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श्रीकृष्ण के भक्त कहलाने वाले शिशुपाल

आज न केवल देश भर में किन्तु समग्र विश्व में श्री कृष्ण जी का जन्म दिवस मनाया जा रहा है । यह एक हमारे लिए हर्ष, उल्लास और गर्व का विषय है । परन्तु जब किसी परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाये और उसी परिवार में ही किसी व्यक्ति का विवाह भी हो तो ऐसी स्थिति में यह समझ में नहीं आता कि मृत्यु का शोक मनाएं या फिर विवाह की खुशी या जश्न । वास्तव में देश भर में श्रीकृष्ण जी के भक्त कहलाने वाले सारे लोग आँख के अंधे हैं, क्योंकि वे अपने ही भगवान के सही स्वरुप को न जानते हैं और न समझते हैं और कोई वास्तविक स्वरुप के विषय में बताना चाहे तो उसको सुनना ही नहीं चाहते, मानने की तो बात ही दूर है । जितने भी कथावाचक पंडित हैं वे सब के सब ऐसे हैं जैसे अंधों के पीछे अंधे चलते हैं । कोई भी प्रवक्ता न कृष्ण जी के इस वास्तविकता को सुनना चाहते और न ही सुनाना चाहते । केवल उनके यथार्थ जीवन चरित्र का कथन करने की बजाय उनकी निंदा करके उनकी जीवनी को नष्ट कर रहे हैं, उनके चरित्र को मार रहे हैं ।

इसीलिए सांख्य दर्शनकार ने कहा था कि जब सुनने और सुनाने वाले पढ़ने और पढ़ाने वाले दोनों ही मूर्ख होते हैं तो अन्ध-परम्परा चल पड़ती है और आज यही हो रहा है कि हमारे इतिहास के यशस्वी, अनेक गुणों के धनी, महान पात्रों को भी एक अन्ध-धार्मिकता के साथ जोड़कर उनके महान् यश-गाथा को नष्ट प्रायः कर दिया है । इसके विपरीत उनकी जीवनी को ऐसे पेश किया जाता है जैसे कि वे सब महान् विभूति नहीं किन्तु अवगुणों के, दोषों के, अन्याय, अधर्म, पापों के पिटारा थे । मानो कि इन्होंने ही दुनिया की सब गलतियों को करने का ठेका ले रखा हो, ऐसी कोई गलती नहीं जो इनकी जीवनी के माध्यम से न कराये गए हों । ये सब उनके ऊपर दोषारोपण करनेवाले कोई उनके शत्रु या दुश्मन नहीं हैं, न कोई विरोधी हैं और न ही कोई पापी-अधर्मात्मा कहलाने वाले हैं परन्तु यही धार्मिक कहलाने वाले इनके ही भक्त, इनके ही श्रद्धालु, इनके ही वंशज, इनके ही अनुयायी, इनके ही नाम से अपना पेट पालने वाले, इनके ही सन्तान हैं । जब हम यह सुनते हैं तो बड़ा ही दुःख का अनुभव होता है कि आजतक किसी भी समाज या जाति की ऐसी दुरावस्था नहीं हुई होगी जहाँ अपने ही लोग, अपनी ही संतान, अपने ही वंशज, अपने महापुरुषों को बदनाम करने में लगे हुए हैं, उनकी निन्दा करने से चुकते नहीं हैं ।

प्रायः हम यह देखते हैं कि यदि कोई व्यक्ति हमारे माता-पिता, दादा, या परदादा या फिर अपने भाई-बहन को गाली-गलोज करता है, उनके विरुद्ध में अनाप-शनाप बकता है, तो उसको हम कभी भी सहन नहीं करते बल्कि उसका प्रत्युत्तर अवश्य देते हैं, यहाँ तक कि उस व्यक्ति के साथ हम लढाई कर लेते हैं । परन्तु इससे बड़ा दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है जब यही संतान अपने पूर्वजों के मान-सम्मान की रक्षा करने के बजाय उनके ऊपर ही संसार भर के दोष लगाये फिर रहे हों, और बड़ी ही प्रसन्नता के साथ यही गाते-फिरते हों कि हमारे पूर्वज, हमारे ही दादा-परदादा महापुरुष नहीं किन्तु चोर थे, झूठे थे, निकम्मे थे, पराई नारी को गलत दृष्टि से देखते थे, लम्पट थे, व्यभिचारी थे, युद्ध भूमि में पराक्रम दिखानेवाले नहीं किन्तु युद्ध से पीठ दिखाकर डरपोक की तरह भागनेवाले थे ।

यह तो समझ में आता है कि जब किसी के पिता या दादा जी आदि कोई उत्तम कार्य करते हैं, लोकोपकार के कार्य करते हैं, तो उनकी संतान बड़े ही गर्व के साथ कहती हैं कि मेरे पिता जी या दादा जी ने ये काम किया है, वो काम किया है, इतने बड़े-बड़े लोककल्याण के कार्य किये हैं अतः मुझे उन पर गर्व है । परन्तु ऐसी कौन सी संतान होगी जो गर्व महसूस कर सकती है यह कह कर कि मेरे पूर्वज या मेरे पिता-दादा जी चोर थे, लम्पट थे, व्यभिचारी थे आदि आदि । आज हमारे भारत में हमारे पूर्वजों के साथ यही हो रहा है, अपने ही महापुरुषों की प्रशंसा करने, उनका सम्मान करने, उनके गुणों का गान करने या उनका अनुसरण करने को छोड़कर केवल उनकी चित्र मात्र की पूजा करके उनकी भरपेट निंदा करने में लगे रहते हैं ।

हमने महाभारत में सुना था कि श्री कृष्ण जी ने अपनी बुआ को बचन दिया था कि यह शिशुपाल जब तक सौ गलतियाँ पूरी नहीं कर लेता तब तक शिशुपाल को श्रीकृष्ण जी दण्डित नहीं करेंगे । यदि सौ गलतियाँ पूरी हो जाएँगी और उससे आगे एक भी गलती करेगा तो उसे तब कोई रक्षा करने वाला नहीं होगा । शिशुपाल के साथ यही हुआ कि जब राजसूय यज्ञ चल रहा था और सबसे पूज्य, सम्मानित, योग्य, श्रेष्ठतम, उत्तम चरित्रवान व्यक्ति की पूजा की जा रही थी । तब पितामह भीष्म ने भी यह कह दिया कि हम सब के बीच में श्रीकृष्ण जी जैसे योग्य व्यक्तित्व मिलना कठिन है । जिन्होंने बाल्यकाल से लेकर अब तक कोई दोष नहीं किया, उनका चरित्र बहुत ही उत्तम है, अतः इनकी ही पूजा करनी चाहिये ।

उस समय शिशुपाल आ पहुंचा और उनका विरोध करते हुए बोला कि इतने सारे राजा-महाराजाओं के रहते इस मुर्ख ग्वाले को क्यों इतना सम्मान दिया जा रहा है । तब उस सभा में उपस्थित सभी लोगों ने शिशुपाल का विरोध किया कि शिशुपाल अपनी वाणी पर नियन्त्रण रखो नहीं तो तुम्हारी जिह्वा काट ली जाएगी । फिर भी शिशुपाल माननेवाला कहाँ था, वो रुका ही नहीं और श्रीकृष्ण जी को अपशब्द के ऊपर अपशब्द कहने लगा । अब श्रीकृष्ण जी ने अपनी बुआ जी को जो वचन दिया था वो पूरा हो गया था । शिशुपाल पूरी तरह उसका अतिक्रमण कर चूका था और अपने आप को दण्ड का अधिकारी बना लिया था । श्रीकृष्ण जी की सहनशक्ति की सीमा समाप्त हो चुकी थी । अन्तिम में श्रीकृष्ण जी ने अपने सुदर्शन चक्र के माध्यम से शिशुपाल का वध कर दिया ।

हम कल्पना करके देख सकते हैं, यदि आज भी श्रीकृष्ण जी हमारे बीच उपस्थित होते तो क्या स्थिति होती ? क्या कोई भी मुर्ख व्यक्ति श्रीकृष्ण जी के सामने उनको माखन-चोर, लम्पट, झूठा, गोपिओं के वस्त्र-चोर, रासलीला करनेवाला, 16 हजार पत्नियोंवाला, रणछोड़ आदि आदि अनेक अपशब्द कहने का दुस्साहस करता ? कदापि नहीं । यदि भूल से भी कोई इस प्रकार का दुस्साहस कर भी लेता तो उसको श्रीकृष्ण जी अवश्य यथोचित दण्ड देते । एक राज होने के नाते या तो उस दम्भी, पाखंडी को जेल (कारागार) में डाल देते या फिर शिशुपाल जैसे उसके गर्दन को खंडित कर देते किन्तु दिन-प्रतिदिन उनकी निंदा करनेवाले, उनके ऊपर दोषारोपण करनेवाले इन भक्त कहलाने वाले महा-मूर्खों को क्षमा कभी भी नहीं करते ।

भाईयों-बहनों जरा सोचो जिसका चरित्र इतना पवित्र था, जो इतना प्रतापी, पराक्रमी, तेजस्वी, यशस्वी था, जो इतना बुद्धिमान, नीतिवान, था, जिसके नाम सुनते ही उनके शत्रु भाग खड़े हो जाते थे ऐसे अनन्य ईश्वर-भक्त, देश-प्रेमी, उत्तम राजा, पिता, मित्र, सखा, भाई, और न जाने किन-किन गुणों के खान थे ऐसे महान विभूति को हमने क्या से क्या बना दिया । उनकी हम पूजा कर रहे हैं या सच में उनके प्रति द्रोह कर रहे हैं ? आइये हम उनके यथार्थ स्वरूप को समझें और सच्चे अर्थों में उनका जन्मदिवस आदि पालन करें, उनके गुणों को अपने जीवन में धारण करें, उनको भी एक आदर्श पुरुष के रूप में समाज में प्रतिष्ठित करके रखें और उनके जैसा हम भी आदर्श पुरुष बनने का प्रयत्न करें ।।

लेख – आचार्य नवीन केवली

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