दीपावली पर विशेष
तमसो मा ज्योतिर्गमय अन्धकार पर प्रकाश की विजय का प्रेरक पर्व दीवाली ऋषि की स्मृति का भी दिवस है। इसी दिन उस महामानव ने अपना भौतिक शरीर छोड़ा था। जाते-जाते संसार को सत्य के प्रकाश की दीवाली दे गया। पुण्यात्मा ऋषि दयानन्द सत्य के पुजारी थे। सत्य के लिए जिए और सत्य पर ही शहीद हो गए। उन्हें सत्यपथ से कोई विचलित नहीं कर सका। सत्य की रक्षा के लिए चौदह बार जहर पीया। उनका संकल्प था – ‘‘सत्यं वदिष्यामि’’ सत्य ही मानूंगा और सत्य ही बोलूंगा। उन्होंने सत्य के विरुद्ध कभी समझौता नहीं किया। ऐसे प्रभु के वरद पुत्र दयानन्द की अमर गौरव गाथा स्मरण करने की पुण्य तिथि है- दीवाली।
ऋषिवर! तुम्हें कोटि-कोटि स्मरण और प्रणाम। तुम्हारी मंगलमयी स्मृति को अनेकशः नमन और श्रद्धांजलि। तुम्हें संसार से विदा हुए 134वां वर्ष व्यतीत हो रहा है। तुम्हारे नाम और स्मरण से हृदय श्रद्धा-भक्ति से भर उठता है। नेत्र सजल होकर तुम्हारे उपकारों तथा स्मृति पर अर्घ्य चढ़ाने लगते हैं। तुमने न जाने कितने पतितों, भूले-भटकों आदि का उद्धार किया। तुम आजीवन विषपायी बनकर संसार को अमृत लुटाते रहे। ऋषि तुम धन्य थे। तुम्हारा महान इतिहास प्रशंसनीय है। तुम्हारे उपकार वन्दनीय हैं। तुम्हारा तप-त्याग तथा बलिदान स्मरणीय है। तुम्हारा व्यक्तित्त्व एवं कृतित्व अर्चनीय है। तुम सबसे निराले थे। तुम्हारे सारे कार्य भी निराले थे। जो भी तुम्हारे सम्पर्क में आया, वह अमूल्य हीरा बन गया। तुम्हारे अन्दर अद्भुत दैवीय चुम्बकीय शक्ति थी। शत्रु भी चरणों में नत-मस्तक होकर गया। ऋषिवर! तुम क्या थे? यह आज तक संसार न जान सका। सदियों के बाद भारतमाता की पीड़ा को समझने वाला और उसके आंसुओं को पोंछने वाला कोई महामानव था – तो ऋषिवर तुम्हीं थे। तुमने अपने लिए जीवन भर कुछ न मांगा, न संग्रह किया, न मठ-मन्दिर आदि बनाए। जीवन भर जहर पीते रहे, अपमान सहते गए, पत्थर खाते रहे। भूली-भटकी मानव जाति में फैले अज्ञान, अन्धकार, ढोंग, पाखण्ड, गुरुडम आदि के लिए रातों में जागकर करुण-क्रन्दन करते रहे-
‘‘एक हूक सी दिल में उठती है, एक दर्द जिगर में होता है। हम रात को उठकर रोते हैं, जब सारा आलम सोता है।’’
ओ! दया और आनन्द के भण्डार! मानवता के अमर नायक! देश, धर्म, संस्कृति, यज्ञ, वेद आदि के उद्धारक! आज तुम्हें क्या श्रद्धांजलि दूं? आसुंओं के सिवा कुछ पास नहीं है। हमने तुम्हारे स्वरूप, योगदान, महत्त्व एवं विशेषताओं को समझा ही नहीं। तुम्हें जाना ही नहीं। तुम्हारे उपकारों को स्वीकारा ही नहीं, तुमने सारे जीवन में कहीं भी चारित्रिक दुर्बलता, पद, प्रतिष्ठा, लोभ आदि नहीं आने दिया। जीवन में दैवीय और चमत्कारी रूप नहीं आने दिया। मानव बनाकर ही रहे। ऋषि के कट्टर विरोधी और आलोचक भी अन्दर से उनके प्रशंसक थे। तराजू के एक पलड़े पर ऋषि को और दूसरे पलड़े पर संसार के सभी महापुरुषों को रख दिया जाए, तो निश्चय ही ऋषि का पलड़ा भारी होगा। क्योंकि वह मुक्तात्मा प्रभु की इच्छा पूर्ति के लिए आई थी। अपनी कोई इच्छा नहीं थी। जैसे समस्त पर्वतों में हिमालय की अलग पहचान है। ऐसे ही समस्त महापुरुषों में ऋषिवर तुम्हारी अलग आन-मान-शान और पहचान है। तुम्हारा जीवन भी प्रेरक था, तुम्हारी मृत्यु भी प्रेरक थी। जाते-जाते भी नास्तिक गुरुदत्त को आस्तिक बनाकर, वैदिक धर्म का दीवाना दे गए। तुम्हारे जीवन की एक-एक घटना में अपार प्रेरणा भरी हुई है। तुम्हारे ग्रन्थों की एक-एक पंक्ति में नवजीवन का अमर सन्देश भरा हुआ है। घनघोर अमावस्या की रात में संसार को ज्ञान और प्रकाश की दीपावली दे गए हो। इसी सत्य ज्ञान और प्रकाश को प्रचारित एवं प्रकाशित करने के लिए तुमने ‘आर्य समाज’ बनाया था। वह तुम्हारे बाद खूब फला-फूला और बढ़ा। जीवन तथा जगत के प्रत्येक क्षेत्र में आर्य समाज के विचारों, सिद्धान्तों तथा आदर्शों को सराहा गया। अलग पहचान बनी। ऋषिवर! तुम्हारे दर्द और उद्देश्य को जिन्होंने समझा, वे दीवाने, पागल और जनून वाले होकर निकल पड़े। उनकी करनी-कथनी एक थी। उनका जीवन और सोच-विचार तुम्हारे से अनुप्राणित था। उसी का परिणाम रहा-संस्था, संगठन, अनुयायी आदि की दृष्टि से आर्य समाज सब में आगे रहा है। अतीत का जितना भी गुणगान व प्रशंसा की जाए थोड़ी है।
आर्यों! ऋषि निर्वाणोत्सव पर शान्त भाव से सच्चाई को समझकर जीवन, जगत और आर्य समाज के लिए सोच सकें। कुछ कर्त्तव्य, सेवा, त्याग, सहयोग आदि की भावना जगा सकें। कुछ अपने को बदल सके। ऋषि की पीड़ा को समझ सकें। कुछ दिशा-बोध ले सकें। मिशन के लिए समय, शक्ति व सोच लगा सकें। स्वार्थ, पद, अहंकार, लोभ, लाभ आदि से ऊपर उठकर स्वयं पद-त्याग कर सकें। अपने जीवन घर और आर्य समाज को सम्भाल सकें। तो हम सच्चे अर्थ में ऋषिवर को श्रद्धांजलि देने के हकदार हैं। तभी ऋषि की जय बोलने की सार्थकता है। अन्तर में प्रकाश आ जाए तभी दीपावली मनाने की सार्थकता है। यदि मेरे लिखित विचारों से किसी में सोच, दृष्टि, व्यवहार, स्वभाव, कर्म आदि में परिवर्तन आ जाए, तभी मेरे लेखन की सार्थकता है।