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आर्य समाज और वैदिक धर्म

किसी के पूछने पर जब हम स्वयं को आर्य समाजी कहते हैं तो वह हमें प्रचलित अनेक मतों व धर्मों में से एक विशिष्ट मत या धर्म का व्यक्ति समझता है। पूछने वाला हमें कहता है कि अच्छा तो आप आर्य nitinसमाजी हैं? लेकिन यदि उन्हें कोई स्वयं को हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई या मुसलमान बताये तो फिर यह सुनने को नही मिलता कि अच्छा तो आप अमुक-अमुक हैं। आर्य समाज के बारे में यह भावना क्यों है? इसका कारण है कि आर्य समाज कोई सामान्य मत, धर्म, समाज या संस्था नहीं है अपितु एक विशेष मत या धर्म का अनुसरण व प्रचार-प्रसार करने वाली संस्था है। ऐसा इसलिए है कि विगत 139 वर्षों में धर्म व समाज के क्षेत्र में जो कार्य महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों ने किया है, वह अन्य किसी संस्था, समाज, मत व सम्प्रदाय ने नहीं किया। हम आर्य समाजी स्वयं को वैदिक धर्मी मानते हैं परन्तु समाज में हमारी पहचान वैदिक धर्मी के रूप में शायद नहीं बन सकी और यदि बनी है तो उन जानकर लोगों की संख्या बहुत न्यून है। हमारी वास्तविक पहचान आर्य समाजी के रूप में ही आज है। दूसरी पहचान लोग हमें मूर्ति पूजा, अवतार वाद, राम व कृष्ण आदि का ईश्वर होना, मृतक श्राद्ध, इन सबके विरोधी के रूप में है। हमारा प्रयास होना चाहिये कि लोग हमें वैदिक धर्मी मानें और हमारे आर्य समाजी होने के यथार्थ अर्थ को जानें व स्वीकार करें। हम समझते हैं कि हम वैदिक धर्मी तो हैं ही, इसके साथ आर्य समाजी भी अवश्य ही हैं। हमारे आर्य समाजी होने का अर्थ हमारा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए आन्दोलनकारी होने का गुण, स्वभाव व कार्य है। दूसरे मत व सम्प्रदायों के मनुष्यों में हमें यथार्थ रूप में जानने की इच्छा, प्रवृत्ति व जिज्ञासा नही है अन्यथा वह जानते कि हम वैदिक धर्मी, वेदानुयायी या आर्य समाजी किस प्रकार से हैं? हमें यह लगता है कि पौराणिक व अन्य मतावलम्बियों को पौराणिक, सनातन धर्म व वैदिक धर्म में जो अन्तर या
2nd-image समानतायें हैं, वह ज्ञात नहीं है। ज्ञात तो तब हों जब उन्हें सदुपदेश प्राप्त हों या वह निष्पक्ष होकर सदग्रन्थों का स्वाध्याय करें। न केवल अपने मत के ग्रन्थों को ही पढ़े अपितु अन्य मत व सम्प्रदायों के ग्रन्थों को भी पढ़ें और उनमें सत्य व असत्य को जानने का प्रयास करें। वैदिक धर्मी आर्य समाजियों से इतर लोगों में यह बात नहीं है। अतः वह धर्म, मत, सम्प्रदाय आदि के ज्ञान के मामले में, व उनके तथ्यपरक ज्ञान में, कोरे हैं। हम यह भी कह सकते कि हमारे पौराणिक बन्धु व अन्य मतों के अधिंकाश लोग ईश्वर के सत्य स्वरूप से अपरिचित होकर उससे विमुख होने के कारण सत्य व ययार्थ ज्ञान से दूर हैं व हो गये हैं। उनमें से कुछ या अधिकांश में केवल दम्भ दिखाई देता है परन्तु वस्तु स्थिति यह है कि वह, अपने अज्ञान व स्वार्थ के कारण, धर्म के वास्तविक रूप को नहीं जानते व धर्म व मत-मतान्तरों की उन्नति व पतन के इतिहास से प्रायः अनभिज्ञ व शून्य हैं। हमें लगता है कि ईसाई पादरियों व मुस्लिम मौलवियों को आर्य समाजी होने का अर्थ पौराणिकों से कुछ अधिक पता है। वह जानते हैं कि यह न केवल वेदों के ही अपितु पौराणिकों के भी रक्षक हैं और इनकी उपस्थिति में वह हमारे पौराणिक भाईयों को हानिकारक तिरछी नजर से नहीं देख सकते।

पहला प्रश्न तो यह है कि वैदिक धर्म है, क्या? वैदिक शब्द ‘वेद के अनुसार’ अर्थ का बोध कराता है। धर्म तो धर्म है ही। धर्म किसी पदार्थ के गुणों को कहते हैं। जैसे कि अग्नि का मुख्य गुण रूप-दर्शन, दाह, जलाना, गर्मी देना व मन मोहन कुमार आर्य प्रकाश देना है। वायु का गुण स्पर्श, प्राणु वायु, हल्की गैसों को ऊपर उठाना व भारी गैसों को नीचे रखना आदि गुण है। यह गुण ही अग्नि व वायु के धर्म कहे जाते हैं। जल में शीतलता तथा ऊपर से नीचे बहने की प्रवृत्ति या गुण है। इसी प्रकार मनुष्य के क्या गुण होने चाहियें? जो गुण होने चाहियें, वही गुण, मनुष्य के धर्म कहलाते हैं। मनुष्य को सत्य बोलना चाहिये, माता-पिता की अवज्ञा नहीं करनी चाहिये, ईश्वर की उपासना व वायु की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र यज्ञ करना चाहिये, आत्मा व शरीर की उन्नति के लिए योगाभ्यास करना चाहिये, ज्ञान की उपलब्धि के लिए विद्वानों की संगति करनी चाहिये, सुखी स्वस्थ जीवन व दीर्घ आयु के लिए गोपालन व गोसंवर्धन के साथ गोरक्षण करना चाहिये। ऐसे अनेक गुण मनुष्यों में होने चाहियें। यह सब प्रकार के गुण जो मनुष्य के कर्तव्य भी कहाते हैं, मनुष्य का धर्म हैं। अब आर्य समाज पर आते हैं कि आर्य समाज क्या है? सरल अर्थ है कि एक ऐसा समाज जिसके अनुयायियों में श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव हों। आर्य श्रेष्ठता का द्योतक होने के साथ वेदों द्वारा समर्थित मनुष्य के गुणों, कर्तव्य व धर्म के धारण करने को कहते हैं। इससे स्पष्ट हो गया कि वेदानुसार श्रेष्ठ गुणों को धारण करने वाले मनुष्य व उनका समाज, की संज्ञा आर्य समाज है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि आर्य समाज अपने आप में एक धर्म भी है। यह बात अलग है कि आर्य समाज के अनुयायी शत-प्रतिशत वेद के अनुसार जीवन व्यतीत करते हों। अतः आर्य समाज एक प्रकार से वैदिक धर्म का पर्याय बन गया है। वेद एक प्रकार से मानवीय गुणों की आचार संहिता है और आर्य समाज उन गुणों का प्रचारक संगठन व आन्दोलन है।

आईये, अब वैदिक धर्म व आर्य समाज के विषय में परस्पर सम्बन्ध पर विचार करते हैं। आर्य समाज की स्थापना वैदिक धर्म या वैदिक मूल्यों के प्रचार व प्रसार के लिए की गई है। इसको यदि और स्पष्ट कहें तो कह सकते हैं कि संसार के सभी मत-मतान्तरों में पूर्ण सत्य एकमात्र वैदिक मत ही था व है और परीक्षा करके इस तथ्य को जानकर, विश्व के सभी मनुष्यों को सामने रखकर वेदों का समस्त वसुन्धरा पर प्रचार-प्रसार के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने अनुयायियों के परामर्श, मांग व प्रार्थना पर आर्य समाज को स्थापित किया। आर्य समाज विश्व साहित्य में पहली बार प्रयोग हुआ शब्द है। महर्षि दयानन्द का अध्ययन अत्यन्त विशाल व बहुआयामी था। उन्होंने जब यह निश्चित कर लिया कि वेदों के वर्तमान व भविष्य में प्रचार व प्रसार के लिए एक संगठन होना चाहिये जिससे अज्ञान, अन्धविश्वासों, कुरीतियों व अज्ञान-असत्य मान्यताओं को वर्षा ऋतु में झाड़-झंकार की तरह से बढ़ने का अवसर न मिले और जो झाड़-झंकार धर्म के नाम पर उग गई है, उसे उखाड़ कर दूर दिया जाये जिससे अच्छी खेती हो, सात्विक अन्न उत्पन्न हो और संसार में सुख-शान्ति व समृद्धि का वास हो। उन्होनें इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए इसके नाम पर विचार किया। हम समझते हैं कि उन्होंने अनेकों नामों पर विचार किया होगा। यह नाम 10-20 से लेकर और अधिक भी हो सकते हैं परन्तु उन्हें सबसे अधिक आर्य समाज नाम ही सार्थक, यथा नाम तथा गुण के अनुरूप लगा और उन्होंने स्वयं इसे निश्चित कर अपने अनुयायियों को सूचित किया जिसे सभी ने एकमत होकर सहर्ष स्वीकार किया। बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे अनेक देशवासियों को आर्य समाज जैसे सुन्दर नाम से चिढ़ क्यों है? हमें यह उनकी अज्ञानता व अन्धविश्वास ही लगता है। वह अपनी अज्ञानता दूर क्यों नहीं करते, समझ में नहीं आता। हमें तो लगता है कि जिन्हें आर्य समाज नाम अच्छा नहीं लगता वह सब लोग अज्ञानी है व उन्हें अज्ञानता प्रिय है। अन्यथा वह आर्य  समाज का अर्थ, उसका भाव, इसका पवित्र उद्देश्य जानकर इसके अनुरूप स्वयं को तैयार करते और आर्य समाज के उद्देश्य को पूरा करने में आर्य समाज के अनुयायियों को न केवल सहयोग करते अपितु स्वयं आर्य कहलाने में गौरवान्वित होते और आर्य समाज के उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई कसर न छोड़ते। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आज के आधुनिक समय में मनुष्य वस्त्र तो नये नये पहनता है। भोजन के पदार्थ पूर्व से भिन्न बनने आरम्भ हो गये जिसे हमारे पौराणिक व अन्य सभी बन्धु प्रसन्न होकर प्रयोग करते हैं, पुरानी वस्तुओं को छोड़कर विज्ञान द्वारा आविष्कृत नई-नई वस्तु का प्रयोग करने में एक क्षण नहीं लगाते परन्तु आर्य समाज और इसके द्वारा प्रदत्त जीवन को सुखी, प्रसन्न, समृद्ध, सफल व उन्नत बनाने वाली जीवन शैली के प्रति उनमें न केवल उपेक्षा का भाव है अपितु जीवन को बर्बाद करने वाली जीवन शैली के अनुगामी बन रहे हैं, घोर आश्चर्य?

समग्र वेदों में दी गई शिक्षा के आचरण से सारे संसार के मनुष्य जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। इस कारण सर्वत्र प्रचार-प्रसार द्वारा इस वैदिक मत की सार्वभौमिक रूप से स्वीकारोक्ति के लिए आर्य समाज की स्थापना की गई है। इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आर्य समाज वेद व वैदिक मान्यताओं का मानव धर्म के रूप में प्रचारक होने से पूरी तरह से वेदों का पूरक है। यदि आर्य समाज नहीं होगा तो वैदिक मत का प्रचार-प्रसार न होने से इसमें अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियां आती-जाती रहेगीं और फिर सत्य मत का अनुसंधान कठिन हो जायेगा। आज हम ईसाई व इस्लाम मतों को देखते हैं कि वह अनेक संगठन बनाकर अनेक प्रकार से अपने मत का प्रचार करते हैं। वह प्रचार तो करते हैं परन्तु वह अपने मत की मान्यताओं की सत्यता की पुष्टि पर ध्यान नहीं देते। उन्होंने अपने अन्दर ऐसा कोई संगठन गठित नहीं किया है जो उनके मत की मान्यताओं के सत्य होने की पुष्टि करे। ऐसा भी कोई संगठन नहीं है जो वेद, वैदिक साहित्य व अन्य मत व मजहबों के ग्रन्थों से तुलना कर दूसरे मत की अच्छी व सत्य बातों को बताये व अपनी सत्य व असत्य, अच्छी व बुरी बातों को सामने लाये। उनकी तो मान्यता है, जिसे असिद्ध होने से कपोल-कल्पित ही कह सकते हैं, कि उनके मत की पुस्तकें पूर्णतया सत्य हैं। बिना किसी बात को तर्क व प्रमाणों से सत्य सिद्ध किए सत्य मान लेने वाला युग अब समाप्त हो चुका है। जब उनसे शंका समाधान के लिए कहते हैं तो वह मौन धारण कर लेते हैं व निरूत्तर बने हुए हैं। ऐसी परिस्थिति में सत्य का प्रचार करना व उसे अन्यों से मनमाना कठिन हो जाता है। अतः आर्य समाज का कार्य इस प्रयास को करते रहना है कि वह विधर्मियों से वेदों की सत्य मान्यताओं को स्वीकार कराये और साथ ही उसे वेद प्रचार का कार्य जारी रखना है। सत्य के प्रचारक को सफलता अवश्य ही मिलती है। हो सकता है इसमें काफी समय लगे परन्तु निराशा का कोई स्थान नहीं होना चाहिये। हमें अपने सिद्धान्तों और मान्यताओं को सरल से सरलतम् करने पर भी विचार व कार्य करते रहना चाहिये। जब यह स्थिति आयेगी तो प्रचार का कार्य सरल हो जायेगा। इसके लिए हमें सामान्य मनुष्यों द्वारा बोली व समझी जाने वाली भाषा में रोचक रीति से साहित्य तैयार करना होगा। हम समझते हैं कि हमें ईश्वर के स्वरूप, उसके कार्यों, कर्म फल व्यवस्था, जीवात्मा का स्वरूप, वैदिक जीवन की विशेषताएं, जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य एवं उसकी प्राप्ति में वैदिक जीवन पद्धति का योगदान, स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन का आधार वैदिक जीवन, मनुष्य जीवन व आत्मा का लक्ष्य, ईश्वर का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने उपाय, ईश्वर की प्राप्ति व जीवन-मरण के बन्धनों से मुक्ति के उपाय आदि अनेक विषयों पर सरल व छोटी पुस्तकें लिख कर उन्हें अधिक से अधिक लोगों में निःशुल्क वितरित करनी चाहिये। ऐसा करने से लोग सत्य को जानेगें और वह भी इसके लिए अन्यों से आग्रह करेगें। इस प्रकार से हम देखते हैं कि आर्य समाज का सारा का सारा कार्य वेद से आरम्भ होकर, वेद के अन्तर्गत रहते हुए वेद के प्रचार-प्रसार से ही पूरा होता है। अतः आर्य समाज, वैदिक धर्म का पूरक एवं प्रभावशाली अंग हैं, इसके बिना वेदों की रक्षा व उनके प्रचार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी क्रम में इतना और निवेदन कर दें कि आजकल दूरदर्शन पर स्वामी रामदेव जी वेदों का जम कर प्रचार करते हैं। हमें उनकी अनेक बातें सुनकर बड़ी प्रसन्नता होती है। कुछ बातें उन्हें जनता के लिए सिद्धान्तों से हटकर भी कहनी पड़ती है। परन्तु, वेद मत के विरोधियों की तुलना में, आज के समय में उनके द्वारा किया जा रहा कार्य हमें सराहनीय व प्रशंसनीय लगता है। आर्य समाज के एक अज्ञात गुरूकुल से निकलकर देश, समाज व विश्व में उन्होंने जो अपना स्थान बनाया है और मुख्यतः वेद प्रचार के क्षेत्र में वह जो कार्य कर रहे हैं, उसके लिए वह अभिनन्दनीय हैं।

अब हम देखते हैं कि वेदों के प्रचार-प्रसार में आर्य समाज के सामने प्रमुख कठिनाईयां किस प्रकार की हैं? पहली कठिनाई तो यह कि आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सारे संसार के सम्मुख आर्य समाज का सत्य स्वरूप स्वयं प्रस्तुत किया है। इसके साथ उन्होंने प्रायः उनके समय उपस्थित सभी या अधिकांष मतों में पाई जाने वाली असत्य, प्रमाण, युक्ति व तर्क विरोधी बातों को प्रस्तुत कर उन्हें जीवन के उद्देष्य को पूरा करने में असफल, असमर्थ व व्यर्थ होने को भी अनेक हेतुओं के साथ प्रस्तुत किया है। उन्होंने सारी दुनियां को शास्त्रार्थ वा सत्य धर्म विवेक के लिए भी आहूत किया था। इसी से यह समझा जा सकता है कि यदि मत-मतान्तर सत्य होते तो वह स्वयं अपनी ताल ठोक कर उसे सत्य सिद्ध करते और महर्षि के विचारों व मान्यताओं का दिग्दर्शन कराकर उनका खण्डन कर उनसे शास्त्रार्थ करते और जो सत्य सामने आता उसे सभी प्रेमपूर्वक स्वीकार करते व अपनाते। अनेक अवसरों पर ऐसा हुआ भी परन्तु उन्होंने सत्य को स्वीकार कर अपने मत का त्याग व वैदिक धर्म को स्वीकार नहीं किया। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि उन्हें अपने मत की खामियों, कमियों, त्रुटियों व असत्यता का ज्ञान हो चुका था व अब भी है अन्यथा उन्होंने महर्षि वा वेद प्रदर्शित ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप, ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, 16 संस्कार, वैदिक जीवन शैली व पद्धति आदि का मौखिक व लिखित खण्डन किया होता। सत्य को स्वीकार न करने का कारण क्या है? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि स्वमत से जो अनुचित स्वार्थ सिद्ध होते हैं, सत्य को स्वीकार करने से उनका त्याग होता है। स्वार्थ को बनाये रखना, उसका त्याग न करना ही सत्य मत को स्वीकार न करने का प्रमुख कारण है। जिस दिन मत-मतान्तरों के बड़े-बड़े लोग अपना स्वार्थ त्याग कर देगें और उनमें सत्य धर्म के प्रति आस्था, विश्वास, इच्छा, प्रवृत्ति, भावना, भूख व पिपासा उत्पन्न होगी उस दिन यह कार्य सम्भव होगा। यह भी कहना है कि किसी भी मत व मतान्तर के आम व्यक्ति को सत्य-असत्य, यथार्थ व अयथार्थ आदि से कुछ अधिक लेना देना नहीं होता। वह तो अपने धार्मिक नेताओं की ओर ही ताकते रहते हैं। वह जो भी कहेगें वही उसका अपना धर्म होता है। यह भी विदित होता है कि आज लोगों ने चालाकी सीख ली है। अपने असत्य को सत्य व दूसरे के सत्य को असत्य सिद्ध करने में लगे हुए हैं जिससे सामान्य व्यक्ति भ्रमित होता हे। इन कारणों से मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। क्या यह स्थिति प्रलय तक रहेगी? ऐसा होना सम्भव ही नहीं है क्योंकि समय के साथ-साथ उतार-चढ़ाव, उत्थान व पतन होता रहता है। सत्य के आग्रही महापुरूष जन्म लेते रहते हैं और वह जितना जान पाते हैं उतना स्वयं भी मानते हैं और दूसरों से मनवाने के लिए भी प्रयास करते हैं। अपने प्राणों की रक्षा तक की उन्हें कोई चिन्ता नहीं होती। समय-समय पर ऐसे महापुरूषों के होने व उनके कार्यों से ही आशा की जा सकती है कि सत्य धर्म वेदों की स्थापना का यह कार्य उनके द्वारा कालान्तर में अवश्य पूरा होगा। महर्षि दयानन्द को भी इसकी पूरी-पूरी आशा थी, शायद् इसी कारण उन्होंने कितने काल में सारा विश्व आर्य व वैदिक धर्मी बनेगा इसकी परवाह नहीं की और अपना कार्य जारी रखा। उन्होंने अपने जीवन के एक-एक पल को दूसरों के हित व ईश्वर की आज्ञा पालन करने में व्यतीत किया। हमारा स्वयं व्यक्तिगत अनुभव है कि जब हम किसी सामाजिक कार्य में प्रवृत हुए तो हमें कालान्तर में वह सफलतायें मिली जिसकी हमने पूर्व में कल्पना भी नहीं की थी। इससे हमें यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि हमें अपने लक्ष्य की सत्यता व अपने पुरूषार्थ पर ध्यान देना चाहिये, सफलता तो लक्ष्य की सत्यता व पुरूषार्थ पर ही निर्भर करती है।

हमें विदेशी बन्धुओं की इस बात पर भी आश्चर्य होता है कि उन्होंने यह तो मान लिया है कि संसार में सर्वप्रथम मनुष्य की उत्पत्ति भारत में हुई थी, उनके पूर्वज भारत में निवास करते थे और यहीं से वह सारे विश्व में फैले हैं, परन्तु जब आदि पुरूष व सबके पूर्वज भारत में रहते थे तो उनकी भाषा व ज्ञान भी तो भारत से ही वहां पहुंचा है। भाषा व ज्ञान में ही तो धर्म, कर्तव्य, विज्ञान व सभी विद्यायें निहित होती हैं। प्रमाणों से यह भी सिद्ध है कि विश्व में सबसे पुरानी पुस्तक वेद है जिससे यह भी सिद्ध है कि वैदिक शिक्षायें, मान्यतायें व सिद्धान्त ही धर्म, कर्तव्य, जीवन पद्धति, जीवन शैली आदि ही धर्म हैं। अब जब वेदों का सत्य स्वयं हमारे सामने है और वह सबके लिए ग्राह्य, उपादेय व प्रासंगिक है तो फिर उसे स्वीकार करने में संकोच क्यों करते हैं? क्यों उसे समाप्त करने व वैदिक धर्म के अनुयायियों को धर्मान्तरित करने की योजनायें बनाते हैं? क्यों नहीं तुलनात्मक अध्ययन कर सत्य को स्वीकार करते? इसका कारण वही स्वार्थ की भावना, अज्ञानता व इससे जनित हानिकारक विचार, मान्यतायें आदि हैं जो उन्हें ईश्वर, सत्य, ज्ञान, स्वोन्नति, कर्म-फल के सत्य सिद्धान्त के अनुसार पतन की ओर ले जा रही हैं। इससे उनका अकल्याण अवश्यम्भावी है। वह कुछ भी कहें परन्तु उनके व किसी के पाप क्षमा नहीं होगें, वह पाप व पुण्य करने वाले को अपने-अपने कर्मानुसार अवश्यमेव भोगने ही होगें। जिस व्यवस्था में बुरे काम व पाप क्षमा होते हैं, वह व्यवस्था पापों को बढ़ाने वाली होती है। पाप न हों अथवा कम से कम हों, इसके लिए तो पाप की कठोर व कठोरतम् सजा का प्रावधान न्यायसंगत एवं अति आवश्यक है। वैदिक धर्म में सृष्टि के आरम्भ से ऐसा ही है। अतः सबको विवेक से काम लेना होगा अन्यथा उसका परिणाम तो उन्हें स्वयं ही भोगना है। यही स्थिति हमारे देश के सभी मत-मतान्तरों के आचार्यों व उनके अनुयायियों पर भी लागू होती है जो वेदों को स्वीकार नहीं करते, उसके अनुरूप अपनी मान्यतायें, सिद्धान्त व रीति-रिवाज आदि नहीं बनाते और मुख्यतः वेद व अन्य धर्म-मतों से अपने मत की तुलना व सत्य व असत्य का अध्ययन व परीक्षा नहीं करते।

आर्य समाज की स्थापना एक प्रकार से सत्य-सनातन-नित्य-वैदिक-धर्म की पुनर्स्थापना थी जिसका श्रेय इतिहास में महर्षि दयानन्द सरस्वती व उनके अनुयायियों को है। इससे वैदिक धर्म व सत्य की रक्षा हुई व विश्व के लोगों को सत्याचरण व धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति मार्ग मिला। इस लाभ की किसी अन्य मत से कोई साम्यता या बराबरी नहीं है। महर्षि दयानन्द के आगमन व आर्य समाज की स्थापना होने से धर्म सम्बन्धी विषयों के चिन्तन, विचार, प्रचार, कर्मकाण्ड आदि पर नई सोच ने जन्म लिया। अनेक परिवर्तन, संशोधन आदि भी धर्म मतों की मान्यताओं व सिद्धान्तों में किये गये। आर्य समाज को जानने पर यह भी विदित होता है कि जब तक संसार में एक भी व्यक्ति वेद विरोधी व असहमति रखने वाला है, आर्य समाज प्रासंगिक रहेगा। यदि सभी आर्य समाज व वेदों के अनुसार जीवन व्यतीत करें, वेदों को सर्वोपरि माने, तब भी आर्य समाज का उत्तरदायित्व इस बात के लिए रहेगा कि वह सजगता से तब भी स्थितियों पर दृष्टि रखे जिससे पुनः उत्तर-महाभारतकालीन स्थिति, मध्यकाल की पुनरावृत्ति, न हो सके। आर्य समाज के स्थापना दिवस पर सभी आर्य समाज के अनुयायियों व सभी मतों सहित मानवमात्र को हमारी शुभकामनायें।

– मन मोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2,

देहरादून-248001

दूरभाषः 09412985121

 

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