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कैसे जिहाद अब उल्टा डस रही है?

न्यूजीलैंड में क्राइस्टचर्च हमले के एक सप्ताह पूरे होने बाद ब्रिटेन के सबसे बड़े शहरों में से एक बर्मिंघम में पांच मस्जिदों पर अचानक हिंसक हमले हुए। हालाँकि अभी तक इन हमलों का असल मकसद पता नहीं चल सका है पर इन हमलों से यह जरुर कहा जा रहा है कि मुसलमानों द्वारा पिछली अनेकों घटनाओं ने दुनिया में जो एहसास ताजा किया था कि इस्लाम का डर बाकी शेष दुनिया में बढ़ चुका है, यह हमले उसी का परिणाम है। बहुत पहले वेटिकन के सर्वोच्च न्यायालय के सचिव वेलासिवो डि पाओलिस ने मुसलमानों के सन्दर्भ में कहा था, “दूसरा गाल आगे करना अब बहुत हो गया स्वयं की रक्षा करना हमारा दायित्व है” जीसस की दूसरा गाल आगे करने की शिक्षा का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। पाओलिस का सन्देश समस्त ईसाइयों के लिए था।

क्राइस्टचर्च हमले के बाद कई तरह सवाल उठे थे कि क्या यह सिर्फ एक महज घटना है जिसे एक सिरफिरे ने अंजाम दिया या फिर जिस तरह से यह हमला हुआ क्या इतिहास की क्रुसेड जंग फिर से आरम्भ होने वाली है? क्योंकि वर्षों से इस्लाम के नाम पर एक क्रूर और अमानवीय युद्ध नीति जिहाद जो धार्मिक उद्देश्यों के लक्ष्य की पूर्ति करने के लिए जानबूझकर पीडा पहुँचाने के लिए जो चली आ रही है, क्या क्राइस्टचर्च हमला तथा ब्रिटेन में मस्जिदों पर हिंसक हमले जिहाद को उल्टा जवाब है?

अमेरिका में 9/11 होना, भारत में 26/11, कुछ समय पहले फ्रांस के नीस शहर में 84 लोगों को जिहाद के नाम पर ट्रक से कुचल देना। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में कैफे और यहूदी प्रार्थना स्थल पर आतंकवादी हमला होना। 2017 ब्रिटेन के मैनचेस्टर शहर में धमाके में 22 लोगो का मारे जाने के अलावा एक के बाद एक जिहाद के नाम पर हुए हमलों से यह तो तय है कि समस्त विश्व में एक राजनीतिक नाटक बने जिहाद का लोगों के जेहन से अब पर्दा भी उठ रहा है।

आखिर कुछ तो कारण रहे होंगे कि पूरे विश्व में अहिंसा का सिद्धांत मानने वाले बौद्ध भिक्षु बर्मा में मुसलमानों के खिलाफ हिंसक भीड़ में शामिल हो गये? कुछ साल पहले श्रीलंका में मुस्लिमों के खिलाफ बौद्ध भिक्षुओं के नेतृत्व में रैलियां निकाली गईं, मुसलमानों के ख़िलाफ सीधी कार्रवाई का आह्वान किया गया था और उनके व्यापारिक प्रतिष्ठानों के बहिष्कार की अपील भी की गई थी। भारत में कथित गौहत्या के नाम पर कई हत्याओं को बदले के तौर पर देखे जाना। इसके बाद जिस तरह ढाका हमले में कुरान की आयते न सुनाने पर आतंकियों द्वारा अन्य धर्मों के लोगों की हत्या की गयी थी। उससे यही प्रश्न खड़ा हुआ था कि क्या जीवन बचाने के लिए लोग अपनी धार्मिक परंपरा और अपने ग्रंथो को छोड़ दें या क्राइस्टचर्च हमले के हत्यारे ब्रेंटन की तरह प्रतिकार करें?

पिछले कई दशकों से इस्लाम के नाम पर हुए आतंकी हमलों को मात्र कुछ लोगों का कारनामा भले ही कह ले लेकिन इन हमलों पर राजनितिक निंदा के अतिरिक्त कभी भी आत्मविश्लेषण नहीं किया गया, न नरमपंथी मुस्लिमों द्वारा सड़कों पर उतरकर कट्टरपंथ और जिहाद के विरोध नारे लगे। तो इसके परिणाम आज विश्व के अलग-अलग कोनों से देखने सुनने को मिल रहे है। फ्रांस ने पिछले दशकों में इस्लाम के नाम पर अपनी सड़कों पर हिंसा का खूब तमाशा देखा है। इस कारण यूरोप के इस्लामीकरण के ख़िलाफ यूरोप के गैर इस्लामी लोग अपने ईसाई धर्म की संस्कृति और परंपराओं को ख़तरा मानने लगे है। फ्रांस और जर्मनी ही नहीं, ब्रिटेन में भी बाहरी देशों से आकर बसने वाले मुसलमानों को शक की नजरों से देखा जा रहा है। तीनों जगह मुख्य राजनीतिक दलों को मुस्लिम शरणार्थियों की बढ़ती संख्या के मसले पर लोगों के गुस्से और असंतोष का सामना करना पड़ रहा है। इसके अलावा कुछ समय पहले ऑस्‍ट्रेलिया की सिनेटर पाउलिन हैंसन बुर्के पर प्रतिबंध की मांग को लेकर अपनी मुहिम के तौर पर संसद में बुर्का पहनकर आई थी।

यह इसका एक पहलु है लेकिन इसका दूसरा पहलु भी है जो पहले से ज्यादा भयभीत करता है सन् 622 में मदीना में हुई तैयार हुई एक इस्लामिक फौज ने जंग का सफर तय किया खैबर, बदर और ‍फिर मक्का को फतह कर लिया गया। सन 632 ईसवी आते-आते इस्लाम ने यहूदियों को अरब से बाहर खदेड़ दिया। वह इसराइल और मिस्र में सिमट कर रह गए। इसके बाद क्रुसेड काल का दौर आया कभी हार तो कभी जीत चलती रही, इसे धार्मिक युद्ध भी कहा गया। इसके बाद 10 वीं शताब्दी के अंत में इस्लाम ने अपनी ताकत भारतीय उपमहाद्वीप में झोक दी। अफगानिस्तान से बौद्ध मिटाए, भारत में भी लगातार दमन किया इस जंग में कई संस्कृतियों और दूसरे धर्म का अस्तित्व मिटा दिया गया।

पिछले तीन से चार दशकों में जबसे इस्लामवाद एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है और आतंक ने विश्व भर में तांडव मचाया एक बार फिर अनेकों लोग अतीत के दोहराव से वरन डरे हुए बल्कि ऐसा लग रहा है जैसे इस बार पहले हमला कर सुरक्षा चाह रहे है। क्योंकि आतंक से ज्यादातर गैर-मुसलमान के जीवन पर खतरा होता है और सिर्फ मरने वालों की मौत का कारण इतना होता है कि उनकी प्रार्थना का ढंग इस्लाम के अनुरूप नहीं है? क्या वो सिर्फ इस कारण मारे जाते है कि उनका पहनावा और खान-पान इस्लामिक रीतियों से अलग है?

इस बात से तो कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि जिहाद एक युद्धक और हिंसक नीति हैं जिसमें मासूम लोग मारे जाते है, लेकिन बहुत लोग अभी भी इसे इस्लामिक आस्था से जोड़कर देख रहे है। मसलन जब एक जेहादी हत्या जैसे कार्यों को अंजाम देता है तब यह बताने की कोशिश होती है कि वह हत्यारा नहीं बल्कि एक आस्थावान मुस्लिम था। यदि यह परिभाषा आगे नहीं बदली गयी तो एक नई परिभाषा का जन्म होगा और उस परिभाषा में हत्यारे एक आस्थावान अन्य धर्मो के लोग होंगे। मैं इसकी भविष्यवाणी करना नहीं चाहता पर समयनुसार लोग स्वयं देख लेंगे।

लेख-राजीव चौधरी

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