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कैसे बचपन को निगल रहा है आधुनिक शिक्षा का दैत्य

शिक्षा ही जीवन का आधार है और बिना शिक्षा के मनुष्य का जीवन अर्थ हीन व दिशाहीन हो जाता है. एक सफल जीवन में शिक्षा का विशेष महत्व होता है कहा जाता है आज की शिक्षा कल का निर्माण करती है. पर आज वर्तमान समय की शिक्षा प्रणाली देखकर लगता है जैसे हमें अपने कल के विषय में तनिक भी चिंता नहीं हैं पर देश का भविष्य आगामी पीढ़ी की शिक्षा, चरित्र, स्वास्थ और संस्कार से पूर्ण रूप से संबंध रखता है. यदि  आज का बचपन अस्वस्थ या फिर असंस्कारी है तो देश के भविष्य का सर्वांगिण विकास विफल निश्चित होगा. कारण जहाँ शिक्षा के मंदिरों में अच्छी संस्कारित शिक्षा पर ध्यान दिया जाना चाहिए इसके उलट आज वहां सरकारी स्कूलों में मिड डे मील और प्राइवेट स्कूलों में प्रतिस्पर्धा सिखाई जा रही है.

उपरोक्त दोनों ही स्थिति में क्या बेहतर शिक्षा के साथ संस्कार और चरित्र के साथ आचरणवान नागरिक देश को मिल पाएंगे? ये सवाल हमारे सामने खड़ा है. जबकि आचरण ही मनुष्य का आभूषण है. जिस शिक्षा का प्रभाव हमारे चरित्र पर नहीं होता वह शिक्षा हमारे कुछ काम की नहीं होती. जब हम शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन शिक्षा प्रणाली का जिक्र करते है तो लोग उसे आज हिसाब से उपयुक्त नहीं समझते क्योंकि आज के कमर्शियल युग में आर्थिक शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया जा रहा है. मानता हूँ अर्थ भी शिक्षा के चार स्तम्भों में एक है किन्तु अन्य तीन स्तम्भ धर्म, काम और मोक्ष की शिक्षा कहाँ मिलेगी? जबकि वैदिक शिक्षा पद्धति में इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने की शिक्षा दी जाती थी.

आज धर्म के ज्ञान की जगह धर्म निरपेक्षता का प्याला पिलाया जा रहा है, काम के नाम पर छोटी-छोटी कक्षा में विद्यार्थियों को बताया जा रहा है कि चलो कंडोम के साथ, मोक्ष की अवधारणा को या तो कल्पना बताया जा रहा है या फिर अन्धविश्वास सिखाया जा रहा है. यानि के आज के इस पूंजीवादी तथा भोगवादी भारत की शिक्षा मनुष्य को धन कमाने की मशीन बना रही है. जबकि मानव बनने के लिए यथा समय चारों पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-अर्थात चारों कर्तव्यों की शिक्षा आवश्यक है.

समाज में सभी लोग अपने जीवन का बड़ा हिस्सा बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा में खर्च करते हैं, जब वह बच्चा बड़ा होता है उसे वैवाहिक जीवन के प्रति माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से विमुख पाते है, हम एक पल को आत्मगौरव कर लेते है की बच्चा कामयाब हो गया पर साथ ही आत्मग्लानी से भी पीड़ित होते है कि उस आर्थिक कामयाबी का मोल संस्कार और नैतिकता समाप्त कर चुकाया है.

अपने यहां एक व्यवस्था थी जो ‘वर्णाश्रम धर्म’ कहलाती थी, जो जीवन के अलग-अलग चरण होते थे, जिसके लिए हर इंसान को तैयार होना होता था वो आज लगभग ढहा दी गयी कौन भुला होगा नवम्बर 2017 की उस खबर को जो समाचार पत्रों के मुख्यपृष्ठो पर छपी थी कि “दिल्ली  में साढ़े चार साल के बच्चे पर साथ पढ़ने वाली बच्ची के बलात्कार का आरोप”. क्या यह शिक्षा के मंदिर में संस्कारों का कत्ल नहीं था. जबकि हमारा पहला वर्णाश्रम 25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का सन्देश देता है. किन्तु आज हमने इन सब चीजों को छोड़ दिया क्योंकि हम तो अपने बच्चे को पड़ोसी के बच्चे से थोड़ा बेहतर बनाना चाहते हैं. उससे 2 फीसदी भी ज्यादा नम्बर आ जाये तो अपनी निर्धारित सोसाइटी में नाक बची रहे, भले ही वह बच्चा कुसंस्कारी बन जाये, नैतिकता भूल जाये.

एक तीन साल का बच्चा अगर कहता है, ‘मैं वकील बनना चाहता हूं’, तो हर कोई अपने बच्चे से कहेगा, ‘अरे, पड़ोसी का बच्चा वकील बनना चाहता है. अपने बच्चे को डाटने लगते है. बस यही वो गंभीर समस्या है जिसके कारण बच्चे अपनी उम्र से पहले अवसाद ग्रस्त होने लगते है. नतीजा हर वर्ष विभिन्न राज्यों के शिक्षा बोर्ड और सीबीएसई के परिमाण घोषित होने बाद बच्चों के आत्महत्या के आंकड़े हमे शर्मिंदा जरुर करते है.

शिक्षा व्यवस्था में जो बीमारी है वह अपनी जगह सही है किन्तु जो बीमारी समाज में पैठ कर गई है. हमारी शिक्षा व्यवस्था तो बस उसी हिसाब से चलने की कोशिश कर रही है. जिसका खामियाजा बच्चों से लेकर हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति चुका रही है. ऐसे में अचानक बड़े पैमाने पर शिक्षा व्यवस्था को बदल देने का तो सवाल ही नहीं उठता, लेकिन अगर आप इच्छुक हैं तो अपने व अपने बच्चों के लिए इसमें बदलाव ला सकते हैं. कम से कम आप अपने बच्चे को तो उससे बचाइए. अगर आप उन्हें चारों तरफ फैली बुरी शक्तियों से नहीं बचाएंगे, अगर आप उन्हें अपने ढंग से प्रभावित नहीं करेंगे, ध्यान रखें कि उन्हें हर वक्त कोई और अपने ढंग से प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है. जब तक वे एक खास अवस्था तक न आ जाएं और उन्हें समझ में न आ जाए कि क्या और कैसे करना है, तब तक आपका काम उनका बचाव करना और उनका पालन-पोषण करना है. इसके लिए नैतिक और सामाजिक शिक्षा की एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करनी होगी जहां किसी एक बच्चे को दूसरे से बेहतर बनाने के बजाय सिर्फ सिर्फ यह देख सके कि बच्चे का विस्तार किस सीमा तक किया जा सकता है. अगर आप बच्चों को आवश्यक सुविधाएं देंगे, भावनात्मक व मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सहयोग करेंगे, तो वे निश्चित तौर पर ऐसे काम कर पाएंगे, जो शायद आप खुद भी न कर सके हों…

विनय आर्य

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