Categories

Posts

जीवात्मा के बाहर भीतर व्यापक परमात्मा को जानना मनुष्य का मुख्य कर्तव्य

संसार में अनेक आश्चर्य हैं। कोई ताजमहल को आश्चर्य कहता है तो कोई लोगों को मरते हुए देख कर भी विचलित न होने और यह समझने कि वह कभी नहीं मरेगा, इस प्रकार के विचारों को आश्चर्य मानते हैं। हमें इनसे भी बड़ा आश्चर्य यह प्रतीत होता है कि मनुष्य स्वयं को यथार्थ रूप में जानता नहीं है। वह समझता है कि मैं एक शरीर हूं और इसका भरण पोषण करना, इससे सुन्दर, स्वस्थ आकर्षक बनाकर रखना ही उसके जीवन का उद्देश्य है। धनोपार्जन से मनुष्य को सभी प्रकार की सुख सुविधायें प्राप्त होती हैं। अतः धनोपार्जन ही उसे मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। यहां तक की आज के धर्मगुरु कहे जाने वाले भी नाना प्रकार के साधन अपनाकर धनोपार्जन में ही लगे हुए हैं। उनकी सम्पत्ति का विवरण जाना जाये तो वह शायद भारत के बड़े बड़े उद्योगपतियों से भी कहीं अधिक धनवान हैं। ऐसे मनुष्य आत्मा और परमात्मा की बातें करें तो वह विवेकशील मनुष्यों को उचित प्रतीत नहीं होती। हमारे सामने हमारे ऋषि-मुनियों व योगियों के आदर्श व अनुकरणीय जीवन हैं। इन ऋषि व योगियों में से कभी किसी ने अपने निजी सुख के लिए लोगों से सत्यासत्य का प्रयोग करते हुए धनैश्वर्य की कामना व मांग नहीं की। आश्चर्य यह भी होता है कि धर्म व विवेक से सर्वथा अनभिज्ञ जिन्हें अज्ञानी, मूर्ख व भोला मनुष्य कह सकते हैं, ऐसे लोग धर्मगुरुओं की अनुचित बातों का शिकार हो कर अपना सब कुछ लुटा बैठते हैं और उन्हें यह अहसास तक भी नहीं होता कि उनसे क्या भूल या मूर्खता का काम हुआ है?

                मनुष्य का जीवन मात्र शरीर नहीं अपितु इससे कहीं अधिक है। मनुष्य के भीतर एक चेतन तत्व जीवात्मा है जो अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अल्पज्ञ, जन्म व मरण के बन्धनों में बन्धा हुआ, सद्कर्मों व दुष्कर्मों को करने वाला व ईश्वर की व्यवस्था से वर्तमान व भावी जन्मों में उनके फलों का भोग करने वाला, ससीम, सुख व दुःखों का भोक्ता होने सहित अपनी विद्या को बढ़ाने वाला, वेद ज्ञान को प्राप्त होने में सक्षम व समर्थ तथा वेदानुसार ईश्वरोपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार करने व मोक्ष प्राप्त करने भी समर्थ है। इस जीवात्मा के अनादि काल से अनन्त बार जन्म हो चुके हैं और आगे भी इसी प्रकार से यह अपने कर्मों के अनुसार जन्म व मरण के बन्धनों में फंसा रहेगा। वेदों वा शास्त्रों में ज्ञान प्राप्ति कर्म के फलों का भोग करने के बाद विवेक होने पर मोक्ष का विधान है परन्तु अनुमान से यह मोक्ष ऋषि, योगी बहुत उच्च कोटि के वैदिक विद्वान ईश्वरोपासक जो यम नियमों को अपने जीवन में यथार्थ रूप में सेवन करते हैं, उनको प्राप्त होता है। ऐसे लोग संसार में देखने में या तो आते ही नहीं अथवा प्रायः सामान्य लोगों की दृष्टि से दूर ही रहते हैं। अतः सामान्य व वेद ज्ञानविहीन लोगों की प्रवृत्तियों को देखकर यही अनुमान होता है कि सभी व अधिकांश लोगों का उनके इस जन्म व पूर्व के बिना भोगे हुए कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म होता रहेगा और वह कभी मनुष्य योनि व कभी पशु, पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म लेकर अपने मनुष्य जीवन में किये हुए कर्मों का भोग करते रहेंगे। यह भी तथ्य है कि हम अपने इस जन्म से पूर्व जन्मों को अपनी अल्पज्ञता शरीर परिवर्तन आदि के कारण भूल चुकें हैं जबकि परमात्मा को अनादि काल से अब तक के हमारे केवल सभी जन्मों अपितु सभी कर्मों का भी पूर्ण निर्भ्रान्त ज्ञान है। परमात्मा कभी किसी जीवात्मा के किसी भी कर्म अथवा पूर्व की बातों को विस्मरण नहीं करता या उससे पूर्व की कोई बात कभी विस्मरित नहीं होती है।

                हम उपर्युक्त सभी बातों, सिद्धान्तों व वैदिक मान्यताओं को अपने जीवन में भूले रहते हैं। हमारे धर्म गुरु व विद्वान भी हमें यह तथ्य बताना नहीं चाहते। वह भी प्रायः हमसे धन की अपेक्षा रखते हैं और उसे प्राप्त करने के लिए इधर उधर की अनावश्यक बातें करके हमें खुश रखते हुए व जीवन की यथार्थ सच्चायियों से विमुख रखते हैं जिससे वह भी धन प्राप्त कर सुखों की प्राप्ति कर सकें। आर्यसमाज उसका वैदिक साहित्य ही हमें इन सत्य सिद्धान्तों मान्यताओं से परिचित कराता है। वैदिक साहित्य के अध्ययन से एक अन्य प्रमुख बात हमारे सम्मुख यह आती है कि इस संसार का रचयिता ईश्वर है। ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है। वह हमारी आत्मा के भीतर व बाहर सर्वत्र समान रूप से एकरस व आनन्द से पूर्ण होकर विद्यमान है और हमारे प्रत्येक विचार व कर्म को, भले ही हम उस कर्म को दिन के उजाले में करें या फिर रात्रि के अन्धकार में छुप कर करें, पूर्णतया जानता है। वह कर्म फल प्रदाता है और यथासमय इस जन्म में परजन्म में न्यायपूर्वक अवश्यमेव उनका फल देता है। इस तथ्य को विस्मृत कर हम संसार में शुभ व पुण्य अथवा पाप व अशुभ दोनों प्रकार के कर्म किया करते हैं। पुण्य कर्मों से हमें सुख प्राप्त होता है और पाप कर्म हमारे जन्म जन्मान्तरों में दुःख का कारण बनते हैं। इन दुःखों से बचने के लिए ही परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में हमें वेद ज्ञान दिया था जिससे हम कर्म के स्वरुप व उसके महत्व को समझ सकें और पाप कर्मों से बचकर अपने जीवन की दुःखों से रक्षा कर सकें। परन्तु देखा यह गया है कि बड़े बड़े विद्वान भी पाप करने से पूर्णतया बच नहीं पाते। बड़े बड़े विद्वान व धर्माचार्यों में पूर्ण विद्या नहीं होती। उनमें भी कम व अधिक अविद्या व उसके संस्कार उनके चित्त में होते हैं। उनका नाश व निर्बीज होना तो समाधि प्राप्त कर विवेक की प्राप्ति होने पर ही होता है। अतः विद्वानों से भी अशुभ कर्म व अपराध हो जाते हैं जिसका परिणाम दुःख होता है।

आधुनिक युग में महर्षि दयानन्द जी एक आदर्श पुरुष हुए हैं। उन्होंने केवल योग विद्या को सिद्ध किया, उसे अपने आचरण जीवन में धारण किया अपितु उन्होंने विद्या प्राप्त कर उसका अभ्यास करते हुए वेदों का यथार्थ ज्ञान भी प्राप्त किया था। वह कर्म कर्म फल को वेदादि शास्त्रों से यथावत् जान पाये थे और उसे जानकर उन्हें अशुभ पाप कर्मां का सर्वथा त्याग भी किया था। वेद, वैदिक साहित्य सहित ऋषि दयानन्द जी का जीवन सभी मनुष्यों के लिए एक आदर्श उदाहरण हैं जिसको अपनाकर हम अपनी विद्या बढ़कार सन्मार्ग का अवलम्बन कर सकते हैं। इससे हमें भी लाभ होगा और हमारे सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को भी लाभ होगा। यह जीवन बहुत लम्बा नहीं है। यदि हम अपनी एक सौ वर्ष की आयु की कल्पना करें तो हमारे आरम्भ के 25 वर्ष तो बाल व युवा काल जिसमें हम अध्ययन आदि करते हैं व्यतीत हो जाते हैं। बाद के 75 वर्षों में 25 वर्ष व कुछ अधिक वर्ष हम गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते हैं। इन 25 वर्षों में न्यूनतम एक चौथाई अर्थात् 6 वर्ष से अधिक का समय तो हमारे सोने में ही व्यतीत हो जाता है। आजीविका के कामों में भी हमें प्रतिदिन 8 से 12 घंटे देने पड़ते हैं। यदि औसत 10 घंटे भी माने तो 25 वर्षों में 10 से 11 वर्ष हमारे आजिविका के कार्यों में व्यतीत हो जाते हैं। इस प्रकार लगभग 25 वर्ष में से 16-17 निकल जाने पर हमारे पास 8-9 वर्ष ही बचते हैं। हमारा यह समय भी स्वास्थ्य रक्षा सहित अनेक सामाजिक, धार्मिक आदि अनेक कार्यों को करने में व्यतीत होता है। अतः हमें गृहस्थ जीवन में सुख भोगने के लिए बहुत अधिक समय नहीं मिलता। वानप्रस्थ व संन्यास के 25-25 वर्ष तो साधना व धर्म प्रचार के लिए होते हैं। इसमें जो मनुष्य सुख भोगेगा वह एक प्रकार से अपने परजन्म को किसी न किसी रूप में बिगाड़ता है।

                वैदिक साहित्य के अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि हम जितना अधिक सुख भोगेंगे उतना अधिक हमारी इन्द्रिया व शरीर के अवयव कमजोर व निर्बल होते जाते हैं जो आगे चलकर रोग व आयुनाश का कारण बनते हैं। अतः ईश्वरोपासना एवं यज्ञ प्रधान वैदिक धर्म व संस्कृति ही सर्वोत्तम साधन है जिसका अनुसरण कर मनुष्य अपने इस जीवन को शारीरिक बल की हानि व रोगों से बचाकर अपने परजन्म को भी सुधारता है। अतः हमें वेदों के मार्ग पर ही चलना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के सप्तमसमुल्लास में बृहदारण्यक उपनिषद का वचन देकर उसका हिन्दी अनुवाद किया है। उसमें महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी अपनी पत्नी मैत्रेयी को आत्मा में विद्यमान ईश्वर को जानने की प्रेरणा कर रहे हैं। उपनिषद का वचन है आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो यमात्मा वेद यस्यात्मा शरीरम्। आत्मनोऽन्तरो यमयति आत्मान्तर्याम्यमृतः। इसका अर्थ करते हुए ऋषि दयानन्द लिखते हैं महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी स्त्री मैत्रेयी से कहते हैं कि हे मैत्रेयि! जो परमेश्वर आत्मा अर्थात् जीव में स्थित और जीवात्मा से भिन्न है, जिस को मूढ़ जीवात्मा नहीं जानता कि वह परमात्मा मेरे में (मेरी आत्मा में) व्यापक है, जिस परमेश्वर का जीवात्मा शरीर अर्थात् जैसे शरीर में जीव रहता है वैसे ही जीव में परमेश्वर व्यापक है। जीवात्मा से भिन्न रहकर (परमात्मा) जीव के पाप पुण्यों का साक्षी होकर उन के फल जीवों को देकर नियम में रखता है वही अविनाशीस्वरूप (परमात्मा) तेरा भी अन्तर्यामी आत्मा अर्थात् तेरे भीतर व्यापक है, उस (अपनी आत्मा और परमात्मा) को तू जान।

                हम यदि अपनी आत्मा और परमात्मा को यथार्थरुप में जान लेंगे तो हमें अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य सहित अपने साधनों का भी ज्ञान हो जायेगा और तब हम अपनी आत्मा के प्रति न्यायपूर्वक सत्य व्यवहार कर उसकी उन्नति कर सकते हैं। सांसारिक सुखों में पड़कर हम अपनी आत्मा को निर्बल करते हैं जिसका परिणाम परजन्म में उन्नति न होकर अवनति होता है। पशु, पक्षियों व स्थावर योनियों के उदाहरण हमारे सामने हैं। वेद और सत्यार्थप्रकाश पढ़कर हम जीवन जीने की सही दिशा प्राप्त कर सकते हैं और अपने मनुष्य जीवन को सार्थक कर सकते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *