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कमजोर कंधो पर बढ़ता इंसानी बोझ

साल 2013 में एक फिल्म आई थी जिसका नाम था ये जवानी है दीवानी’ फिल्म का नायक आज के दौर के युवकों और युवक होते किशोरों को अपनी जिंदगी अपनी शर्तों पर जीना सीखा रहा था। उसे शादी ब्याह में यकीन नहीं था। उसके अनुसार भला कोई एक व्यक्ति के साथ सालों साल एक ही चाहरदीवारी के बीच कैसे गुजार सकता है। यानि फिल्म का नायक यह बता रहा था कि शादी विवाह बेकार के पचड़े है, मस्ती करों और एक दिन दुनिया से चले जाओं। यह फिल्म युवाओं के लिए काफी लुभावनी थी। किन्तु इस फिल्म में नायक जीवन के एक हिस्से का जिक्र करना भूल गया था और वह हैं बुढ़ापा। उम्र की इस अवस्था में इन्सान को सबसे ज्यादा अपनों की जरूरत पड़ती है कि कोई देखभाल करें अपनापन के साथ उसे स्नेह का आभास कराए।

भले ही जीवन के उस पड़ाव पर फिल्म के निर्माता निर्देशक ध्यान न दे पाए हो लेकिन पिछले साल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने इस ओर सबका ध्यान खींचा हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 के अंत में 65 साल से अधिक उम्र के बुजुर्गों की संख्या 5 साल से कम उम्र के बच्चों से अधिक हो गई हैं। यानि दुनिया में बच्चों से ज्यादा बुजुर्गों की संख्या हो गयी है। दुनिया के लगभग आधे देशों में आबादी के मौजूदा आकार को बरकरार रखने के लिए पर्याप्त बच्चे नहीं हैं। यानि कल जब आप इस मौज मस्ती की जिन्दगी से निकलकर बाहर आयेंगे तो अपने आपको नितान्त अकेले में या किसी वृद्ध आश्रम में पाएँगे।

इसे कुछ इस तरह समझिये कि अधिकांश शहरी परिवारों में दादा-दादी है माँ और पिता है लेकिन बच्चा एक है। आने वाले समय में जब वह बच्चा थोडा बड़ा होगा तो उसके कंधे पर चार इंसानी जिंदगियों का बोझ होगा। यदि वह लड़का है और किसी ऐसे ही परिवार की अकेली लड़की से शादी करेगा तो दोनों के कंधो पर आठ बुजुर्गों की जिम्मेदारी होगी। आप स्वयं में इस जिम्मेदारी को महसूस करें क्या आप यह बोझ आप वहन कर पाएंगे? यदि कर भी पाए तो कितने दिन?

भले ही कुछ लोग आज भारत को एक युवा देश मानते हो क्योंकि देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी नौजवानों की है। आगे बढ़ते भारत की ताकत भी ये नौजवान है लेकिन अगले 20 वर्षों में भारत की तस्वीर एकदम बदल जाने वाली है। तब भारत के साथ वही होगा जो अमेरिका और जापान के साथ हो रहा है। आज अमेरिका, यूरोप और जापान में बुजुर्गों की संख्या बढ़ गई हैं इस कारण आज ये बुजुर्ग अपने देश के युवाओं लिए उत्पादक कम और बोझ ज्यादा हो गये है। फेमिली प्लानिंग जैसे फलसफे के चलते एक-एक बच्चा पैदा किया आज उस एक बच्चे के ऊपर परिवार के कई-कई बुजुर्गो की जिम्मेदारी आन पड़ी हैं।

यदि चिंता को भारत के संदर्भ में देखें तो पिछले दो दशकों में भारत में गांवों से शहरों की ओर लोगों की आमद भी बहुत बढ़ी है। समाज आधुनिक हो गया। इस आधुनिकता से एकल परिवार बढ़े। यानी हम दो हमारा एक की नीति चल पड़ी। इस माहौल में युवाओं को भले ही निजता मिल रही है, अपनी मर्जी से जीने का मौका मिल रहा हो लेकिन कल वह दो और उनका वह एक कैसे अपने परिवार के साथ उन बुजुर्गों को जिम्मेदारी से सम्हाल पायेगा?

यदि यह सब इसी तरह चलता रहा तो आने वाले भविष्य में बच्चों के कन्धों पर पारिवारिक जिम्मेदरियों समेत मानव सभ्यता के संतुलन को बनाए रखने का जो बोझ बढ़ेगा। इससे समाज को बनाए रखना बहुत मुश्किल होगा। यानि पोते-पोतियों से अधिक दादा-दादी नाना नानी वाले समाज में इसके सामाजिक और आर्थिक परिणामों के बारे में सोचिए!

असल में 1960 में महिलाओं की औसत प्रजनन दर लगभग 5 बच्चों की थी। करीब 60 साल बाद यह आधे से भी कम रह गई है। ज्यादातर परिवारों में एक बच्चें का चलन यह कहकर चल पड़ा है कि शिक्षा समेत आज परवरिश महंगी हो गयी है तो दो या तीन बच्चों का बोझ हम नहीं उठा सकते। अन्य वजहों से भी कई परिवार बच्चे पैदा करने की योजना टाल देते हैं। जिन परिवारों में महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं, वे मां की परंपरागत भूमिका निभाने को तैयार नहीं हैं।

हाँ कुछ देशों ने इस गंभीर चिंता पर कदम उठाने जरुर शुरू कर दिए है पिछले दिनों यूरोपीय देश हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ऑर्बन ने एक घोषणा करते हुए कहा था कि जिन महिलाओं के चार या उससे अधिक बच्चे होंगे, उन्हें जीवनभर आयकर से छूट दिया जाएगा। यही नहीं उपायों के तौर पर वहां के युवा जोड़ों को करीब 26 लाख रुपए का ब्याज मुक्त कर्ज दिया जाएगा। उनके तीन बच्चे होते ही यह कर्ज माफ कर दिया जाएगा।

हालाँकि इस एक दूसरा पहलु भी है जो यह दर्शाता है कि दुनिया की कुल आबादी बढ़ रही है। 2024 में वैश्विक आबादी 8 अरब हो सकती है। अकेले भारत में भले ही जनसँख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही हो लेकिन आबादी का बड़ा हिस्सा बुजुर्ग है और बुजुर्गो की संख्या बढ़ने का मतलब यह है कि काम करने वाले लोगों की संख्या घट जाना। इससे आर्थिक विकास तो बाधित होगा ही साथ भारतीय समाज में व्यापक सामाजिक परिवर्तन दिखाई देंगे। जनसांख्यिकी विशेषज्ञ के अनुसार आगे संसाधनों की मांग बढ़ेगी इससे पेंशन और स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों पर दबाव बढेगा। जिन देशों में बच्चों की संख्या कम होगी वहां अप्रवासी ज्यादा संख्या में पहुंचेगे जिसके कारण उस देश के सामाजिक धार्मिक ताने बाने से लेकर उनकी सभ्यता और संस्कृति पर भी खतरा होगा।

 विनय आर्य 

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