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मुस्लिम महिलाओं के अधिकार का हनन ?

उत्तरप्रदेश के चुनाव के बाद एक बार फिर यह सवाल गूंज उठा है कि क्या तीन तलाक पर मुस्लिम महिलाओं को 6 शताब्दी के धार्मिक कानूनों से छुटकारा मिल पायेगा? उन्हें भारतीय संविधान के अनुसार न्याय मिल जायेगा? क्या वो 21 वीं सदी के अनुसार समाज में अपनी बराबरी की दावेदारी पेश करेगी? तीन तलाक के मुद्दे पर 24 अक्तूबर को उत्तर प्रदेश के महोबा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार मुखर हुए थे.उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि तीन तलाक को लेकर राजनीति नहीं की जानी चाहिए. साथ ही सांप्रदायिक आधार पर मुस्लिम महिलाओं के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए. इस तरह मुस्लिम महिला सशक्तीकरण के मुद्दे को प्रधानमंत्री ने पहली बार इतनी गंभीरता से उठाया था. जिसका प्रतिफल भी उत्तर प्रदेश चुनाव में जीत के रूप में सबको देखने को मिला.

भले लोग इस मुद्दे को राजनैतिक चश्मे से देखने का पर्यत्न कर रहे हो लेकिन असल में यह मामला सीधा सामाजिक भावनाओं से जुडा है क्योंकि हमारे समाज में विवाह या निकाह कोई राजनेतिक रस्म नहीं है तो फिर तलाक के मुद्दे को भला क्यों राजनितिक रंग में रंगा जाये? हाँ इसे में मजहबी अधिकार के क्षेत्र में जरुर माना जा सकता है पर सवाल यह है कि मजहब से यह अधिकार दिलाये कौन? क्योंकि मजहबी रहनुमा ही इस आधुनिक सामाजिक आजादी में सबसे बड़ी बाधा के रूप में खड़े दिखाई दे रहे है. जबकि कोई भी मजहब धर्म और उससे संबधित धार्मिक गुरु समाज के लिए नये रास्ते बनाने का कार्य करते है न की बंद फाटक की तरह रास्ते बंद. यदि देखा जाये तो निसंदेह आज ‘इस्लामी शरीयत’ के चोले में एक ऐसी पुरुषवादी विचारधारा प्रचलित है जिसके कारण महिला अधिकार का हनन जारी है. इस विचारधारा में महिलाओं को मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है.

हर धर्म की महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार पाने में सदियां लग गईं. लेकिन पूर्ण लैंगिक इंसाफ पाने के लिए इस्लाम में अब तक संघर्ष जारी है. इस वैश्विक संघर्ष में व्यस्त कई मुस्लिम विद्वानों और कुरान के ज्ञाताओं के अनुसार मुस्लिम समाज में महिला सशक्तिकरण की राह में सब से बड़ी बाधा धार्मिक उपदेशों की कट्टर व्याख्या है. आज हम 21 वीं सदी में जी रहे है यदि आज वर्तमान को देखे तो अन्य धर्मों के मुकाबले मुस्लिम महिला पुरुष वर्ग से बहुत पीछे दिखाई दे रही है. क्या मजहब और इस्लामिक संस्कृति का राग मुस्लिम महिलाओं के लिए एक चारदीवारी का कार्य कर रहा है? इस्लामी समाज के अन्दर जितने धार्मिक गुरु मौलाना, इमाम या मौलवी है वो न्यूज चैनल की बहस में हमेशा कुरान का हवाला देकर कहते है कि इस्लाम में पुरुष और महिलाओं को समान अधिकार हैं. महिलाएं अपने सामाजिक सशक्तिकरण और धर्म से संबंधित दायित्वों, दोनों दृष्टि से बराबर हैं. लेकिन इसके बाद जो सामाजिक जीवन में अमानवीय भेदभाव नजर आता है उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं निकलती. यदि किसी कारण कोई आवाज़ निकलती भी है तो उस पर इस निंदा या मजहब की अवमानना का दोष मढ़कर चुप करा दिया जाता है.

हालाँकि अब इस्लामिक समाज के अन्दर से ही तलाक जैसी प्रथा के खिलाफ आवाज आना शुरू हो गयी है एक पढ़ा लिखा वर्ग खुद सामने आकर इस बात को रख रहा है कि एक बार में तीन तलाक का तरीका आज के समय में अप्रासंगिक ही नहीं, खुद कुरान की भावनाओं के विपरीत भी है. क्षणिक भावावेश से बचने के लिए तीन तलाक के बीच समय का थोड़ा-थोड़ा अंतराल जरूर होना चाहिए.यह भी देखना होगा कि जब निकाह विवाह लड़के और लड़की दोनों की रजामंदी से होता है, तो तलाक का अधिकार सिर्फ पुरुष को ही क्यों दिया जाता है? उसमें स्त्री की रजामंदी या कम से कम उसके साथ विस्तृत संवाद भी निश्चित तौर पर शामिल किया जाना चाहिए. जब निकाह दोनों के परिवारों की उपस्थिति में होता है तो तलाक एकांत में क्यों?

चुनाव के बाद उठे इस विवाद में एक बार फिर मीडिया की मेजे बहस के लिए सजती दिखाई दे रही है लेकिन दलील रखने वाले चेहरों में कोई बदलाव नहीं है. तर्क और दलील और सवाल का अंदाज वही है तो मौलानाओं की वही 6 शताब्दी की तकरीरे उनका गुस्से में आकर तीन तलाक को इस्लाम के लिए पवित्र बताना इस बात की और इशारा करता है कि यह मामले का अंत नहीं बल्कि शुरुआतभर  है. हालाँकि बहुतेरे इस्लामिक देशों में तीन तलाक पर कानूनन प्रतिबंध है लेकिन भारत का इस्लाम अभी भी इस प्रथा को उसी रूप में चाहता है जिस तरह इसका उदय हुआ था.

मामला केवल मुफ़्ती, मौलाना तक सिमित नही अपितु देश में देवबंदी विचारधारा का प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्थान दारुल उलूम देवबंद ने खुद कुछ समय पहले यह फतवा जारी किया था कि नौकरीपेशा औरत की कमाई शरीअत की नजर में “नाजायज और हराम” है. देवबंद के उलमा के अनुसार ऐसी जगहों पर औरतों का काम करना इस्लाम के खिलाफ है जहां औरत और मर्द एक साथ काम करते हों. ऐसे हालात में यदि इस मामले को देखे तो इस्लाम का एक हिस्सा बेहतर शिक्षा और रोजगार के परिणाम स्वरूप महिला सशक्तिकरण के सामाजिक ढांचे को बदलने की कोशिश तो कर रहा है लेकिन कुरान में बताई गई लैंगिक समानता के स्तर तक पहुंचने में जो चीज बाधा है वो है ‘शरीअत’ के नाम पर फैलाई जाने वाली पुरुषवाद पर आधारित इस्लाम की मनमानी व्याख्या.

यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि महिला अधिकार के हनन को केवल मुस्लिम समुदाय से जोड़ कर नहीं देखा जाए. तत्काल तलाक’ के साथ-साथ कन्या भ्रूण हत्या की भी कड़ी निंदा की जाए. इस तरह देश में महिला अधिकारों के मुद्दे को एक नया आयाम दिया जा सकता है और राजनीति के मौजूदा दुष्चक्र से ऊपर उठाया जा सकता है. जिस तरह पाकिस्तान के आदिवासी इलाकों में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. ऐसा लगता है भारत में भी इस्लाम के नाम पर रुढ़िवादी और पतनशील विचारधारा का प्रभाव तेजी से काम करने लगा है. महिला को घर की चारदीवारी तक सीमित रखने का रिवाज जिंदा है. वहीं, दूसरी ओर महिला सशक्तिकरण के खिलाफ ऐसे फतवे भी सामने आ रहे हैं वक्त के साथ चलते हुए स्त्रियों के प्रति थोड़ी संवेदनशीलता दिखाएं और कुरान की रौशनी में ही अगर तीन तलाक की वर्तमान भेदभावपूर्ण पद्धति में संशोधन की पहल करें तो उनके इस कदम से मुस्लिम स्त्रियों में सुरक्षित जीवन का भरोसा और आत्मविश्वास ही नहीं पैदा होगा बल्कि देश-दुनिया में एक सकारात्मक संदेश भी जाएगा.

राजीव चौधरी

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