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अख़बार का पिछला पन्ना

सुबह जब अख़बार उठाया तो उसके पहले पेज की प्रमुख खबर थी केजरीवाल का बजट ध्वनि मत से पारित| मतलब बिना किसी शोर शराबे के बजट पास हुआ सबसे बड़ी बात ये कि मीडिया को यह खामोशी तो सुनाई दी किन्तु नक्सलियों ने केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के वाहन को बारूदी सुरंग विस्फोट में उड़ा दिया है| इस घटना में सीआरपीएफ के एक अधिकारी समेत सात पुलिसकर्मी शहीद हो गए, इस धमाके की आवाज़ मीडिया को सुनाई नहीं दी और विडम्बना देखिये देश की रक्षा करते हुए शहीद सात जवान अख़बार के आखिरी पन्ने पर अपनी जगह बा मुश्किल बना पाए| इस घटना में सीआरपीएफ के सहायक उपनिरीक्षक डी बिजय राज, हवलदार प्रदीप तिर्की, आरक्षक रूप नारायण दास, आरक्षक देवेंद्र चौरसिया, आरक्षक रंजन दास, आरक्षक वाहन चालक नाना उदय सिंह और आरक्षक जे राजेंद्रन शहीद हो गए| किन्तु मीडिया और राजनेताओं के लिए इससे जरूरी खबर यह थी कि भारत माता की जय ना बोलने पर एक मुस्लिम को आखिर क्यों पीटा गया!!
ऐसा नहीं कि नक्सलवादियों का सेना के जवानों पर यह पहला हमला है बल्कि इससे पहले भी सेकड़ों हमले हो चुके है राज्य सरकार और केंद्र सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण कहो या नक्सलवाद में भी राजनीति की घुसपैठ के कारण अभी तक इतने नक्सलवादियों ने आत्मसमर्पण नहीं किया जितना उनसे निपटने में कहीं अधिक जवान अपने प्राण गवां चुके है| आज नक्सलवाद का नाम आते ही या तो सेना के जवानों का खून खोल उठता है या पिछले कुछ सालों में नक्सलवाद का चेहरा इतना बर्बर हो चुका है जिसे देखकर उनकी रूह कांप जाती है| आज नक्सली सत्ता की बन्दूक से गोली निकलती है के सिद्धांत पर चल रहे है| जिनके आगे सरकार ने जवानों को गाजर मुली की तरह कटने के लिए छोड़ दिया है| प. बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव से शुरू हुआ नक्सलवाद अब उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड और कर्नाटक में भी पैर पसार चुका है। दिन पर दिन नक्सलवाद का लाल गलियारा भारत में फैलता जा रहा है| ऐसा नहीं है नक्सल का शिकार सिर्फ जवान हुए है बल्कि मई 2013 में नक्सलियों द्वारा घात लगाकर किए गए नक्सलवादी हमले में कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा सहित 29 नेताओं की मौत हो गई थी, नक्सलवादियों ने उस हमले को सलवा जुडूम का बदला करार दिया था। चश्मदीदों का कहना था कि हमले में एक हजार से ज्यादा नक्सली शामिल थे। आखिर कहाँ से जमा से हुए एक हजार नक्सली? किसी अन्य देश से या फिर ये लाल केंसर भारत के अन्दर ही पल रहा है| क्या इसके लिए राजनेता और क्षेत्रिय स्तर की राजनीति दोषी नहीं है? क्यों कभी वामपंथ के ठेकेदार इसकी आलोचना निंदा नहीं करते देखे जाते? दंतेवाडा हमले में मारे गये 75 जवानों की शहादत के बाद जेनेयु में जश्न मनाया गया था| हो सकता है इस हमले के बाद भी कन्हैया कुमार व् उसके साथी जश्न मनाये?
कश्मीर हो नक्सल प्रभावित क्षेत्र जवानों की इस प्रकार हुई हत्या के बाद जब भी विपक्ष सत्ता से सवाल करता है तो सत्ता पक्ष उसे अतीत में सेना पर हुए हमलों का उदहारण देकर पल्ला झाड़ लेते है| क्या इसका मतलब यह है कड़ी कारवाही के बदले कि सेना को राजनीति की भेंट चढ़ना पड़ता रहेगा? वैसे स्वतंत्र भारत में सशस्त्र क्रांति का इतिहास खोलकर देखे तो हथियारों से पहली लड़ाई 1948 में तेलगाना संघर्ष आरम्भ हुई थी उस काल में तेलगाना के गाँवो के किसानों ने हथियारों के साथ लड़ाई का झंडा उठाया था इसके बाद इनके अन्दर विखराव के बीज पड़े और इनमें से कुछ लोगों ने मार्क्स का सिद्धांत बता मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया इनका मानना रहा है जब तक सही समय ना आये सत्ता का स्वाद चखकर ही कुछ हासिल किया जाये और इन गरीबों को सत्ता से लड़ाते रहे| दूसरा कुछ महीनों पहले संघ से जुड़े इंद्रेश कुमार ने आरोप लगाया और कहा कि चर्च और इसाई समुदाय देश में नक्सलवाद को बढावा देने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। उन्होंने माओवादी हमलों को लेकर सवाल उठाते हुए कहा कि इनके हमले ईसाई संस्थाओं पर क्यों नहीं होते? आज छत्तीसगढ उच्च स्तर पर नक्सलवाद से जूझ रहा है, लेकिन यहां नक्सलियों ने कभी चर्च या पादरी को निशाना नहीं बनाया, क्योंकि वह उनकी मदद करते हैं या फिर इसके पीछे कोई और वजह है?
नक्सलवादी नेताओं का हमेशा आरोप रहा है कि भारत में भूमि सुधार की रफ्तार बहुत सुस्त है। उन्होंने आँकड़े देकर बताया कि चीन में 45 प्रतिशत जमीनें छोटे किसानों में बाँटी गई हैं तो जापान में 33 प्रतिशत, लेकिन भारत में आजादी के बाद से तो केवल 2 प्रतिशत ही जमीन का आवंटन हुआ है। जबकि यह हथियार उठाने का बस बहाना मात्र है सत्ता हथियाना एक मात्र लक्ष्य दिखाई देता है| अब तक सरकार की ढुलमुल नीतियों व केंद्र-राज्य में सामंजस्य न होने का फायदा उठाकर बीते सालों में नक्सलवादियों ने पुलिस और विशेष दल के जवानों पर घात लगाकर किए जाने वाले हमले एकाएक बढ़ा दिए हैं। आज नक्सली नेपाल से लेकर आंध्रप्रदेश तक हिंसा के बल अपनी जड़े मजबूत करते जा रहे है| हमारी सरकारी नीति पाकिस्तान प्रायोजित आंतक को लेकर पुरे विश्व में रोना रो लेती है किन्तु जब घर के आतंक की बात आती है तो सत्ता सुख बगले झाँकने को विवश कर देता है, सोचो आखिर इस नरम रवैये की कीमत सेना के जवान कब तक मरकर चुकाते रहेंगे?

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