आर्नोल्ड तोयनबी एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हुए हैं। उन्होंने समाज में होने वाले परिवर्तनों के सम्बन्ध में एक नियम का प्रतिपादन किया है। उनका कथन है कि समाज में जब कोई असाधारण परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, तब वह व्यक्ति व समाज के लिए चुनौती या चैलेंज का रूप धारण कर लेती है, वह परिस्थिति व्यक्ति तथा समाज को मानो ललकारती है, उसके सामने एक आह्वान पटकती है, और पूछती है कि कोई माई का लाल जो इस असाधारण परिस्थिति का, इस ललकार का, इस आह्वान का मर्द होकर सामना कर सके, इस ललकार का जवाब दे सके?
तोयनबी का कथन है कि जब हम वैयक्तिक या सामाजिक रूप से किसी भौतिक या सामाजिक विकट परिस्थिति से घिर जाते है, तब हम में या समाज में उस कठिन परिस्थिति, कठिन समस्या को हल करने के लिए एक असाधारण क्रियाशक्ति असाधारण स्फुरण उत्पन्न हो जाता है। भौतिक अथवा कठिन,विषम परिस्थिति हमें मलियामेट न कर दे, इसलिए इस परिस्थिति के आह्वान, उसकी ललकार, उसके चैलेंज के प्रति जो व्यक्ति प्रतिक्रिया करने के लिए उठ खड़ें होते हैं, चैलेंज उत्तर देते हे। जो समाज को नया मोड़ देते है, वे ही समाज के नेता कहलाते है। जब समाज किसी उलझन में फंस जाता है तब उसमें से निकलना तो हर एक चाहता है, हर व्यक्ति की यही इच्छा होती है कि यह संकट दूर हो, परन्तु हर कोई उस चैलेंज का सामना करने के लिए अखाडें में उतरने को तैयार नहीं होता। विक्षुब्ध समाज का असन्तोष, उसकी बेचैनी जिस व्यक्ति के प्रतिबिम्बित होने पर जो व्यक्ति उस असन्तोष का सामना करने के लिए खम ठोककर खड़ा होता है, वही जानता की आकाओ का सरताज होता है।
मैं स्वामी श्रद्धानन्द जीवन की इसी दृष्टि से देखता हूँ। वे समय की चुनौती का, समय की ललकार का जीता-जागता जवाब थे। क्या हमारे सामने चुनौतियों या ललकारें नहीं आती? हम हर दिन चुनौतियों से घिरे हुए है, परन्तु हम में उन चुनौतियोंका सामना करने की हिम्मत नहीं। व्यक्ति जीवित रहता है जब वह चुनौतियों का सामना करता रहता हैए समाज की चुनौती का काम ही व्यक्ति अथवा समाज में हिम्मत जगा देता हैए परन्तु ऐसी अवस्था भी आ सकती है। जब व्यक्ति अथवा समाज इतनी हिम्मत हार बैठे कि उसमें ललकार का सामना करने की ताकत ही न रहें। ऐसी हालत में वह व्यक्ति बेकार हो जाता है। स्वामी श्रद्धानन्द उन व्यक्तियों में से थे जो सामने चैलेंज को देखकर उसका सामना करने के लिए शक्ति के उफान से भर जाते थे। उनका जीवन हर चुनौती का जवाब थाए तभी पचास वर्ष बीत जाने पर भी हम उन्हें नहीं भूला सके।
उनके जीवन के पन्नों को पलटकर देखिए कि वे क्या थे? वे अपनी जीवनी में लिखते हैं कि जब उनके बच्चे स्कूल से पढ़कर आते थे तब गाते थे- ‘ईसा-ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल’। आज भी हमारे सामने ऐसी कोई बात चुनौती का रूप नहीं पैदा करती। उस समय वे महात्मा मुन्शीराम थे, उनके सामने बच्चों को इस प्रकार गाना एक चुनौती के रूप में उठ खड़ा हुआ जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में एक नवीन शिक्षा प्रणाली की नींव रखी गई। आज जो सब लोग गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के सिद्धान्तों को शिक्षा के आदर्श तथा मूलभूत सिद्धान्त मानने लगे हैं उसका मूल एक चुनौती का सामना करना था जो एक साधारण घटना के रूप में महात्मा मुन्शीराम के सामने उठ खड़ी हुई थी। सत्यार्थ प्रकाश पढ़तें हुए उन्होंने पढ़ा कि गृहस्थाश्रम के बाद वानप्रस्थाश्रम मेंप्रवेश करना चाहिए। यह कोई नया आविष्कार नहीं था। जो भी वैदिक संस्कृति से परिचित है वह जानता है कि इस संस्कृति में ये चार आश्रम है। परन्तु नहीं, उस महान् आत्मा के सामने तो यह एक चैलेंज था। पहले सब है, परन्तु उसके लिए तो पढ़ना पढने के लिए नहीं, करने के लिए था। गुरुकुल विश्वविद्यालय की एक जंगल में स्थापना कर वे वहीं रहने लगे मृत वानप्रस्थाश्रम को उन्होंने अपने जीवन में क्रियात्मक रूप देकर जीवित कर दिया। यह क्या था अगर वैदिक संस्कृति की चुनौती का जवाब नहीं था। फिर वानप्रस्थ तक जाकर ही टिक नहीं गये। वानप्रस्थ के बाद संन्यास लिया, और देश में जितना महात्मा मुंशीराम यह नाम तो विख्यात हो गया। ऐसे भी लोग मुझे मिले है जो ‘महात्मा मुंशीराम’ और स्वामी श्रद्धानन्द इन दोनों को अलग अलग व्यक्ति समझते है। इसका कारण यही है कि महात्मा मुन्शीराम ने जिस प्रकार लगातार चुनौती पर चुनौती सामना किया, उसी प्रकार श्रद्धानन्द ने चुनौती का सामना किया, इसलिए कुछ व्यक्तियों के लिए जो यह नहीं जानते थे कि महात्मा मुन्शीराम ही संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द बन गये ये नाम दो महापुरुषों के नाम हो गए जो अपने-अपने जीवनकाल में असाधारण सामाजिक परिस्थितियों, सामाजिक ललकारों और चुनौतियों के साथ जूझकर अपने जीवन की अमर कहानी लिख गयें।
गुरुकुल में रहते हुए वे एक पत्र निकाला करते थे जिसका नाम था ‘सह्र्म प्रचारक’ यह पत्र उर्दू में प्रकाशित हुआ करता था। इसके ग्राहक उर्दू जानने वाले थे, हिन्दी जानने वाले नहीं थे। एक दिन अचानक वह पत्र सब ग्राहकों के पास उर्दू के स्थान पर हिन्दी में पहुंचा। यह क्या चुनौति का जवाब नहीं थ? जिस व्यक्ति ने घोषणा की हो कि वह गुरुकुल में ऊची से ऊची शिक्षा मातृ-भाषा हिन्दी में देने का प्रबन्ध करेगा, उसका पत्र उर्दू में प्रकाशित हो- यह विडम्बना थीं। उन्हें मालूम था कि एकदम उर्दू से हिन्दी पत्र करने से ग्राहक छंट जायेंगे, परन्तु इस चैलेंज का उन्हें सामना करना था। परिणाम यह हुआ कि उनकी आवाज को सुनने के लिए ग्राहकों ने हिन्दी सीखना शुरू किय और पत्र के ग्राहक पहले से कई गुना बढ गए। लोग हिन्दी की दुहाई देते और उर्दू या अंग्रेजी लिखते-बोलते थे परन्तु उस महान् आत्मा के लिए यही बात एक चुनौती का काम कर गई।
वे किस प्रकार चुनौती का सामना करते थे- इसके एक नहीं अनेक उदाहरण है। सत्याग्रह के दिनों में जब जनता जलूस दिल्ली के घंटा घर की तरफ बढ़ता जा रहा था, तब गोरे सिपाहियों ने जलूस को रोकने के लिए गोली चलाने की धमकी दी थीं। यह धमकी उस महान् आत्मा के लिए भारत माता की बलिवेदी पर अपने को कुर्बान कर देने की ललकार थी। साधारण मिट्टी के लोग उस धमकी को सुनकर ही तितर-बितर हो जाते परन्तु श्रद्धानन्द ही था जिसने छाती तानकर गोंरों को गोली चलाने के लिए ललकारा। समाजशास्त्र का यह नियम है कि असाधारण परिस्थिति उत्पन्न होने पर महान् आत्मा के ह्रदय में असाधारण स्फुरण हो जाता है, असाधारण क्रियाशक्ति जो उसे समकालीन मानव समाज से बहुत ऊचे ले जाकर शिखर पर खड़ा कर देती है।
मुझे इस स्थल मथुरा शताब्दी की एक घटना स्मरण हो आती है। उत्सव हो रहा था। स्वामी जी उत्सव का संचालन कर रहे थे, मुझे उन्होंने अपने पास कार्यवाही के संचालन को बैठाया हुआ था। अचानक खबर आयी कि शहर में दंगा, पण्डों ने आर्यसमाजियों को पीटा, उन पर लट्ठ चलाए। स्वामी जी इस समाचार को सुनते ही मुझसे कहने लगे देखो, कार्यवाही बदस्तूर चलती रहे, तुम यहां से मत हिलना, मैं मथूरा शहर जा रहा हूं। स्वामी जी उसी समय धटना स्थल परपहुचे और स्थिति को संभालकर लोटे उनके जीवन की एक-एक घटना तोयनबी के इस समाजशास्त्रीय नियम की विशद व्याख्या है कि विकट परिस्थिति आने पर प्रत्येक व्यक्ति उस परिस्थिति से निकल ने के जूझना चाहता है, परन्तु भीरूता के कारण जूझ नहीं पाता। उस समय कोई महापुरुष होता है तो सब की पीड़ा को अपने ह्रदय में चीखकर रिस्थिति की विषमता से लड़ने के लिए उठ खड़ा होता है, और जब कोई ऐसा महापुरुष समाने आता है तब उसके सिर उसके पैरों पर नत हो जाते हैं। समय की चुनौती का जवाब देने वाले महापुरुष भारत में हुए है उनकी श्रेणी में श्रद्धानन्द का नाम स्वर्णक्षरों में लिखा जा चुका है। ऐसी महान् आत्मा को मेरा बार-बार नमस्कार है।