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निष्काम भाव से कर्मरत रहने का नाम ही योग है

हम अपने बनाए मंदिरों को साफ-सुथरा रखते हैं, उनमें धूप-दीप जलाते हैं, उन्हें सुगंधित रखते हैं। लेकिन कैसा आश्चर्य है कि ईश्वर की बनायी ’’अष्टचक्रा नव द्वारा देवानां पुरयोध्या’’ अर्थात् आठ चक्र और नौ दरवाजों वाली अयोध्या नगरी में यानी अपने शरीर रूपी मानव मंदिर में हम शराब, मांस, अंडे, भांग, बीड़ी सिगरेट का धुआं सब कुछ डालते हैं। जीवन कला के अभ्यासी को आहार शुद्धि का विचार करते हुए यह भी ध्यान रखना है कि हमारी कमाई भी शुद्ध और सात्विक हो, उसमें कर्मचारियों का रक्त नहीं सना हो।  सामान्यतया समझा जाता है कि योग का अर्थ अग्नि या सूर्य के समक्ष महीनों वर्षों तपना नहीं होता। क्योंकि यदि तपना ही होता तो मोक्ष का अधिकारी पतंगा होता है, जो दीपक पर अपने स्वाहा कर देता है। न जल में वर्षों खड़े होने पर मोक्ष मिलता है, क्योंकि बगुला घंटों पानी में ध्यान मग्न खड़ा रहता है और मछली तो जल में ही उत्पन्न होती है तथा जीवन पर्यंत जल में रहकर अंत में जल में समाधि लेती है। इसी प्रकार ठंडेश्वरी या मौनी बाबा का क्षणिक नाटक है। प्रदर्शन मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने तथा कुछ कमाने का चोखा धंधा है।

योग का वास्तविक अर्थ है कि अपने वर्णाश्रम के अनुसार निष्काम भाव से कर्मरत रहना, वासनाओं की अग्नि में इंद्रियों को तपाकर निर्विषय कर देना और जीवन संग्राम के समस्त दुःखों को प्रभु प्रसाद समझकर उनसे संपूर्ण पुरुषार्थ के साथ विशांक रूप में जूझते रहना। प्रायः समझा जाता है कि ’’लोकोयं कर्म बंधनः’’ अर्थात् कर्म लोक बंधन का कारण है। लेकिन योग इसके विपरीत हमें सिखाता है कि कर्म ही बंधन मुक्ति का साधन है। अब प्रश्न है कि कौन सा कर्म है जो योग बन गया है, यज्ञ बन गया है। कर्म में यह कौशल कि वह यज्ञ बन जाये, यही योग है और यही जीवन कला है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ’’योगः कर्मसु कौशलम्’’ अर्थात् कर्म में कौशल उसे यज्ञमय में बना देता है, प्रभु से वियोग नहीं योग कराता है अथवा मिलाता है। इस प्रकार ज्ञान पूर्वक किए गए कर्म जब यज्ञ का रूप लेते हैं तो वही उपासना बन जाते हैं।

ज्ञान, कर्म और उपासना का यह त्रिवेणी संगम मानव का मोक्ष तीर्थ बन जाता है। कानों से हम भद्र सुनें, आंखों से अभद्र देखें, धरती को मधुरता से सींचने के लिए शहद जैसा मीठा और हितकारी भद्र वचन कहें। मस्तिष्क से भद्र चिंतन, हाथों से भद्र कर्म और पांवो से भद्र चलन करें तब होगा हमारा आत्म यज्ञ। इसी को वेद माता ने इसे षड् योग भी कहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसे समत्व योग कहा है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! संसार के सारे दुःख संग के कारण हैं। योग और कुछ नहीं है कर्म करते हुए सिद्धि-असिद्धि में समभाव बनाए रखना, परमात्मा के साथ युक्त रहना, अपने को उसी के हाथों से देना ही योग है। वहीं हमारे भीतर के शत्रु काम, क्रोध, लालच, लालसा, झूठ, बेईमानी, दुराचार आदि हैं। मनुष्य कितने ही आविष्कार क्यों न कर ले, कितना ही बड़ा साम्राज्य क्यों न खड़ा कर ले लेकिन जब तक उसके भीतर ये शत्रु बैठे हैं तब तक बाहर की जीत, जीत नहीं हार है। क्योंकि जितना ही वह लालच और लालसा, झूठ और बेईमानी से बाहर का सामान जुटाता जाएगा उतना ही उसका लालच, उसकी लालसा, उसकी बेईमानी, उसकी दूसरों का खून पीने की प्यास बढ़ती जाएगी। जीत तो तभी होगी जब जिस प्यास को बुझानें तुम निकले हो, वह प्यास बुझ जाएगी। क्या सिकंदर की प्यास बुझी ? क्या नेपोलियन की प्यास बुझी ? क्या हिटलर और मुसोलिनी की प्यास बुझी ? यह सब अपनी लालसा की प्यास में ही डूब गये।

प्रश्न है कि क्या कोई ऐसा रास्ता है जिससे मनुष्य भीतर के इन शत्रुओं से जीता जा सके। इसका उत्तर भारत की संस्कृति के पास है। वह है योग दर्शन के रचयिता पतंजलि मुनि के पांच यम। अपने तथा मानव समाज के जीवन के भवन को वैदिक संस्कृति के उन पांच आधार स्तंभों पर खड़ा कर देना, जिनकी नींव पाताल तक तथा चोटी हिमालय के शिखर तक चली गई है, यह पांच यम हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इन्हीं को योग भी कहा गया है। योग का अर्थ अपने को संपूर्ण रुप से मानव-देव-ऋषि बनाना है और इसका साधन प्रभु के मंदिर मानव शरीर की एक-एक इंद्रिय को उपयोगी बनाना है।

लेखक: विवेक प्रिय आर्य मथुरा, उत्तर प्रदेश

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