इमे ये नार्वाड्.न परश्चरन्ति न ब्राहाणसो सुतेकरासः। त एते वाचमभिपध पापया
सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः।। ऋग्वेद 10/71/9
अर्थ -(इमे ये ) ये जो अविद्वान (अवार्डन न ) न तो इस लोक की विद्या शास्त्र और (न परः चरन्ति ) न ही परलोक के शास्त्र , अध्यात्म -विधा को जानते हैं ( न ब्रह्मणास : ) न ही वेड के ज्ञाता विद्वान हैं ( न सुतेकरास 🙂 न यज्ञादि कर्मकाण्ड के कर्ता हैं ( ते एते ) ( अप्रज्ञाय : ) अविद्वान मनुष्य ( पापया वाचम अभिपद्म ) मलिन वाणी को प्राप्त होकर या पाप – बुद्धि से वेदवाणी को विपरीत जानकर ( सिरी : ) हल चलाते या ( तन्त्रम् तन्वते ) तंतुवाय आदि का साधारण कार्य करते हैं।
शास्त्रों में धर्मयुक्त कर्मो को करने का विधान किया हैं। धर्म की परिभाषा महर्षि कणाद ने इस प्रकार की – यतोsभ्युदय निः क्षेयस सिद्धिः स धर्मः (वैशेषिक ० १२ ) जिसमे इस लोक और परलोक दोनों की प्रप्ति हो उसे धर्म कहते हैं। उपनिषदों में इसे पराअपराविद्या कहा हैं। अपराविद्या में वेद -वेदांगो की गणना की हैं जिसमे समस्त लौकिक कर्मों का अनुष्टान कर स्वर्ग की प्राप्ति की जा सके। परा -विद्या उसे कहते हैं जिससे वह अविनाशि ब्रह्म जाना जाये।
अविद्या मृत्युं तृत्वा विद्यामृतमशनुते।। इशो०।। विद्या और अविद्या, ज्ञान और कर्म इन दोनों को जो जानते हैं वे अविद्या ( भौतिक विज्ञान ) द्वारा मृत्यु अथार्त कष्टों को पार कर विद्या से अमृत मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं। परन्तु जो इन दोनों से अनभिज्ञ हैं , उनकी गति क्या होगी इसे वेद बतला रहा हैं – इमे ये नरवांग परशचरन्ति जो न तो इस लोक की विद्या , शास्त्र और न ही परलोक , अध्यात्म – विद्या को जानते हैं। न ब्रह्मणास: न सुतेकरास : न ही वेद के ज्ञाता विद्वान हैं और न ही वेदानुसार यज्ञादि उत्तम कर्मो को करने वाले हैं, वे मंदबुद्धि हल चलाने और वस्त्रादि बुनने जैसा श्रम करने में ही सारी आयु व्यतीत कर देते हैं। यहाँ हल चलाने या वस्त्र बुनने की निंदा नहीं की गई हैं अपितु इन्हे सामान्य जन भी कर सकते हैं , यह कह कर इन्हे विशिष्ट श्रेणी से पृथक किया गया हैं। मनुष्य जन्म की प्राप्ति भोग और अपवर्ग के लिए हुई हैं। इस संसार में सुखपूर्वक जीने के भौतिक विज्ञानं द्वारा पदार्थो के गुण -धर्म जान उनसे सुख -साधनो का संग्रह करना ही अपराविद्या का अभिप्राय हैं जिससे आधिदैविक और आधिभौतिक दुःखों से छूट आध्यात्मिक परा -विद्या को प्राप्त करने में सुविधा रहे। जो मूढ़मति इन दोनों विद्याओं से अनभिज्ञ है। जिन्हे न तो इस संसार में कैसे जिया जाता हैं। इसका ज्ञान हैं और न ही आत्मा -परात्मा को जानते हैं न ब्रह्मणास न सुतेकरास: न वेदों के विद्वान और न ही वेदानुकूल कर्मो को करने में कुशल हैं वें त एते वाचमभिपद्द पापया वेदवाणी को प्राप्त करके भी बुद्धि की मलिनता के कारण उसका अभिप्राय समझ नहीं पाते। जैसे कि यदि गधे के ऊपर चन्दन की लकड़ियां लाद दी जाए तो भी वह चन्दन के गुणों से अनभिज्ञ रहता हुआ। केवल उस भार को ही ढोता हैं। जैसे जंगल में स्तिथ भीलनी गजमुक्ता को छोड़ गूंजा धारण करती हैं इसलिए विद्या या ज्ञान की प्राप्ति करना बहुत आवश्यक हैं अन्यथा मनुष्य जीवन पशुतुल्य हो लोक -परलोक दोनों बिगड़ जायेंगे। वित्तं बन्धुवः कर्म विद्या भवति पञ्चमी। एतानि मन्यस्थानानी गरियो यद्य्दुत्तर।। धन , बंधु , आयु , कर्म और पाँचवी विद्या ये मान – सम्मान दिलाने वाले हैं। इनमे भी धन से बंधु , बंधु से आयु से कर्म और कर्म से विद्या का स्थान आधिक हैं। बिना विद्या के धर्म – अधर्म का ज्ञान नहीं होता इसलिए धर्म का मर्म जानने वाले जन विद्या का दान दूसरों को देने में तत्पर रहे। विद्या कामधेनु के सामान हैं जो अकाल में भी फलदायिनी हैं और प्रवास अथार्त परदेश में माता के सामान हैं इसलिए विद्या को गुप्त धन कहते हैं। जो पंडितों के चरणविन्दों में रहता हुआ पढता, लिखता और शंका का समाधान करता हैं , जैसे सूर्य की किरणों से कमलिनी का पुष्प खिल जाता हैं , वैसे ही उसकी बुद्धि विकसित हो जाती हैं। जो पढने में असमर्थ हो उसे चाहिये कि विद्वान से धर्माधर्म को सुने और अधर्म तथा दुर्बुद्दि का त्याग कर दे। इस भांति कर लेता हैं और मोक्ष को भी। विद्या से रहित मुर्ख व्यक्ति सिरोशतन्त्रम् तन्वते जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी समृद्ध किसान के यंहा कार्य करने लगे तो उसे उत्पन्न अन्न का एक निश्चित भाग दे दिया जाता हैं। लोक में इसे सीरी कहते हैं। सीरी हल का नाम हैं। उसे चलाने वाला सीरी कहा जाता हैं। यद्यपि कृषि कार्य बुद्धिमानों द्वारा करने योग्य हैं। परन्तु जिस की भूमि हैं वह सब जानता हैं कि कब कौन -सी फसल लेनी हैं। कब बीजों को बोना और कब फसल की निराई -गुड़ाई , खाद -पानी देना हैं। उसका सहयोगी केवल किसान की आज्ञा को मान तदनुसार कार्य करता हैं। वेद में इसलिये ऐसे व्यक्ति के लिए कहा हैं कि वह हल चलाने और तंतुवाय =वस्त्र बुनने जैसे सामान्य कार्यों में अपना जीवन व्यतीत कर देता हैं।
ऐसे व्यक्ति का जीवन पशु सदृश ही होता हैं। खाना -पीना, सोना और बच्चे उत्पन्न करना यही उसका कार्य हैं। मनुष्य जन्म किसलिए मिला हैं और इसे प्राप्त कर कौन -से उत्तम कर्म करने चाहिये जिससे इस लोक -परलोक दोनों में सुख से रह सकें इसका उसे ज्ञान ही नहीं होता। ऐसे व्यक्ति को चाहिये कि वह वेदज्ञ विद्वानों के पास जाकर ज्ञान कि प्राप्ति करे। यदि पड़ना – लिखना सम्भव नहीं हो तो अच्छी बातों को सुनकर तदनुसार आचरण द्वारा अपने जीवन को सफल बनाये अन्यथा यह स्वर्णिम अवसर हाथ से निकल जायेगा।