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आतंक का मूल उद्देश्य क्या है?

बांग्लादेश मूल की निर्वासित लेखिका के इस बयान को लेकर बांग्लादेश समेत कई देशों में नाराजगी है वो कहती है कि “ज़्यादातर ग़ैर-मुस्लिम अब मुसलमानों पर यकीन नहीं करते हैं| उन्हें डर है कि आप मुसलमान हैं, तो आप एक आतंकवादी हो सकते हैं|” शायद उन्होंने यह बयान बांग्लादेश की वर्तमान स्थिति को भांपकर दिया होगा| आज बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिन्दू व अन्य समुदाय पर हमले जारी है और ये सिलसिला पिछले तीन वर्षों से चल रहा है| कट्टरपंथी कहीं बौद्ध भिक्षु तो कहीं ईसाई समुदाय के लोगों को निशाना बन रहे हैं| बांग्लादेश में इस समय बहुत सारे कट्टरवादी संगठन पनप चुके हैं| जिन्होंने हिंसा और हत्याओं की अलग-अलग घटनाओं की कथित रूप ज़िम्मेदारी भी ली है| इसी वर्ष जून महीने में चार हिंदुओं की हत्या हुई थी जिसमें से दो मंदिरों के रख रखाव से जुड़े हुए थे| अवामी लीग सरकार ने इस्लामिक स्टेट या अल-क़ायदा से जुड़े गुटों की इन हत्याओं की ज़िम्मेदारी लेने पर तरजीह कम देते हुए इसे विपक्षी पार्टियों या स्थानीय इस्लामिक गुटों को देश में अस्थिरता फैलाने का ज़िम्मेदार ठहराया है| जो भी हो लेकिन तार कहीं ना कहीं धार्मिक कट्टरता से ही जुड़ते दिखाई दे रहे है| लेख लिखने से पहले एक पीड़ा जाहिर करनी चाहूँगा आज स्वतंत्र लेखन के अन्दर कई समस्या खड़ी हो गयी है| यदि लेख आतंक के खिलाफ लिखो तो उसे इस्लाम पर हमला समझा जाता है| जातिवाद पर लिखों तो उसमे तथाकथित जातिवादी नेता भूमिका का संज्ञान मांगते दिखाई देते है| देश के पक्ष में लिखे तो सरकार का पक्ष समझा जाता है| जबकि आर्य समाज का लेखन और भूमिका स्वतंत्रत ही जन्मी स्वतंत्र के साथ पली और आगे बढ़ रही है| यदि अब मुद्दे की बात की जाये तो बांग्लादेश की करीब 16 करोड़ आबादी में से अल्पसंख्यकों की तादाद डेढ़ करोड़ लगभग है| जिनमे बोद्ध, सिख, इसाई और हिन्दू धर्म के लोग है| 1947 में जब ये ईस्ट पकिस्तान था तब यहाँ 27 फ़ीसदी अल्पसंख्यक थे जो अब घट कर नौ फ़ीसदी के आसपास पहुँच गए हैं| जिस तरह से ढूंढ़-ढूंढ़ कर हिंदू पुजारियों या बौद्ध गुरुओं को मारा जा रहा है उससे भय बढ़ता जा रहा है|
बांग्लादेश में अल्पसंख्यक समुदाय परिषद के महासचिव और मानवाधिकार कार्यकर्ता राना दासगुप्ता को लगता है कि “सरकार बढ़ती हिंसा से निपटने के कदम तो उठा रही है लेकिन ज़्यादा की ज़रुरत है|” यहाँ हिंदुओं के गले पर तलवार है| डरे हुए पुजारी पहनावा बदल रहे हैं और धोती पहनना छोड़ कर पैंट-शर्ट में आ रहे हैं| हिंदू महिलाओं ने हाथों से चूड़ियाँ त्यागनी शुरू कर दी हैं| इन्हें सरकार से भरोसे से ज़्यादा सुरक्षा की ज़रूरत है|” 21 वीं सदी में जहाँ पूरा विश्व अपनी तेज गति से आगे बढ़ रहा है तो वहीं चरमपंथ के आतंक से भी डरा सहमा दिखाई दे रहा है| विश्व समुदाय जितना विज्ञान में सम्भावनाओं के द्वार खोज रहा है, उतना ही चरमपंथी आतंक से भय फ़ैलाने के बहाने ढूंढ रहे है| हमला करने से पहले आतंकी हमेशा संदिध होता है किन्तु हमले के बाद वही आतंकी किसी इस्लामिक चरमपंथी गुट का जिम्मेदार सदस्य माना जाता है| इसके बाद वो समूह ही घटना जिम्मेदारी लेकर अपना इस्लामिक सन्देश देता सुनाई पड़ता है| लेकिन इसके बाद भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का एक ही बयान आता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता| हो सकता है यह एक अंतर्राष्ट्रीय जुमला हो? या एक मानव व्यंग जो एक धर्म दुसरे के साथ कर रहा है| कई रोज पहले टीवी सीरियल कलाकार सना खान नाम की एक मुस्लिम अभिनेत्री जो एक सीरियल कृष्णदासी में अभिनय कर रही उसे सिंदूर लगाने पर कुछ कट्टरपंथी युवकों ने लताड़ लगाई है कि सिंदूर लगाना इस्लाम में हराम है| सर्वविदित है कश्मीर घाटी के अन्दर कई रोज पहले फरमान सुनाया गया था कि लड़कियां स्कूटी ना चलाये तथा उन्हें जिन्दा जला देने की बात कही गयी थी| दरअसल यही सोच हिंसा का पहला कदम है| यानि के धार्मिक तथ्यों के आधार पर अपनी मनमानी करना चाहे उसके लिए तरीका कोई भी क्यों ना अपनाना पड़े|
कुछ दिन पहले तुफैल अहमद जो कि मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट, वाशिंगटन डीसी में साउथ एशिया स्टडीज़ प्रोजेक्ट के डायरेक्टर हैं वो लिखते है कि आतंक की पहचान स्पष्ट है! वो कारण गिनाते हुए लिखते है कि पूर्वोतर राज्यों में नक्सली हिंसा जो सिर्फ अपनी मांग लेकर खड़े है उनका धर्म से कोई सरोकार नहीं है वो ना हिन्दू धर्म की महानता को थोपते ना इस्लाम के कानून को, तो हम उस आतंक को धर्म से नहीं जोड़ सकते किन्तु बांग्लादेश, कश्मीर से लेकर सीरिया तक के आतंक की धार्मिक पहचान को हम नकार नहीं सकते क्योंकि आतंकी अपने धार्मिक ग्रन्थ और इस्लामिक कानून हवाला देकर हत्या कर रहे है|
वो आगे पूछते है कि कृपया मुसलमान मेरी सबसे बड़ी चिंता को समझें! क्या मुसलमान युवा पीढ़ी अपने माता-पिता और इस्लामी मौलवियों से विरासत में मिले विचारों का त्याग कर सकती है? सौभाग्य से, इतिहास से हमें आशावादी सबक मिलते हैं- युवा पीढ़ी ने इटली और जर्मनी में नाजीवाद और फासीवाद को लेकर अपने माता-पिता की मान्यताओं को त्याग दिया था| भारत में भी, हिंदू युवाओं ने जाति और सती प्रथा का त्याग किया| ईसाई धर्म और यहूदीवाद ने आंतरिक संघर्ष झेले, बाइबल और टोरा आम लोगों की जिंदगी से हट गया| चूंकि मध्य पूर्वी धर्मों में इस्लाम सबसे कम उम्र का है, तो उम्मीद की जा सकती है. कुरान की भूमिका मस्जिदों तक सीमित होनी चाहिए| हमें शांतिप्रिय इस्लाम का अध्ययन करना चाहिए, वो मुस्लिम माता- पिता को तर्क के साथ पूछते है, अगर आप LKG, से कुरान पढ़ा सकते हैं, तो कक्षा 1 से गणित क्यों नहीं पढ़ा सकते? यह तर्क शिक्षा के अधिकार के कानून के दायरे में ही आना चाहिए? इस्लाम महान है यह शिक्षा देने वाले मौलवी और माता पिता साथ में बच्चों को यह भी सिखा सकते है कि संसार की सारी संस्कृति और पूरी मानव सभ्यता महान है इसे बचाने की हमारी जिम्मेदारी भी है और हमें इसमें घुल-मिलकर भी रहना है| आज बांग्लादेश सरकार भले ही इसे छोटे मोटे जिहादी तत्व समझे किन्तु सचाई यह कि सीधे भोले बंगालियों के नस में कट्टरता का जहर मिला दिया गया यदि समय रहते इसका इलाज बांग्लादेश सरकार ने नहीं किया तो इस लोकतान्त्रिक राष्ट का सीरिया, यमन, इराक अफगानिस्तान, पाकिस्तान, आदि बनने में देर नहीं लगेगी जो कट्टरवादी लोग आज इस्लाम को मानव सभ्यता का जरूरी अंग समझकर नफरत और दहशत फैला रहे है उन्हें समझना होगा धर्म से जरूरी मानवता है क्योकि बिना मानव सभ्यता के भी धर्म का कोई मोल नहीं होगा!
आतंकवाद धर्म पर आधारित नही होता किन्तु इस डर और आतंक को फैलाने वाले खुद को सही साबित करने के लिए इसे धर्म से, महजब से जोड़ देते है और आश्चर्य की बात है कि उन्हें इसका लाभ भी मिलता है। लोगो का समर्थन भी मिल जाता है। और वो इस आतंकवाद को अपने धर्म और महजब के लिए अच्छा मान लेते है कि चलो हमारा धर्म बच जायेगा|

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