीमारियों की चपेट में ले जाता है। संयुक्त परिवार और समाज के बीच रहने वाले बच्चे संबंधों के बारे में सीखते-जानते हैं, लेकिन एकल परिवार में रहने वाले बच्चे ये सब नहीं सीख पाते। अगर एक बच्चे की परवरिश ऐसे माहौल में होती है, जहाँ माँ-बाप है दादा- दादी है, चाचा-चाची आदि रिश्तें है तो वो बच्चा तनाव से कोशो दूर होता है| किन्तु बदलते परिवेश ने रिश्तें तो दूर की बात पडोस से भी किनारा कर लिया| अब दादा-दादी बिरले ही किसी परिवार में देखने को मिलते हैं। पहले बच्चा अपने मनोभाव उनसे व्यक्त कर दिया करता था और दादा-दादी भी उसे अपने प्यार की डोर में बांधे रखते थे। अब परिवार में किसी भी बड़े का सानिध्य न मिल पाने के कारण बच्चे प्राय: भटक जाते हैं। माता-पिता की व्यस्तता ने बच्चों के संवाद के अवसर पहले ही लील लिए हैं। न तो बच्चे मन की बात माता-पिता को बता पाते हैं और न ही माता-पिता बच्चों के मन को पढ़ पाते हैं। इस कारण बच्चों में अकेलापन घर कर गया है। जो शायद आने वाले भविष्य में देश और समाज के लिए दुखदायी होगा|

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