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राष्ट्र-ध्वज के विकास की कहानी

डॉ. पूर्ण सिंह डबास

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष

झंडा या ध्वज कपड़े या किसी ऐसी ही चीज का प्रायः ऐसा आयताकार टुकड़ा होता है जिस पर किसी राष्ट्र, समुदाय, सैन्यबल अथवा राज्याधिकारी का प्रतीक या चिह्न अंकित हो।  इसे किसी खम्भे या लट्ठे पर फहराया जाता है या डंडे पर टाँग कर साथ ले जाया जाता है। सं. में झंडे के लिए ध्वज के साथ-साथ ध्वजा, पताका, केतु, तथा केतन शब्द भी प्रचलित हैं। झंडे के लिए फा॰ से आए परचम शब्द का प्रयोग भी हिंदी में होता है जो फा॰ में ठीक झंडे के अर्थ में तो नहीं लेकिन कुछ मिलते-जुलते अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसमें ‘झंडे’ वाला अर्थ उर्दू-हिंदी में विकसित हुआ है। ‘झंडे’ के अतिरिक्त ध्वज का एक अर्थ संस्कृत-कोशों में वह डंडा भी है जिस पर टांग कर झंडे को फहराया जाता है। इस डंडे के पर्याय के रूप में संस्कृत में ध्वज-यष्टि तथा पताका-दण्ड शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। प्रश्न पैदा होता है कि झंडा शब्द का स्रोत क्या है। हालांकि संस्कृत में ध्वज-दंड शब्द का प्रयोग नहीं मिलता लेकिन भाषाविदों का विचार है कि जिस प्रकार संस्कृत में पताका दंड शब्द मिलता है उसी प्रकार वहां ध्वज-दंड शब्द भी प्रचलित रहा होगा और इसी ध्वज दंड से हिन्दी का झंडा शब्द विकसित हुआ है।

साधारण व्यक्तियों को छोड़करऋ राजा, राजपद-प्राप्त अधिकारी, विशिष्ट व्यक्ति, कुल या वंश, गण तथा संस्थाएंऋ प्राचीन काल से ही अपनी पहचान के लिए किसी न किसी प्रतीक या चिह्न का प्रयोग करते आए हैं। ये प्रतीक आरम्भ में तो पशु, पक्षी तथा किसी फूल आदि तक सीमित थे लेकिन कालांतर में इनका विस्तार हुआ और अनेक नए प्रतीक इनमें जुड़ गए। विभिन्न रूप एवं नामधारी इन प्रतीकों में मुद्रा या मुहर, राज-मुद्रा, बिल्ला या बैज, कुल-चिह्न, फलक, पताका, वैजयंती, रण-पताका, पोत-ध्वज, ध्वजा, ध्वज तथा झंडा आदि उल्लेखनीय है।

आधुनिकतम खोजों के आधार पर यह प्रायः निश्चित है कि ध्वज या झंडे का आविष्कार सबसे पहले भारत और चीन में हुआ। भारत में ध्वज तथा ध्वजा शब्द बहुत प्राचीन हैं जिनका प्रयोग हमारे प्राचीनतम ग्रंथ )ग्वेद से ही मिलने लगता है। वैदिक इंडैक्स के अनुसार ;देखिए मेकडौनेल और कीथ द्वारा संपादित वैदिक इंडैक्स में ध्वज शब्द) ऋग्वेद में ‘ध्वज’ शब्द  दो बार (7-85-2; 10-103-11) आया है। ऋग्वेद  (7-85-2) से यह उद्धरण देखिए :

‘स्पर्धन्ते वा उ देव हूये अत्र येषु ध्वजेषु दिद्यतः पतन्ति’

अर्थात्- ‘‘जहाँ विजय की इच्छा करने वाले वीर स्पर्धा करते हैं, वहाँ संग्राम में तीक्षण अस्त्र ध्वजों पर गिरते हैं।’’ इसी प्रकार का भाव )ग्वेद के 10 वें मंडल के, 103 वें सूक्त के 11 वें मंत्र में है। इससे स्पष्ट है कि ध्वज शब्द का प्रथम प्रयोग सेना के संदर्भ में हुआ है। सेनाएँ सदा अपना ध्वज लेकर चलती थीं इसी कारण सेना के लिए सं॰ में ध्वजिनी शब्द का प्रयोग भी होता है।

महाकाव्यों में वर्णित युद्धों में भी ध्वज का अत्यधिक महत्त्व पाया जाता है। उदाहरण के लिए बाल्मीकि रामायण (2-67-26) में उल्लेख है कि ‘ध्वज’ रथ पर गडे़ स्तंभ में लगे होते थे। महाभारत (कर्ण पर्व – 33-4) में भी वैकर्तन कर्ण द्वारा किन्हीं की ध्वजा के टुकड़े-टुकड़े कर देने का वर्णन मिलता है। परम्परा से चले आ रहे चित्रों में, महाभारत के यु( में अर्जुन के रथ पर हनुमान का ध्वज लगा दिखाई देता है। प्राचीन काल के लिच्छवि, यौधेय तथा मत्स्य आदि गणों के अलग-अलग ध्वजों का उल्लेख भी मिलता है।

जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, झंडा किसी राष्ट्र, समुदाय, सेना, गण या व्यक्ति का प्रतीक या राज-चिह्न रहा है। आरम्भ में इसका प्रयोग अधिकांशतः युद्ध के समय होता था ताकि मित्र और शत्रु को पहचाना जा सके। युद्ध में रथों और हाथियों पर तो झंडा फहराया ही जाता था, घुड़सवार भी झंडा रखते थे। झंडे का गिर जाना, झुक जाना या न दिखना पराजय का, या कम से कम अव्यवस्था या गड़बड़ी का प्रतीक आवश्य होता था। राजा के हाथी या रथ पर लगे ध्वज की रक्षा के लिए उसके आस-पास अनेक सैनिक रहते थे।

यहाँ यह जानना भी रोचक होगा कि किसी भी देश के झंडे के रंग तथा डिजाइन मन-मर्जी से तय नहीं हुए हैं बल्कि इनके मूल में उस देश की दीर्घ कालीन धार्मिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक परम्पराएं होती हैं। अनेक स्थितियों में तो बहुत से परिवर्तनों के बाद ही किसी झंडे का अंतिम रूप निश्चित हो पाया है। हमारे राष्ट्र-ध्वज का वर्तमान रूप भी अनेक परिवर्तनों के बाद स्थिर हुआ है। वस्तुतः भारतीय राष्ट्र-ध्वज की विकास यात्रा काफी लंबी है जिसकी शुरूआत सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से होती है। मेरठ से आरंभ हुए इस संग्राम के क्रांतिकारियों ने दिल्ली को घेर कर नाममात्र के बादशाह, बहादुरशाह ज़फ़र को इस संग्राम का नेतृत्व करने को बाध्य कर दिया। बहादुरशाह ने आजादी के इस संग्राम का अनिच्छा से नेतृत्व किया और इसके प्रतीक रूप में जो झंडा उठाया वह हरे रंग का था जिसके बाएं ओर कोने में एक कमल का फूल बना था, दाएं तरफ नीचे कोने में एक चपाती बनी थी और चारों ओर स्वर्णिम झालर लगी थी। आजादी का वह संग्राम असफल रहा और बहादुरशाह को कै़द करके रंगून ;यांगूनद्ध की जेल में भेज दिया गया और इसके साथ ही वह ध्वज भी समाप्त हो गया।

जब अंग्रेज इस संग्राम में विजयी हो गए तो उन्होंने इस ब्रिटिश राज्य ;भारतद्ध के लिए एक ऐसे झंडे के निर्माण की बात सोची जो ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतीक बन सके और जिसके साथ इस देश के सब लोग भी जुड़ सकें। इस दिशा में पहला प्रयास विलियम कोल्डस्ट्रीम नाम के इंडियन सिविल सेवा के एक ब्रिटिश अधिकारी ने किया लेकिन उसके बनाए झंडे को लॅार्ड कर्जन द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया। आरम्भ में ऐसे झंडे के निर्माण में सुझाव देने के लिए बाल गंगाधर तिलक, अरविन्द घोष, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की भूमिका, प्रमुख रही और इस पर अंकित करने के लिए गणेश, काली ;माँद्ध तथा गऊ ;माताद्ध की आकृतियां सुझाई गई जो उस समय चल रहे धार्मिक आंदोलनों से प्रेरित थीं। क्योंकि ये सभी चिह्न हिन्दू परम्पराओं पर केन्द्रित थे और देश की मुस्लिम आबादी को इन पर एतराज था, इसलिए स्वीकार नहीं किए जा सके। लेकिन राष्ट्र-ध्वज निमार्ण के ये प्रयास जारी रहे।

सन् 1905 में हिन्दू धर्म सुधारक और स्वामी विवेकानन्द की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने लाल रंग का एक वर्गाकार ध्वज तैयार कराया। इसका लाल रंग स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक था, जिसके चारों ओर एक सौ आठ ज्योतियों या दीपकों की माला थी और बीच में देवराज इन्द्र का वज्र था। वज्र के बाएँ ओर पीले रंग में बंगला भाषा में, वन्दे तथा दाएँ ओर मातरम् लिखा हुआ था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान पहला तिरंगा झंडा सन् 1906 में बनाया गया। इस झंडे में एक जैसी लंबाई-चौडा़ई वाली तीन पट्टियां थीं। सबसे ऊपर हरी, बीच में पीली तथा नीचे लाल। हरे रंग की पट्टी पर कमल के आठ  फूल बनाये गये थे जो अर्धविकसित थे। पीले रंग की पट्टी पर नीले रंग में, देवनागरी लिपि में, वन्देमातरम् लिखा गया था और सबसे नीचे लाल पट्टी पर सफेद रंग में बाएँ तरफ ‘सूर्य’ का और दाएँ तरफ ‘अर्धचंद्र’ का रेखाचित्र बना हुआ था। यह ध्वज पहली बार 7 अगस्त 1906 को कोलकाता के पारसी बागान स्क्वेअर् में फहराया गया और कोलकाता-ध्वज के रूप में प्रसि( हुआ। इसी ध्वज का थोड़ा परिवर्तित रूप मादाम भीकाजी रुस्तम कामा ने विदेश में तैयार करवाया। इसमें और कोलकाता ध्वज में केवल इतना अन्तर था कि कोलकाता ध्वज में जहाँ अर्धविकसित कमल बने थे वहाँ इसके कमल विकसित थे। कोलकाता ध्वज में सूर्य और अर्धचंद्र के स्कैच या रेखाचित्र बने थे जबकि इसमें चित्र थे।

 

यह झंडा सर्वप्रथम 22 अगस्त 1907 को जर्मनी के स्टुटगार्ट नगर में मादाम कामा के द्वारा ही फहराया गया। इसी क्रम में सन् 1916 में मच्छिलीपट्टणम के एक किसान पिंगली वैंकैया ने मद्रास हाई कोर्ट के सदस्यों के आर्थिक सहयोग से झंडे के तीस नए डिजाइन पेश किए जो एक पुस्तिका के रूप में थे। इनमें से कोई भी स्वीकार नहीं किया जा सका लेकिन इसने इतनी भूमिका जरूर निभाई कि ध्वज आंदोलन को जारी रखा। स्वाधीनता संघर्ष के अगले पड़ाव के रूप में, सन 1917 में होमरूल लीग के नेता बाल गंगाधर तिलक और श्रीमती एनी बेसेन्ट ने एक नये झंडे की रूपरेखा तैयार करवायी। इसमें लाल और हरी के क्रम से नौ पट्टियाँ थी, पाँच लाल और चार हरी। नीचे की छः पट्टियों में फैला हुआ सप्तर्षि या सात तारों का समूह अंकित था और ऊपर की तीन पट्टियां के दाएँ ओर एक अर्धचंद्र, और इसके ऊपर एक तारा बना हुआ था। झंडे के बाई ओर, ऊपर के कोने में ब्रिटिश सत्ता का प्रतिनिधित्व करता हुआ यूनियन जैक बना हुआ था। होमरूल लीग का यह झंडा भी प्रचलित नहीं हो सका क्योंकि इस पर कोयम्बटूर के मजिस्ट्रेट ने पाबंदी लगा दी। इस पाबंदी से राष्ट्रीय ध्वज की महत्ता और आवश्यकता पर बहस और भी तेज हो गई।

1921 में महात्मा गांधी ने अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में भारतीय ध्वज की आवश्यकता पर जोर देते हुए इसका खाका सुझाया, जिसके केन्द्र में चरखा जिसका विचार मूलतः लाला हंसराज ने दिया थाद्ध हो, हिन्दुओं को दर्शाने वाली लाल पट्टी हो और मुसलमानों की प्रतीक हरी पट्टी हो। उन्होंने ऐसा एक झंडा तैयार करने का काम पिंगली वैंकैया को ही सौंपा था। लेकिन इस झंडे का सिक्खों तथा अन्य धर्मों द्वारा विरोध हुआ और 1929 में एक अधिक धर्मनिर्पेक्ष रूप तैयार किया गया। सन् 1931 में एक फ्लैग कमेटी बनाई गई और इसने एक ध्वज का प्रारूप तैयार किया। इसके अतिरिक्त 1931 में ही इंडियन नेशनल कांग्रेस का चरखे वाला झंडा बनाया गया। यह कहानी चलती रही और अंततः इंडियन नेशनल कांग्रेस के ध्वज के आधार पर  चरखे के स्थान पर अशोक चक्र वाले, ध्वज का प्रारूप तैयार किया गया। उसी प्रारूप को पं॰ जवाहर लाल नेहरू ने 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा में पेश किया। इस प्रारूप को संविधान सभा ने स्वीकृति प्रदान की और तभी से यह हमारा राष्ट्र-ध्वज बन गया।

संसार भर के ध्वजों के ऐसे विकास क्रमों और उनके लम्बे इतिहास को देखते हुए अब तो ध्वजों या पताकाओं के तर्कपूर्ण अध्ययन पर आधारित ज्ञान की एक शाखा भी विकसित हो गई जिसे वैक्सिलॉलॉजी ;अमगपससवसवहलद्ध कहा जाता है। यह शब्द लैटिन भाषा के दे षब्दों अमगपससनउ ;=ध्वज, ध्वजा, पताका तथा सवहल ;=शास्त्र, विद्या के योग से बना है। हिन्दी में इसे ध्वज शास्त्र या ध्वज विज्ञान कहा जा सकता है।

-संपर्क : 9818211771

 

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