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आरक्षण, व्यवस्था है या अधिकार?

हमारे देश में प्रतिवर्ष लाखो करोड़ों की सम्पत्ति तो मात्र इस वजह आग के हवाले कर दी जाती है कि सरकार द्वारा हमारी मांगे मान ली जाये| पिछले वर्ष गुजरात के पाटीदार आन्दोलन में लगभग दो सौ करोड़ की संपत्ति जलने की राख अभी ठंडी ही हुई थी कि अब हरियाणा सुलग उठा| जिस तरह देश में आरक्षण का अधिकार पाने को हर रोज राजनीति का बिगुल बजता है उसे देखकर लगता आने वाले दिनों में आरक्षण बजाय एक व्यवस्था के एक अधिकार बन जायेगा| क्या वर्तमान आरक्षण की मांग को देखते हुए मूलरूप में सविंधान के निर्माताओ के द्वारा आरक्षण की आवश्यकता और प्रासंगिकता पर विचार किया जाए,
भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही असमानता रही है और इस असमानता के कारण कुछ वर्गों को नुकसान उठाना पड़ा है. लंबे समय तक असमानता का दंश झेलते और समाज में हासिए पर धकेल दिए गए वर्गों के बीच उम्मीद की किरण उस समय जगी, जब अंग्रेजी शासन का खात्मा हुआ और लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ. राष्ट्र को चलाने के लिए संविधान का निर्माण किया गया और संविधान निर्माताओं को यह महसूस हुआ कि भारत में असमानता का स्तर इतना अधिक है| कि इसे दूर करने के लिए कुछ वर्गों को विशेष सुविधाएं दी जानी चाहिए, जिसके कारण भारतीय संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष उपबंध करने की बात कही गई| चूंकि भारत में असमानता का आधार जाति थी, इसके कारण सबसे पहले अनुसूचित जातियों(दलितों) तथा अनुसूचित जनजातियों(आदिवासियों) को आरक्षण दिया गया और बाद में पिछड़े वर्ग का निर्धारण कर उन्हें भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया सीधे शब्दों में कहें तो यह व्यवस्था उन लोगों के लिए की गयी थी| जिन्हें समाज में निर्बल, अछूत, और सामाजिक द्रष्टि से हेय समझा जाता था|
आरक्षण के संदर्भ में यह बात शुरू से ही उठती रही है कि आखिर आरक्षण की आवश्यकता क्या है| क्या पिछड़े लोगों को सुविधाएं देकर उन्हें मुख्य धारा में नहीं लाया जा सकता है| यह सवाल जायज हो सकता है, लेकिन ऐसे सवाल करने वालों को पहले यह जानना होगा कि आरक्षण दिया क्यों गया है! दरअसल आरक्षण दिए जाने के पीछे न्याय का सिद्धांत काम करता है, यानी राजा का कर्तव्य है कि वह सभी लोगों के साथ न्याय करे, न्याय को दो अर्थों में देखा जा सकता है| पहला कानून के स्तर पर और दूसरा समाज के स्तर पर, कानून के स्तर पर न्याय दिलाने के लिए न्यायपालिका का गठन किया गया, जिसमें खामियां हो सकती है, लेकिन उन खामियों को सुधारा जा सकता है, जिससे सभी को मौका न्याय मिल सके| दूसरा समाज के स्तर पर भारत में सदियों से सामाजिक अन्याय होता रहा है और कुछ जगह तो अभी भी जारी है. भारत में सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा कारण जातिय व्यवस्था रही और इसके कारण सामाजिक प्रतिष्ठा कर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जाति के आधार पर मिली. जाति के आधार पर कुछ वर्गों ने आर्थिक संसाधनों पर कब्जा किया और कुछ को आर्थिक संसाधनो से वंचित रखा गया| आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण योग्यता प्रभावित हुई और योग्यता के अभाव में पिछड़ापन आया और असमानता कम होने के बजाय बढ़ता ही गया| इसी असमानता को कम करने के लिए विकल्प की तलाश की गई, इस असानता को कम करने के लिए तीन विकल्प मौजूद थे, पहला विकल्प सुविधाओं का था यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि की सुविधाएं उन वर्गों को दी जाएं जिसे अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है
जो लोग आज आरक्षण को ख़ारिज करते हैं, वो तो हमेशा से सामाजिक न्याय के सवाल को भी ख़ारिज करते रहे हैं, ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है| उदहारण के तौर पर अमरीकी समाज ने जबतक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तब तक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं| अगर पिछले 50 साल के सामाजिक भेदभाव को देखे तो एक बात ज़रूर देखे कि आरक्षण की व्यवस्था एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा है, जिसमे समाज के हाशियाग्रस्त लोगों को एक सामाजिक आधार मिला किन्तु इसके बाद राजनैतिक स्वार्थ वश इस व्यवस्था का जिस तरीके से दुरपयोग हुआ वह इसका दुखद पहलू रहा| यदि अब सामाजिक आर्थिक रूप से संपन्न तबके भी इस व्यवस्था का उपयोग चाहेंगे तो सोचो भारत का भविष्य क्या होगा?

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