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धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिन्दूओं के लिए ही क्यों?

जब ये खबर पढ़ी कि बागपत के बाबू खान को कांवड़ लाने की सजा मिल रही है. वह हरिद्वार से कांवड़ लाया था लेकिन कुछ मुस्लिमों युवाओं को रास नहीं आया और अपने मजहब का हवाला देते हुए उसे पीट डाला गया कहा जा अब मंदिर में ही घंटा बजा और कीर्तन कर. इसके बाद बाबूखान ने उनसे नमाज अदा करने देने की मनुहार भी लगाई लेकिन सब व्यर्थ रहा. आरोपियों ने धमकी दी कि जहां चाहे शिकायत कर ले लेकिन तुझे मस्जिद में नहीं घुसने दिया जाएगा. कल तक जब हिंदू-मुस्लिम एकता के गवाह बने बाबू खान को अपने ही समाज के लोगों द्वारा की जा रही उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है.

शायद अब बात-बात पर धर्मनिरपेक्षता, और गंगा-जमुनी तहजीब का हवाला देने वाले लोगों की आँखों से सेकुलरता का पर्दा हटें कि जब हजारों लाखों हिन्दुओं के द्वारा कब्र,मजार या दरगाह पूजने से धार्मिक एकता बढती हैं तो एक बाबु खां के कावड ले आने से मजहब को खतरा क्यों हो जाता है? मजारो पर हिन्दु मुस्लिम एकता का प्रतीक कहकर हिन्दुओं से चादर चढ़ाते दिखाया जाता है. किन्तु एक भी मंदिर में मुसलमानों से पूजा करवाकर हिन्दु-मुस्लिम एकता का उदाहरण क्यों नही पेश कराते? क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिन्दुओ का त्यौहार है.

हम सभी जानते हैं कि हम क्या सोचते हैं इसका मतलब है, लेकिन क्या विचार वास्तव में इतना आसान है, और धर्मनिरपेक्षता का लक्ष्य क्या हमारे लिए अच्छा है? यहाँ एक बात समझ लेनी जरुरी होगी कि दरअसल, भारतीय गणतंत्र के मूल में ही धर्मनिरपेक्षता नहीं थी. यहां यह मान लेने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारतीय राष्ट्रवाद का चरित्र मौलिक रूप से धर्मनिरपेक्ष कभी नहीं रहा. हां, उस पर ‘धर्मनिरपेक्षता’ की परत अवश्य चढ़ा दी गयी लेकिन इसमें कोई राष्ट्रीय एकता का सिद्धांत नहीं था यह केवल वोट लेने की राजनीति तक सीमित रहा.

इस कारण राजनेताओं की राजनीति खंड-खंड होकर लूटमार पर आधारित हो गई. बड़े-बड़े घोटालों और भीषण नव साम्राज्यवादी लूट ने देश को जब खोखला कर दिया तो उनका राजनीतिक प्रभाव भी शून्य हो गया. तब यह लोग धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत घडकर गोल जालीदार टोपी पहनकर राजनीति करते नजर आने लगे.

क्या कोई एक कथित धर्मनिरपेक्ष नेता बता सकता है कि कश्मीर में अपनी जमीन से जबरन खदेडे गए कश्मीरी पंडितों का क्या हुआ? जब जिहाद के नाम पर उन्हें मारा जा रहा था, तब कहाँ थी धर्मनिरपेक्षता? सच्चाई यह है कि कई वर्ष पहले जब औवेसी बंधुओं का हिन्दुओं को ख़त्म करने वाला बयान आया था, तब से ही पूरे देश में उनके समर्थक बढ़ रहे हैं. ये सब बातें किस तरफ इशारा कर रहीं हैं? लेकिन हमें क्या, हम तो शुतुरमुर्ग बन गए हैं और उसी की तरह हमने अपना सिर धर्मनिरपेक्षता की रेत में गाड़ लिया है, लेकिन आँखों को बंद कर लेने से मुसीबत ख़त्म नहीं होती. जब विश्वरूपंम का विरोध करने वालों के लिए मुस्लिम संगठन व मुस्लिम समुदाय जैसे शब्द उपयोग किये जाते हैं तब धर्मनिरपेक्षता बनी रहती है लेकिन जब हिन्दू रानी पद्मावती फिल्म का विरोध करते है तब उन्हें कट्टरपंथी हिन्दू शब्द पकड़ा दिए जाते है जरा सोचिये यह सब करनी वाली मीडिया खुद कितनी धर्मनिरपेक्ष है इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.

हिन्दु-मुस्लिम एकता की बात क्यों की जाती है  जवाहर लाल नेहरु, महात्मा गांधी, इन्दिरा गांधी, डा. राजेन्द्र प्रसाद आदि की समाधि पर उनकी पुण्यतिथि को गीता, कुरान आदि सभी धर्मो की पुस्तकों का पाठ होता है. लेकिन जाकिर हुसैन, मौलाना आजाद, फखरुद्दीन अली अहमद आदि मुसलिम नेताओं की मजार पर केवल कुरान का पाठ होता है. वहाँ यह नेता गीता का पाठ क्यों नही करवाते? क्या धर्मनिरपेक्षता और दूसरे धर्मो की इज्जत करने का ठेका केवल हिन्दुओं ने ही ले रखा है?

पिछले वर्ष दिसंबर, 2017 को, एक मुस्लिम प्रवासी मजदूर मोहम्मद अफ्राजुल को राजसमंद में शंभू लाल रेंगर नाम के आदमी ने हत्या कर दी थी उस समय वाशिंगटन स्थित एक बलूच के कार्यकर्ता अहमार मस्तिखन जो काफी समय से हिंदू धर्म का समर्थक रहा उसनें लिखा आज मेरे सिर से हिंदू धर्म के एक मानवतावादी होने का विश्वास उठ गया. यह बात एक मुस्लिम कह रहा था एक मानसिक रोगी द्वारा की हत्या से उसका विश्वास डोल गया लेकिन अमेरिका में हुए9/11 और भारत में 26/11  हुए ताज होटल पर हमले और इस्लामिक स्टेट द्वारा हजारों यजीदी समुदाय के लोगों की हत्या और रेप के बाद उसका विश्वास कभी इस्लाम से नहीं उठा बस यही वो सवाल है जो धर्मनिरपेक्षता को खंगाल डालते है.

तसलीमा नसरीन भी धर्मनिरपेक्ष है और अरुधंति राय भी. पर कमाल देखिये! अरुंधती को अलगावादी नेताओं और कश्मीर का दर्द तो दिखता है पर बांग्लादेश में हिन्दुओं की चीख नहीं सुनती. दरअसल ये बहरापन नहीं बल्कि एक विचारधारा है. जिसे यहाँ धर्मनिरपेक्षता और अन्य देशों में पागलपन कहा जाता है. अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से पहले ट्रम्प ने अपने एक अहम नीतिगत भाषण में कहा था कि अगर मैं राष्ट्रपति बनता हूं तो मैं राष्ट्र निर्माण के युग को बहुत तेजी से निर्णायक अंत की ओर ले जाऊंगा. हमारा नया दृष्टिकोण निश्चित तौर पर कट्टरपंथी इस्लाम को रोकने वाला होगा. पूरे भाषण में, कुछ मुझे परेशान करता रहा और वह ये था कि मैं एक भी ऐसे भारतीय नेता के बारे में नहीं सोच सकता जो ऐसा भाषण दे सके. शायद तभी आज भारतीय राजनीतिक परिदृश्य आज एक रेगिस्तान बन गया है हमें एक साफ राजनीतिक प्रवचन की आवश्यकता है जिसमें वास्तविक राजनीतिक और धार्मिक समस्याओं पर चर्चा की जा सके लेकिन ऐसा नहीं होगा और हम एकतरफा धर्मनिरपेक्षता की मछली  पकड़ते रहेंगे….लेख राजीव चौधरी

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