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जय जवान या जय बयान

बलिदान केवल एक शब्द ही नहीं है बल्कि अपने आप में एक पूरी व्याख्या है। व्याख्या है एक महान उद्देश्य की जिसके लिए प्राण त्याग करने वाले बेख़ौफ होकर छाती पर गोली खाते हैं, खुद को देश के खातिर बलिदान करते हैं। बिना ये सोचे कि उनके पीछे उनके परिवार का क्या होगा। किन्तु जब इस बलिदान को सम्मान के बजाय राजनीति के कफन में लपेटकर बयानों की बारिश की जाये तब बलिदानी जवानों के परिवारों को जो कष्ट और पीड़ा पहुँचती है वो अपने उस प्रियजन के जाने के दर्द से भी बड़ी होती है।

हाल ही में कश्मीर के पुलवामा में हुए हमले जिसमें देश के 40 से ज्यादा जवानों ने अपने प्राण बलिदान किये। लोगों में आक्रोश है देश और सैनिकों से प्रेम करने वाले लोग जब पाकिस्तान को सबक सिखाने की मांग कर रहे हैं। कि अचानक एक के बाद एक कई लोगों के बयान सामने आये। एक तरफ पाकिस्तान को सबक सिखाने और एक-एक बूंद ख़ून का हिसाब चुकाने की कसमें खाई जा रही हैं और दूसरी तरफ इस तरह की बयानबाजी से राजनीति का यह घटियापन डॉ आंबेडकर जी, कृपलानी जी, अटल जी श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरु जी की आत्मा को जरुर छलनी कर रहा होगा। क्योंकि हमारा राजनितिक निर्माण इन्हीं लोगों के साथ शुरू हुआ था। आपसी वैचारिक मतभेद थे किन्तु राष्ट्र की एकता अखंडता के लिए सत्ता और विपक्ष हमेशा एकजुट रहे यही हमारी राजनितिक ताकत कि हमने कई बार दुश्मन को धुल चाटने पर मजबूर किया।

किन्तु आज राजनीति अपने निम्न स्तर पर पहुँचती  दिख रही है। राष्ट्र से बड़े दल और राष्ट्रीय अस्मिता से ज्यादा महत्वपूर्ण वोट हो गये। उरी हमला हुआ जिसमें हमारे 17 जवानों ने प्राण गवांये थे उसके बाद सेना के जवानों ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए दुश्मन के घर में घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक कर जवाब दिया। किन्तु इसके बाद जो राजनीति हुई उससे कौन परिचित नहीं हैं। आज जब समूचा देश पुलवामा हमले को लेकर आक्रोशित है ऐसे में जो बयान सामने आ रहे है वह जय जवान से ज्यादा जय बयान लग रहे हैं। कांग्रेस नेता और पंजाब सरकार में मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने एक किस्म से इस मामले से पाकिस्तान का बचाव यह कहकर किया कि “कुछ लोगों के लिए क्या आप पूरे देश को जिम्मेदार ठहरा सकते है और क्या आप किसी व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा सकते हो? ये सैनिकों की शहादत में अपना पाकिस्तान प्रेम दिखा रहे हैं या वोट इसे थोडा मुश्किल है। लेकिन सवाल यह है कि ये नेता ऐसे वक्त में वो सोच क्यों फैलाने में लगे हैं, जो सोच जाने-अंजाने में राष्ट्रीयता पर चाबुक चलाती है।

सिद्दू के बयान से शोर अभी पूरी तरह बंद भी नहीं हुआ था कि टीवी ऐक्ट्रेस मल्लिका दुआ कहती है कि लोग शोक मना रहे हैं और रैली निकाल रहे हैं। लेकिन इस बात से क्या फर्क पड़ेगा? हर दिन देश में भुखमरी, बिमारी और अन्य कई वजहों से कई लोग मरते हैं। लेकिन देश तो यूं ही चलता रहता है। यहां के नेता साधारण जिंदगी ही जीते हैं और इसमें कोई खास बदलाव नहीं आता। तो फिर हम ये शोक किस लिए मना रहे हैं? इनसे एक कदम आगे बढ़ते हुए दक्षिण भारतीय फिल्म कलाकार से नेता बने अभिनेता कमल हसन तो मानों अपना बयान पाकिस्तान की राजधानी इस्लामबाद से दे रहे थे। उन्होंने कश्मीर के पाकिस्तान वाले कब्जे के हिस्से को आजाद कश्मीर कहते हुए हुए कि श्भारत कश्मीर में जनमत संग्रह क्यों नहीं करा रहा है। भारत सरकार किससे डरती है?

इसमें पहली बात तो यह है कि जनमत संग्रह 21 अप्रैल 1948 को सुरक्षा परिषद ने ‘यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल रेजोल्यूशन 47 पास किया था। इस प्रस्ताव में कहा गया कि कश्मीरी किसके साथ रहना चाहते हैं, इसका फैसला जनमत संग्रह के जरिए होगा. प्रस्ताव में कहा गया हैं कि जनमत संग्रह निष्पक्ष हो, इसके लिए पाकिस्तान अपने वे सैनिक कश्मीर से हटाने होंगे जो वहां लड़ने गए थे। इतिहास को टटोलें तो इस जनमत संग्रह की शर्तों को सबसे पहले पाकिस्तान ने ही मानने से इनकार कर दिया था।

पर बात यही खत्म नहीं होती पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पुलवामा हमले पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने कहा कि चुनावों से ठीक पहले ही इस तरह का हमला क्यों हुआ? यह सवाल बिलकुल बेबुनियाद है क्योंकि 24 जून 2013 को तत्कालीन मनमोहन सिंह कश्मीर में थे उसी दौरान एक चरमपंथी हमले में आठ भारतीय सैनिक मारे गए थे उसी दौरान देश में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव था। वो क्या था तब ममता की सोच कहाँ थी?

असल में पिछले कुछ समय में सबने देखा है कि राजनीति के ठेकेदार अपनी ठेकेदारी पर ठप्पा लगाने वाली मार्केटिंग के लिए नित्य नये फॉर्मूला अपना रहे हैं, जिसमें कभी देश के लिए बलिदान होने वाले जवानों का धर्म बताकर शहादत की संख्या गिनवा रहे हैं। पुलवामा की घटना को लेकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के ताजा बयान पर उन पर परोक्ष रूप से निशाना साधते हुए कांग्रेस ने ने कहा था कि जो लोग इस मामले में राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश कर रहे हैं।

वास्तव में जनता की सेवा करने की भावना से राजनीति में आये ये नेता यदि देश को कुछ नहीं दे सकते कम से कम ऐसे दुखद समय पर अपनी राष्ट्रीयता का परिचय देकर देशप्रेम, देशभक्ति व देश के प्रति समर्पण की भावना का परिचय तो दे ही सकते हैं। शायद तभी देश के लोग राजनीति पर विश्वास करेंगे वरना तो जवानों का बलिदान जय जवान से जय बयान के बीच खड़ा दिखेगा।…राजीव चौधरी

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