Categories

Posts

अयंत इध्म आत्मा एवं उद्बुध्यस्वाग्ने- यज्ञ का आध्यात्मिक पक्ष

यज्ञ एक बहुत विशाल एवं विस्तृत अर्थ वाला शब्द हैं मुझे जब कभी भी किसी आर्य समाज, संस्था या सभा में आमंत्रित किया जाता है तो प्रायः यह अपेक्षा की जाती है कि मैं यज्ञ पर ही कुछ चर्चा करूं, अधिकतर मैं अग्निहोत्र के वैज्ञानिक पक्ष पर चर्चा करता हूं। किन्तु आज की चर्चा में यज्ञ के विशाल, वृहदअर्थ पर होगी। उस यज्ञ की जिसे स्वामी दयानंद ने स्वयं आरम्भ किया था और जिसमें आर्य समाज के अनेक दीवानों ने, विद्वानों ने, तपस्वियों ने, यतियों ने, युवकों ने युवतियों ने, और अनेक साधारण से लगने वाले किन्तु महान तपस्वी आर्य समाज के सदस्यों ने अपने जीवन की, यौवन की, अपनी सुख-सुविधाओं की, अपने सर्वस्व की आहूति देकर इस यज्ञ की अग्नि को प्रज्ज्वलित किया है व इसे बढ़ाया है। अपनी आत्मा को, अपने शरीर को इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में आहुति के रूप में अथवा समिधा के रूप में समर्पित कर दिया है। आज उनकी दी हुई आहुति हमें झंझोर रही है ओर कह रही है कि ए दयानन्द के अनुयायी उठ, उठकर यज्ञ की प्रदीप्त अग्नि को देख, क्या सन्देश दे रही है यह अग्नि की लौ? यह समिधा स्वयं को जला कर भी जगती को, प्राणिमात्र को, अंधेरे में भटके हुए पथभ्रष्टों को मार्ग दिखाती है। अपनी लौ से अनेक अग्नियां प्रज्ज्वलित करती है। इस लौ का सन्देश है ‘ए मानव यदि तू अमर होना चाहता है तो स्वयं को जला कर जगती के लिए कुछ कर जा।’

दयानन्द जी ने स्वयं अपने जीवन की आहुति इस यज्ञ में दे दी। दयानन्द जी के कितने ही अनुयायियों ने इसी प्रकार अपने जीवन को समिधा की तरह जलाकर ‘अयंत इध्म आत्मा’ को सार्थक किया, कितनो ने ही ‘उदबुध्यस्वाग्ने’ : हे अग्नि तू प्रगट हो, प्रज्ज्वलि हो- कह कर इस यज्ञ की अग्नि को बढ़ाया।

आइये आज अपने इस स्वर्णिम इतिहास के कुछ पन्नों का अवलोकन करे कि किस-किस ने अपने आपको समिधा अथवा आहुति के रूप में प्रस्तुत करके इस यज्ञ की अग्नि को प्रज्ज्वलित किया है।

1. गुरुकुल कुरुक्षेत्र का उत्सव चल रहा था। बहुत बड़ा प्रांगण था। एक नहीं अनेक विद्वान उस उत्सव पर उपस्थित थे, एक दिन पंडित शांति प्रकाश जी शास्त्रार्थ महारथी प्रातः उठ कर सैर को जाने के लिए तैयार हुएतो देखा बाहर आंगन में एक वृद्ध व्यक्ति टूटी हुई खाट पर सोया हुआ है। एक चारपाई जिसमें बाण भी पूरा नहीं था, ढीली पड़ी हुई थी। पास आकर देखा तो वह व्यक्ति उस समय के प्रकांड विद्वान् पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय थे। वह सार्वदेशिक सभा क उप प्रधान थे। रात देर से पहुंचे थे। सोचा क्यों किसी अधिकारी को रात को तंग करूं। बाहर जो टूटी हुई चारपाई पड़ी थी उसी पर सो गए। यह वह गंगाप्रसाद जी उपाध्याय थे जिन्होंने पूरी दुनिया में आर्य समाज की ज्योति जलाई। सत्यार्थ का इंग्लिश में अनुवाद किया। जिनके सुपुत्र डॉ. स्वामी सत्य प्रकाश हुए, जो इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री के प्रोफेसर थे और जिन्हों ने ‘‘केमिस्ट्री ऑफ अग्निहोत्र’’ नाम की पुस्तक लगभग 1837 में लिखी थी। यह प्रथम पुस्तक थी जिसमें अग्निहोत्र की वैज्ञानिकता पर आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से विचार किया गया था। मेरी अपनी पुस्तक ‘‘द साइंस ऑफ़ अग्निहोत्र’’ का आधर भी यही पुस्तक थी। यह था उस समय के विद्वानों का त्याग। सुख सुविधा की इच्छा तक नहीं थी। केवल एक ही लक्ष्य था, दयानन्द के मिशन को आगे बढ़ाना। इसे कहते हैं ‘अयंत इध्म आत्मा’ ‘‘यज्ञ में अपनी आहुति देनी। दयानन्द द्वारा आरम्भ किये हुए यज्ञ में अपनी आहुति देनी।’’ यह यज्ञ का क्रियात्मक उदाहरण है। अपने जीवन के उदाहरणों से पाठ पढ़ना। टीचिंग बाई सेल्फ मगंउचसम। इसकी तुलना करें- आज के कुछ उपदेशकों, वक्ताओं, नेताओं से जो आने से पहले ही तय कर लेते हैं कहां ठहराओगे कौन से क्लास का एयर टिकेट आदि।

2. एक अन्य उदाहरण आर्य उपदेशकों के तपस्वी जीवन का।

आर्य समाज नयाबांस दिल्ली की आधारशिला भाई परमानन्द ने रखी थी। यह वह भाई परमानन्द थे जिन्हें अंग्रेजों ने आर्य समाज के माध्यम से जन-जन को देश प्रेम का पाठ पढ़ाने के कारण काले पानी की सजा दी थी। आर्य समाज नयाबांस के सदस्य भाई जी के लिए बहुत श्रद्धा का भाव रखते थे, एक बार इसी आर्य समाज के कार्यक्रम पर भाई परमानन्द जी आये। रेलवे स्टेशन पर श्री पन्ना लाल जी उन्हें लेने गए। पन्ना लाल जी, भाई जी के लिए तांगा ले आये। स्टेशन से आय्र समाज तक किराया एक आना लगता था। आर्य समाज की स्थिति आर्थिक रूप से अच्छी नहीं थी। यह बात भाई जी को मालूम थी। भाई जी ने कहा पन्ना लाल व्यर्थ तांगा क्यों ले आये। आर्य समाजों को कितने समाज सेवा के कार्य करने हैं। कितने पथभ्रष्टों को राह दिखानी है। यह पैसा उन कार्यों पर लगाया करो। हम तो पैदल ही चलेंगे। इससे पहले कि पन्ना लाल जी कुछ कहते, भाई जी अपना सामान स्वयं उठाकर चलने लग पडत्रे। बंधुओं इसे कहते हैं अयंत इध्म आत्मा, यज्ञ में स्वयं की आहुति। आर्य समाज के कार्य के लिए अपने सुख सुविधा का त्याग। सेवा कार्यों के लिए इकट्ठा किया गया दान मेरे तांगा के किराये पर खर्च हो? यह एक सच्चे याज्ञिक को कैसे स्वीकार हो सकता था?

3. एक अन्य उदाहरण : आर्य समाज के एक धुरंधर शास्त्रार्थ महारथी स्वामी रूद्रानंद जी हुए हैं। वह एक बार एक शास्त्रार्थ हेतु ‘‘टोबा टिबे सिंह’’ (पश्चिम पंजाब में एक नगर का नाम) गए। अपने साथ पुस्तकों का बड़ा गट्ठर लेकर स्टेशन पर उतरें आवाज़ लगाईः कुली….कुली… छोटा स्टेशन था। कोई कुली नहीं था, हताश से खड़े थे। इतने में एक साधारण से कपड़े पहन हुए व्यक्ति उनके पास आया और बोला कहां जाना है आपको। मैं ले चलता हूं आपका गट्ठर। स्वामी जी बोले मुझे आर्य समाज मंदिर तक जाना है। यह गठरी ले चलो। उस व्यक्ति ने गठरी उठाई ओर उनके साथ चल दिया। आय्र समाज पहुंचे तो वहां के अधिकारी जहां स्वामी जी को आदर सत्कार से नमस्ते कहने लगे, उस साधारण व्यक्ति को भी नमस्ते महात्मा जी-नमस्ते महात्मा जी कहने लगे। उनका भी स्वागत करने लगे। स्वामी जी चकित थे। कौन है यह महात्मा?

जानते हैं बंधुओ कौन था वह कुली महात्मा? वह थे आर्य जगत का प्रसिद्ध साधक व विद्वान महात्मा प्रभु आश्रित जी। रोहतक के महात्मा प्रभु आश्रित जी के आश्रम से हम सब परिचित हैं। ऐसे त्यागी तपस्वी थे हमारे विद्वान, हमारे प्रचारक, हमारे उपदेशक, यह था उनका यज्ञ यह थी उनकी आहुति आर्य समाज रूपी यज्ञ में। ‘‘अयंत इध्म आत्मा’’ एवं ‘‘उद्बुध्यस्वाग्ने’’।

4. एक और उदाहरण लीजयें एक आर्य सम्मेलन में एक आर्य विद्वान कुर्सी पर बैठे थे। एक छोआ सा बालक उनके पास आया और बोला पंडित जी नमस्ते। उस समय नमस्ते आर्यत्व की पहचान थी। उस विद्वान ने सोचा यह छोटा सा बालक है और मुझे नमस्ते कर रहा है। कितना संस्कारयुक्त है, इतनी छोटी सी आयु में। उन्हांने उसे एक पैसा इनाम में दे दिया। बालक छोटा था। प्रसन्न होकर चला गया। कुछ ही समय में वह वापस आया और पैसा पंडित जी को वापस कर गया। पंडित जी ने पूछा, क्या बात है? मैंने इतने छोटे से बालक के मुख से नमस्ते शब्द सुनकर प्रसन्न होकर इस बालक को एक पैसा इनाम में दिया और यह उसे वापस कर गया। वहां उपस्थित लोगों ने कहा पंडित जी यह बहाल सिंह का बालक है। पैसा नहीं लेगा। बहाल सिंह का नाम इस प्रकार लिया गया कि पंडित जी समझ गए कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। पंडित जी ने पूछा, भाई यह बहाल सिंह कौन हैं? उन्हें बताया गया कि कोई बड़ा धनवान अथवा शिक्षित विद्वान नहीं हैं अपितु पुलिस विभाग में एक चौकीदार है किन्तु पुलिस में रह कर भी अपनी इमानदारी और कर्त्तव्य निष्ठा के लिए विख्यात है। ऐसे ह संस्कार उसने अपनी संतान को भी दिए हैं।

जानते हैं आप यह बहाल सिंह कौन था? इसने पुलिस विभाग मे केवल चौकीदार के पद पर काम करते हुए बिजनौर क्षेत्र में पांच आर्य समाज स्थापित किये थे। इसी बहाल सिंह के बारे में कहा जाता है कि रात को पहरा देते हुए कहता था ‘‘पांच हजार साल से सोने वालो जागो। ये थे उस समय के आर्य, जिन्होंने अपने जीवन की आहुति दी थी इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में।

5. हम आजकल के आर्य समाज के सदस्यों में कितने होंगे ऐसे-ऐसे अधिकारी या सरकारी कर्मचारी जो पूरी इमानदारी से सरकारी सेवा करते हों जिनको रिश्वत लेने का मौका नहीं मिलता। उनकी बात छोड़ दें, तो जो ऐसे पदों पर रहे हैं जहां रिश्वत् का ही बोलबाला रहता है। उनमें से कितने अपने को इस वित्तेष्णा से बचा पाते हैं। बहुत कठिन काय्र है। कड़ी तपस्या है पूरी इमानदारी से काम करना। मैं ऐसा नहीं कहना चाहता कि सभी उच्च पदों पर बैठे आर्य परिवारों के अधिकारी रिश्वतखोर हैं। किन्तु है यह अत्यंत कठिन तपस्या। जो ऐसे हैं उन्हें अपनी इमानदारी की कीमत भी चुकानी पड़ती है। मैं व्यक्तिगत तौर पर एक एसे आर्य तपस्वी को जानता हूं जिन्हें इमानदारी के कारण अपनी जान की आहुति देनी पड़ी थी। एक डत्क् के इंजीनियर थे। अपने आपको रिश्वत् की समस्या से दूर रखने के लिए उन्होंने सदा अपनी पोस्टिंग ऐसे स्थान पर करवाई जहां ठेकेदारों आदि से वास्ता नहीं पड़ता था। किन्तु सदा ऐसा चल नहीं सकता। आखिर एक बार असम के किसी इंजीनियरिंग स्टेशन पर पोस्टिंग हो गई। जहां ठेकेदारों के झूठे बिल प्रस्तुत होते थे। उस व्यक्ति ने अपनी आत्मा की आवाज सुनी और ऐसा करने से इन्कार कर दिया। अनेक प्रलोभन व धमकियां दी गईं। किन्तु दयानन्द का वह सिपाही टस से मस नहीं हुआ। अंत में ठेकेदारों और ऊपर के अधिकारियों की मिलीभगत से उसे 1988 के जून मास के अंतिम दिन अपने कार्यालय की छत के पंखे से लटका पाया गया। मैं इसका प्रत्यक्ष दर्शी हूं। जानते हैं कौन थे वह? और कोई नहीं दिल्ली सभा के वर्तमान महामंत्री श्री विनय आर्य जी के पिता श्री जय प्रकाश जी सिंहल (अभी हाल ही में 30 जन को उनकी पुण्यतिथि थी)। ऐसे तपस्वी पिता की संतान है विनय जी। उस पवित्र वातावरण में पालन पोषण का ही परिणाम है कि आज ऐसा युवक घर गृहस्थी के होते हुए भी दिन रात आर्य समाज के कार्यों में लगा रहता है।

6. दिल्ली सभा के महामंत्री की बात आयी है तो एक अन्य उदाहरण सभा के अधिकारियों का। महात्मा नारायण स्वामी जी सार्वदेशिक सभा के प्रधान थे। यह वही महात्मा नारायण स्वामी थे, जिन्होंने हरिद्वार ज्वालापुर में वानप्रस्थ आश्रम की स्थापना की थी। तब की सभाओं के प्रधान व सभी अन्तरंग सदस्य विद्वान, तपस्वी, त्यागी एवं सच्चे ऋषि भक्त होते थे। सार्वदेशिक सभा की एक बैठक में अपने समय के उच्च कोटि के विद्वान पंडित चमूपति जी भी उपस्थित थे। चर्चा के दौरान पंडित चमूपति जी कुछ कहने को उठे, महात्मा नारायण स्वामी जी ने आवेश में आकर कह दिया बैठ जाओ तुम्हें कुछ नहीं पता है। पंडित चमूपति बैठ गए।

बैठक समाप्त हुई। महात्मा नारायण स्वामी जी एक उच्च कोटि के साधक थे। उन्हें मन में विचार आया यह मैंने क्या कह दिया। आचार्य चमूपति जी जैसे विद्वान को कह दिया तुम्हें कुछ नहीं पता है। महात्मा जी स्वयं उठकर पंडित चमूपति जी के पास गए और बड़ी विनम्रता से बोले पंडित जी मुझ से बड़ी भूल हो गई। आप जैसे विद्वान को मैंने कह दिया तुम्हें कुछ नहीं पता है। मैं आवेश में था। सभा संचालन में कभी-कभी ऐसा हो जाता है। आप मुझे क्षमा करें।

पंडित चमूपति जी भी कम विनम्र नहीं थे। बोले ऐसी कोई बात नहीं। आप ज्ञान, आयु, तप और त्याग में मुझ से कहीं बड़े हैं। आप सभा के प्रधान भी है। सभा का ठीक संचालन करना आपका कर्त्तव्य एवं अधिकार भी है। आप क्यों मुझ से क्षमा मांग रहे हैं।

पाठक वृन्द! आप देखिये कैसी थी दोनों विद्वानों की विनम्रता व बड़प्पन, अपने अहंकार की आहुति दे दी थी दोनों आचार्यों ने इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में, इसे कहते हैं ‘अयंत इध्म आत्मा’, इसे कहते हैं उद्बुध्यसवाग्ने। यह है यज्ञ का वास्तविक स्वरूप। हमारे उस समय के विद्वानों ने व सभा के अधिकारिओं ने अपने जीवन से एवं अपने आचरण से हमें शिक्षा दी है। शिक्षा वही है जो अपने आचरण से दी जाये, शेष तो केवल कोरी पढ़ाई है

आज की सभाओं की जो अवस्था है, सभाओं की ही क्यों, अधिकांश छोटी बड़ी आर्य समाजों के अधिकारियों के आपस के कैसे सम्बन्ध हैं हम से छिपे नहीं हैं। इन सभाओं में क्या हम यज्ञ कर रहे हैं या अपने पूर्वजों के रचाए हुए या की अग्नि को बुझाने का कार्य कर रहे हैं। आज आवश्यकता है आत्म मंथन की, आत्मचिंतन की। हम यज्ञ की बात तो करते हैं किन्तु यज्ञ मय जीवन से कोसों दूर हैं। जीवन हमारा याज्ञिक न होकर यज्ञ विध्वंसक सा है।

यज्ञ की रक्षा में अनेक आर्यों ने अपने सर्वस्व की आहुति दी, अपने अहम की, अहंकार की, अपने शारीरिक सुख की, इच्छाओं की आहुति दी। यह यज्ञ का आध्यात्मिक रूप है।

यज्ञ पर चर्चा बड़ी लम्बी है, विस्तृत है। यज्ञ शब्द ही बड़ा विशाल अर्थ वाला है। आइये आज हम एक अन्य यज्ञ करं आज आत्म मंथन का यज्ञ करें। संकल्प लें कि दयानन्द द्वारा आरम्भ किये हुए इस आर्य समाज रूपी यज्ञ में अपनी भी कुछ आहुति दें। अयंत इध्म आत्मा एवं उद्बुध्यस्वाग्ने को साकार करें।

-डॉ. ईश नारंग

(आभार : इस लेख को लिखने में प्रोफेसर राजेन्द्र जिज्ञासु जी की पुस्तक तडव वाले-तड़पाती जिनकी कहानी से कुछ उद्धरण लिए गए हैं।)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *