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जीवन और मृत्यु का अनुभव

जीवित हुए अथवा मृत्यु को प्राप्त हुए व्यक्तिओं को हम कैसे पहचान सकते हैं ? सामान्य रूप से जो व्यक्ति प्राण धारण किया हुआ है अर्थात् जब तक श्वास-प्रश्वास की क्रिया से युक्त है तब तक उसे हम यह कह देते हैं कि यह व्यक्ति जीवित है। ठीक इसी प्रकार जब श्वास-प्रश्वास की गति रुक जाती है, प्राण छूट जाते हैं, तब हम यह कह देते हैं कि यह व्यक्ति मृत हो गया । यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विचारणीय बिंदु है । यदि हम जीवित रहना चाहते हैं तो इसके ऊपर अवश्य चिन्तन करना चाहिये ।

किसी नीतिकार ने कहा है कि – “स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य स जीवति। गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम्” । जिसके पास सद्गुण हैं, तथा जिसके पास धर्म है, वही वास्तव में जीवित है। गुण और धर्म- दोनों जिसके पास नहीं है, उसका जीवन निरर्थक है, वह व्यक्ति मरा हुआ है । हमें स्वयं निरीक्षण करके देखना चाहिए कि क्या मैं अच्छे अच्छे गुणों से युक्त हूँ अथवा अपने व्यवहार में धर्माचरण करता हूँ या नहीं ? यदि मेरे अन्दर धैर्य, क्षमा, आदि धर्म के दस लक्षण विद्यमान नहीं हैं, और यदि मैंने अच्छे गुणों का संग्रह भी नहीं किया तो फिर मेरा जीवन व्यर्थ ही है । जब हम इस प्रकार स्वावलोकन करने लग जायेंगे तो निश्चित रूप से हमें विदित हो जायेगा कि हम जीवित हैं अथवा मरे हुए हैं ।

और भी कहा गया है कि – “आत्मार्थं जीवलोकेSस्मिन्को न जीवति मानवः | परं परोपकारार्थं यो जीवति सः जीवति |” अर्थात् इस संसार में अपने स्वार्थ के लिए अपना ही कल्याण करने के लिए कौन व्यक्ति प्रवृत्त नहीं होता ? अर्थात् सभी मनुष्य अपने ही प्रयोजन सिद्ध करने हेतु जीवित रहते हैं, इस प्रकार के जीवन का कोई महत्व नहीं है, उसको जीवित रहना नहीं कहा जा सकता, परन्तु जो व्यक्ति अपना स्वार्थ छोड़कर दूसरे के कल्याण हेतु, परोपकार के लिए, प्रयत्नशील रहता है वास्तव में उसी का जीवन ही सार्थक है उसी को कहा जा सकता है कि यह व्यक्ति जीवित है । जो व्यक्ति न अपने समाज के लिए और न ही राष्ट्र की उन्नति के लिए अपना तन-मन-धन समर्पित करता है, ऐसे व्यक्ति को कभी भी जीवित नहीं कहा जा सकता ।

अब आइये देखते हैं कि वेद क्या कहता है इस विषय में – “यस्य छायामृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम” अर्थात् जो ईश्वर हमें आत्मबल का देने वाला है, समस्त संसार जिसकी उपासना करता है, और विद्वान् लोग जिसके अनुशासन का पालन करते हैं, जिसने समग्र सृष्टि की रचना की, पालन कर रहा और समयानुसार विनाश भी करता है, उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना, उसी ईश्वर के सान्निध्य में रहना, शरण में जाना ही अमृतत्व है अर्थात् जो व्यक्ति सदा ईश्वर के सानिध्य में रहता, उसी का ध्यान उपासना करता, उसी की छाया में उसके आज्ञाओं का पालन करता, वास्तव में वही व्यक्ति जीवित है और जो व्यक्ति इसके विपरीत ईश्वर की छाया में नहीं रहता, उसके आज्ञाओं का परिपालन नहीं करता, ईश्वर की भक्ति या उपासना नहीं करता, ईश्वर का यह निर्देश है कि – वास्तव में वह व्यक्ति जीवित है ही नहीं बल्कि वह मरा हुआ है, उसकी मृत्यु हो गयी है, ऐसा समझना चाहिए ।

हम प्रायः प्रातःकाल उठते हैं और सबसे पहले यह अनुभव करते हैं कि मैं जीवित हूँ क्योंकि मैं देख पा रहा हूँ, सुन रहा हूँ, बोल पा रहा हूँ, खाना खा रहा हूँ, पानी पी रहा हूँ, समस्त क्रियाओं को करने में समर्थ हो पा रहा हूँ और मुख्यतः मैं श्वास-प्रश्वास ले रहा हूँ और छोड़ रहा हूँ, प्राणधारण किया हुआ हूँ, अतः जीवित हूँ । परन्तु यह भूल जाते हैं कि मैं वास्तव में जीवित हूँ या मरा हुआ हूँ । केवल खाते-पीते रहने मात्र से, प्राण-धारण किये हुए होने मात्र से ही यह सिद्ध नहीं होता कि मैं सही अर्थ में जीवन व्यतीत कर रहा हूँ ।

मेरे जीवन में यदि प्रतिदिन सत्य, न्याय, परोपकार, सरलता, विनम्रता, दया, आदि कुछ उत्तम गुणों का संग्रह कर पा रहा हूँ और झूठ, छल-कपट, इर्ष्या, द्वेष, क्रोध, आदि कुछ दुर्गुणों का या दोषों का परित्याग भी कर पा रहा हूँ तो मैं वास्तव में जीवित हूँ । इसके विपरीत यदि मैं दोषों को ग्रहण करता जाता हूँ किन्तु गुणों को अपनाने में समर्थ नहीं हो पाता हूँ तो मैं जीवित नहीं हूँ, मरा हुआ हूँ । इस जीवन का मुख्य लक्ष्य है जीवन में ज्ञान, वैराग्य तथा आध्यात्मिकता हो और उससे फिर सुख-शान्ति, आनन्द, उत्साह, दया, परोपकार आदि गुणों का विकास हो। समाधि की प्राप्ति हो, आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार हो, सभी क्लेशों का विनाश हो और हम मोक्ष के अधिकारी बन जायें । यदि हमारी प्रत्येक क्रिया हमारे जीवन के उद्देश्य की पूर्ति में सहायक नहीं हो रही है और हम अपने लक्ष्य की और आगे नहीं बढ़ रहे हैं, तो हमारा जीवन व्यर्थ ही है, हमारा जीना जीना नहीं किन्तु मृत्यु के समान ही है । इस विषय में स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि हमारी क्या स्थिति है ?

आचार्य नवीन केवली

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