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भारतीय राष्ट्रवाद से खतरा क्यों ?

साल 2018 अभी ठीक से आधा भी नहीं बीता कि जून माह के शुरूआती दिनों तक ही विश्व भर में आतंकवादियों द्वारा करीब 576 हमले किये गये जिनमें तकरीबन 2,977 मौतों के आंकड़े उपस्थित हो चुके हैं। हमेशा की तरह इन सब में समान रूप से यही प्रचारित किया जा रहा है, कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता। चाहे बगदाद का हमला हो, कंधार का हो। हमला कश्मीर में हुआ हो या अमेरिका, यूरोप के किसी भी देश में। जबकि इनमें 95 फीसदी हमलावर इस्लामिक स्टेट, तालिबान, बोको हरम, अल शाहबाब, जैश-ए-मोहम्मद या फिर लश्कर जैसे आतंकी संगठनों जुड़े रहे हैं।

किन्तु इसी दौरान अमरीकी रियलिटी टीवी शो ‘‘क्वांटिको’’ में अचानक डायलॉग होता है कि ‘‘ये पाकिस्तानी नहीं है। इसके गले में रुद्राक्ष की माला है। ये किसी पाकिस्तानी मुसलमान के गले में नहीं हो सकती। ये एक भारतीय राष्ट्रवादी है जो पाकिस्तान को फंसाने की कोशिश कर रहा है।’’ ये डायलॉग कोई और नहीं बल्कि खुद एक भारतीय होकर प्रियंका चोपड़ा इस शो में बोल रही है। बताया जा रहा है कि प्रियंका धीरे-धीरे अमेरिका में अपने पंख पसार रही है और अमेरिका के मुख्यधारा के टेलीविजन ड्रामा एबीसी के ‘क्वांटिको’ का हिस्सा बनी है।

ये प्रियंका का कोई राष्ट्रद्रोह नहीं है क्योंकि प्रियंका इस डॉयलॉग की मालिक नहीं है। डॉयलॉग का मालिक तो कोई और ही रहा होगा पर प्रियंका को सोचना चाहिए था कि देश-विदेशों बसे लाखों लोगों को वहां सम्मान की नज़र से देखा जाता है। इस कारण ये बेहद दिल दुखाने वाला है कि इन सबसे कैसे उन लोगों की छवि को नुकसान पहुंचेगा। जो भारतीय ये टीवी ड्रामा देख रहे होंगे उन पर इसका क्या असर पड़ा होगा। अपने व्यंजनों  से लेकर योग और धार्मिक शिक्षाओं के बल पर अपनी उदारवादी जीवन शैली से आगे बढ़ने वाले भारतीय लोगों को अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों के सामने जरूर इस डॉयलॉग से धक्का सा लगा होगा।

कल किसी को भी क्वांटिको शो के बारे में कुछ भी याद नहीं रहेगा पर भारतीय राष्ट्रवाद पर दिया गया ये डॉयलॉग शायद ही कोई भूले। एक तो पहले से ही अमेरिका और आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर नश्लीय हमले बढ़े हैं जिस पर भारतीय विदेश मंत्रालय कई बार अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। ऊपर से ऐसी चीजें वहां के जनसमुदाय के सामने परोसना अगले हमलों की दावत देने जैसा है।

असल में अमेरिकी टेलीविजन श्रृंखला एशियाई लोगों की पहचान अधिकांश इसी तरह जारी रखती है किन्तु जब उनके यहाँ कोई हिंसक वारदात होती है तो अपनी पहचान बदल लेते हैं। पिछले वर्ष अक्टूबर में अमेरिका के लास वेगास में संगीत समारोह में हुए हमले में 58 लोगों की जान लेने और 500 से ज्यादा लोगों को घायल करने वाले हत्यारे स्टीफन पैडक को लोन वुल्फ, जुआरी जैसे नामों से पुकारा गया। अगर पैडक अन्य धर्म से होता तो उनके लिए तुरन्त आतंकवादी शब्द नहीं लिख दिया जाता? मसलन कोई गोरा और ईसाई ऐसा हमला करे, तो उसे अचानक मानसिक रूप से बीमार बता दिया जाता है।

लेकिन इसके उलट हमारे यहाँ 2007 में अजमेर दरगाह विस्फोट में पिछले साल भावेश पटेल और उसके साथी को आजीवन कारावास की सजा सुनाये जाने के बाद अगले दिन हिन्दुस्तान टाइम्स की हैड लाइन समेत देश-विदेश के मीडिया ने लिखा था ‘‘अजमेर दरगाह विस्फोट केस में दो हिन्दू आतंकियों को आजीवन कारावास’’ शायद इस तरीके के मुख्य समाचार ही विदेशी मीडिया की अवधारणा को पुष्ट करते हैं।

भारत में भी साजिश के तहत इस अवधारणा को पोषित तथा पल्लवित किया जा रहा है आखिर ऐसा क्या कारण आन पड़ा था जो एक भारतीय को आतंकी दिखाना पड़ गया। दरअसल ये सब अचानक नहीं हुआ। ना ही ये सब कथित गौरक्षा के नाम पर अखलाक या जुनैद और पहलु खां की मौत के बाद शुरू हुआ। इसे समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। जब साल 1999 में, एक आस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेनेंस को कथित धर्मांतरण के शक में उड़ीसा में अपने दो युवा बेटों के साथ एक व्यक्ति द्वारा जिंदा जला दिया गया था तो इस दुर्भाग्यपूर्ण एक घटना के बाद से ही कुछेक पश्चिमी लेखकों ने हिन्दू चरमपंथ जैसे शब्दों को घड़ा था। इस घटना से भारत विरोधी विचारधारा वाले लेखकों को संजीवनी सी मिल गयी थी। बस, फिर क्या था, बाकी लोग भी इस बहती गंगा में हाथ धोने और हिन्दू आतंकवाद नाम की चिंगारी भड़काने में लग गये। आखिर कोई ये क्यों नहीं सोचता कि यदि पहलू खां एक मुसलमान होने के नाते मारा गया था, तो क्या पिछले वर्ष अमरनाथ जाने वाले वे बदनसीब यात्री हिन्दू होने के नाते नहीं मारे गये थे?

ऐसा नहीं है कि हिन्दू चरमपंथ जैसे शब्दों को घड़ने में सिर्फ विदेशी मीडिया का ही हाथ रहा हो, नहीं! साल 2008 की बातचीत जिसमें राहुल गांधी ने तत्कालीन अमेरिकी राजदूत टिमोथी रोमर से कथित तौर पर कहा था कि कट्टरपंथी हिन्दू समूहों की अधिकता पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए तैयबा की तुलना में भारत के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है। पिछले वर्ष ही जब कश्मीर से लश्कर ए तैयबा के एक आतंकी संदीप शर्मा जो इस्लाम अपना चुका था को जब तक पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया, तब तक इस आतंकवाद का कोई मजहब नहीं था। लेकिन इसके बाद अखबार के शीर्षक छपे वे पत्रकारिता की निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं। शीर्षक थे ‘‘एलईटी का हिन्दू सदस्य संदीप शर्मा पटियाला में रहता था’’ (टाइम्स ऑफ इंडिया)  यूपी से पकड़ा गया हिन्दू आतंकवादी, भाई कहता है यदि सच है तो गोली मार दे उसे (हिंदुस्तान टाइम्स)

मीडिया ने संदीप को लश्कर के प्रथम हिन्दू आतंकवादी के तौर पर चित्रित किया था। कुछ भाड़े के लोगों को घुसपैठ कराकर सोशल मीडिया के द्वारा एक मुहीम चलाई जा रही है। हमारे कुछ बुद्धिजीवी पत्रकार, नेता, कलाकार तथा तथाकथित सेकुलर पार्टियां भी इसमें सम्मिलित होकर आग में घी का काम कर रहे हैं। जबकि हम कोई सऊदी अरब, पाकिस्तान या ईरान जैसे धार्मिक प्रतिक्रियावादी देश नहीं हैं। कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएँ हुई हैं जो शर्मनाक थीं लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है समूचे बहुसंख्यक वर्ग समेत भारतीय राष्ट्रवाद को विश्व के लिए खतरे के रूप में परोसकर शोर मचाएं!….

लेख-राजीव चौधरी

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