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वो किस मुंह से कहेंगे-ईद मुबारक!

श्रीनगर की जामा मस्जिद के बाहर सुरक्षा में तैनात पुलिस अधिकारी मोहम्मद अयूब पंडित की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। यह इस्लाम में पवित्र मानी गई रात शब-ए-कद्र का मौका था। इसके बाद पाकिस्तान में करांची, क्वेटा और मकरान में एक बाद एक बम धमाके होना मासूमों की हत्या यहीं नहीं रुकती। 22 जून को अफगानिस्तान के हेलमंड प्रांत के लश्करगाह में एक बैंक में हुए धमाके में लगभग 29 लोगों की मौत हो गई और अनेक घायल हुए। 27 मई से इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए रमजान का पहला दिन था। एक महीने चलने वाले रमजान के दौरान प्रार्थना और उपवास किया जाता है। लेकिन अफगानिस्तान के पूर्वी हिस्से में हुए एक आत्मघाती कार बम धमाके में कम से कम 13 लोगों की मौत हो गई। तब से लेकर अभी तक मजहबी हत्याओं का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। बल्कि यह आंकड़ा प्रतिवर्ष की तरह ही सेंकड़ों के पार पहुँच गया है। ऐसा नहीं कि रमजान में भीषण रक्तपात की यह कोई नई शुरुआत है बल्कि दिन के उजाले में इतिहास उठाकर देखें तो पिछले या उससे पिछले वर्ष, हर वर्ष और ज्यादा पीछे जायें तो करीब 1400 वर्षो से ये सिलसिला लगातार जारी है।

हालांकि इस्लामिक कैलेंडर में रमजान को सबसे मुबारक और आध्यात्मिक महीना माना जाता है। तीस दिन के लिए मुसलमान दिन के वक्त खाना नहीं खाते और पानी नहीं पीते। उनका मानना है कि इस दौरान अल्लाह उन्हें हर भूल के लिए क्षमा कर देता है। मस्जिद में नमाजियों की भीड़ होती है, जो ऊपर वाले से क्षमा और दुआ मांगने आते हैं। लेकिन उसके उलट इस्लाम के रक्षक के रूप में दुनिया में अपनी छवि गढ़ने वाले कट्टरपंथी ऐसा भी मानते हैं कि इस महीने में जीत दर्ज करनी और लूट मचानी चाहिए। वह मानते हैं कि ये सही मौका है जब लड़ाई को दोगुना तेज कर देना चाहिए। इसलिए इस दौरान वह सामान्य से ज्यादा हमले करते हैं।

खबर है मक्का में काबा की मस्जिद को निशाना बनाने की एक चरमपंथी योजना को नाकाम कर दिया गया है। वैसे देखा जाये तो रमजान को युद्ध का महीना मानने की प्रथा इस्लामिक इतिहास से ही आती है। पैगंबर मोहम्मद ने अपनी पहली जिहाद, जिसे बद्र की लड़ाई के नाम से जाना जाता है, वर्ष 624 में रमजान के महीने में ही लड़ी थी। इसके आठ साल बाद उन्होंने रमजान के ही महीने में मक्का पर जीत हासिल की थी। शायद इस कारण भी पिछले वर्ष सीरिया में अलकायदा के आधिकारिक संगठन नुस्रा फ्रंट ने रमजान को विजय अभियान का महीना बताया था और रमजान के नजदीक आते ही आईएस के प्रवक्ता अबु मोहम्मद अल-अदनानी ने दुनियाभर के अपने समर्थकों से कहा था, तैयार हो जाओ. काफिरों के लिए इसे आपदा का महीना बनाने के लिए तैयार हो जाओ, शायद यही वह अपील थी जिसने उमर मतीन, जैसे अकेले आतंकी को फ्लोरिडा के ऑरलैंडो में एक क्लब में 49 लोगों की हत्या के लिए प्रोत्साहित किया था।

अभी ताजा घटनाक्रम पर नजर डालें तो खुद को इस्लाम का सबसे बड़ा रखवाला कहने वाले इस्लामिक स्टेट ने मूसल में सबसे पुरानी अल-नूरी मस्जिद को उड़ा दिया है। यह वही मस्जिद है जहाँ से आईएस के नेता अबू बक्र अल-बगदादी ने 2014 में खिलाफत की घोषणा की थी। दरअसल आईएस जिस कट्टरवादी इस्लाम में यकीन रखता है, उसमें उन्हें लगता है कि इस दरगाह के होने की वजह से लोगों का ध्यान अल्लाह से परे हट रहा है, इसलिए इसे ढ़हा देना चाहिए. ‘‘आधुनिक  जिहाद के जनक’’ माने जाने वाले अब्दुल्ला अजाम ने 1980 के दशक में अफगानिस्तान में अरब विदेशी लड़ाकों का नेतृत्व किया था। वह तर्क देते हैं कि जिहाद की उपेक्षा करना एक किस्म से उपवास और नमाज छोड़ने के बराबर है। बाद में उन्होंने लिखा, जिहाद, इबादत करने का सबसे बेहतरीन तरीका है। इस रास्ते से ही मुसलमान को जन्नत हासिल हो सकती है।

जिहाद और रमजान से उसके सम्बन्ध की इन व्याख्याओं को लेकर आम मुसलमान निराश हो सकता है। उनके लिए ये महीना है संयम और खुद के अंदर झांकने का है, लेकिन इस्लाम में संकट कुछ ऐसा है कि चरमपंथियों की व्याख्या, प्रामाणिकता और हिंसा समझ से परे है कट्टरपंथी तो ये भी मानते हैं कि रमजान के महीने में अगर ज्यादा नमाज पढ़ने और दान देने को प्रोत्साहन दिया जाता है तो ज्यादा रक्तपात को क्यों नहीं? यदि इसको इस तरीके से देखेंगे तो समझ में आएगा कि आखिर क्यों हर वर्ष रमजान के महीने में इतनी भयानक घटनाएँ, हत्याएं रक्तपात होता हैं।

हाल की घटनाओं ने दुनिया के मुसलमानों में ये एहसास ताजा कर दिया है कि इस्लाम का डर बाकी शेष दुनिया में बढ़ चुका है। ये मसला महज नस्लपरस्तों और अल्पसंख्यकों का ही नहीं बल्कि समाज की एक असली सच्चाई भी है। इन सबके बाद यदि अपनी नजर विश्व के अन्य कोनों में दौड़ायें तो 11 सितंबर, 2001 के हमलों को 15 साल से अधिक हो गए हैं, लेकिन सही मायने में पश्चिमी समाज में इस्लाम का असली डर अब फलफूल रहा है। पिछले दो साल की राजनीतिक घटनाओं ने इन सबमें बड़ी भूमिका निभाई है। ब्रिटेन में जून से पहले तीन चरमपंथी हमलों में शामिल सारे लोग मुसलमान थे। जिन्होंने जिहादी इस्लाम का हवाला देकर लोगों का मजहब के नाम पर कत्ल किया।

11 सितंबर के बाद की अवधि में यह सोच तो बढ़ रही थी कि मुसलमान पश्चिमी समाज के लिए एक समस्या है और उनकी सोच और धर्म का पश्चिमी समाज के मूल्यों से कोई तालमेल नहीं है। लेकिन हाल ही के हमलों और खूनी खेल की आहट अपनी देहलीज पर देख यूरोप वासी भी खुद को असहज महसूस करने लगे हैं। वेस्टमिंस्टर, मैनचेस्टर एरीना और लंदन ब्रिज के पास होने वाले हमलों के बाद लोगों ने खुलेआम मुसलमानों को कसूरवार ठहराना शुरू कर दिया। मुसलमानों को केवल या तो असहिष्णु या रूढ़िवादी या फिर अति आधुनिक और धर्म से दूर रहने वालों के रूप में देखा जाता है और इन दोनों विरोधी विचारों के बीच सोच रखने वाले ब्रिटिश मुसलमानों को जान-बूझकर नजरअंदाज किया जाने लगा है। आलम यह कि लोग मुसलमान होने पर शर्मिंदगी तक महसूस करने लगे हैं और लोगों को समझाने की उनकी वह हर कोशिश बेकार जा रही कि इस्लामिक चरमपंथी उनके धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं लेकिन उनकी यह कोशिश उस समय और बेकार हो जाती है जब रमजान के महीने में ही अंधाधुंध फायरिंग या फिर बम धमाकों के बीच मासूम लोगों की चीख पुकार सुनाई देती है।

राजीव चौधरी

 

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