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भारत की रीत से बच सकती है दुनिया ?

दुनिया के महान और मशहूर भौतिकशास्त्री स्टीफन हॉकिंग ने 5 मई को दुनिया को चेतावनी देते हुए कहा है कि धरती के पास सिर्फ 100 साल, बचे हैं, इंसान को दूसरे ग्रह में अपना ठिकाना तलाशना होगा. ऐसे में सवाल उपजता है क्या धरती का काउंटडाउन शुरू हो गया है? क्या धरती की उम्र सिर्फ 100 साल बची है? क्या 22वीं शताब्दी धरती की तबाही के नाम होगी? क्या मानव सभ्यता धरती पर पूरी तरह 100 साल में खत्म हो जाएगी? सवाल बहुत सारे हैं क्योंकि सवाल सिर्फ एक जिंदगी का नहीं बल्कि पूरी मानव सभ्यता का है.  धरती में जलवायु परिवर्तन, तेजी से बढ़ती जनसंख्या, करीब से गुजरते उल्का पिंडों के टकराने का खतरा तो युद्ध उन्माद में डूबे आक्रमक होते इंसानों के हाथों में न्यूकलियर हथियारों का होना अनिश्चित भविष्य का संकेत है. ऐसे में हॉकिंग का सौ साल का अल्टिमेटम ही सिहरन पैदा करने के लिये काफी है.

धरती के पर्यावरण का चीरहरण आदि से अनंत की तरफ बढ़ रहा है. धरती की खूबसूरती में इंसानी अतिक्रमण ही उसके बेदखल होने की वजह बनेगा. कटते जंगल और बढ़ते सीमेंट के जंगलों से बने शहरों से निकलता विषैला धुआं, फैक्ट्रियों, कारखानों और मोटर-कारों से निकलता जहर आब-ओ-हवा को गैस चैंबर बनाता जा रहा है. न जमीन पर जीवों के लिये साफ जल और वायु बचा है और न पानी के भीतर मौजूद जीवों के लिये पानी. समुद्र के किनारों पर व्हेल मछलियों का मृत मिलना तो आसमान से पक्षियों का बेसुध होकर जमीन पर गिरना अजब-गजब खबरों में गुम हो जाता है.

लेकिन इसके बावजूद भी कोई जंग के लिए संसाधन जुटा रहा है तो कोई मुक्त व्यापार का रास्ता खोजकर दुनिया पर शाशन करना चाह रहा है. लेकिन इस समय कुछ ऐसे भी लोग है जो मानवता के लिए उसके जीवन के लिए आने वाली भावी पीढ़ी के लिए साफ हवा, पीने योग्य पानी और स्वच्छ वातावरण कैसे रहे इस पर शोध कर रहे है. ताकि आने वाली मानवता उन्मुक्त साँस ले सके. परन्तु जब सांस ही जहरीली हो जाए, तब उससे जीवन की आशा क्या की जा सकती है? वस्तुतः सांस की सार्थकता वातावरण की मुक्तता में निहित है. आज वातावरण मुक्त है कहाँ? मुक्त वातावरण का अर्थ है आवश्यक गैसों की मात्रा में सन्तुलन का बना रहना. चूँकि पेड़ एवं जन्तु दोनों ही वातावरण-सन्तुलन के प्रमुख घटक हैं, इसलिए दोनों ही का सन्तुलित अनुपात में रहना परमावश्यक है. वेदों में वृक्ष-पूजन का विज्ञान है. इसके विपरीत, आज पेड़-पौधों की निर्ममता-पूर्वक कटाई से वातावरण में कार्बन-डाइऑक्साइड की मात्रा में अतिशय वृद्धि हो रही है. इससे तापमान अनपेक्षित मात्रा में बढ़ता जा रहा है, जो पर्यावरण के लिए संकट का सूचक है.

यदि बात जलवायु परिवर्तन से लेकर पर्यावरण से जुड़े संवेदनशील मामले पर हों तो हमें दुनिया को  वेद का मार्ग बताने में हिचक नहीं चाहिए वेद जो जो सफल जीवन का निर्माता-अग्रणी नेता है. उसे स्वयं आगे आकर समस्त परिवेश का हित करनेवाला,  मनुष्य और समाज सच्चा संचालक माना गया है. पृथ्वी पर होने वाली कुछ रासायनिक क्रियाओं से पर्यावरण में फैलने वाले प्रदूषण के कारण आकाश स्थित ओजोन की परत में एक बड़ा छिद्र हुआ है यदि इसी गति से होते रहेंगे तो पैराबैंगनी किरणों को रोकना संभव नहीं रहेगा. मतलब साफ है की जहरीली किरणों को रोकने का कोई उपाय हमारे पास नहीं रहेगा. और इसका परिणाम यह होगा कि कैन्सर, आँखों की ग्रन्थि आदि भयंकर रोगों का शिकार होंगे.

आप सब जानते है आज जब हमें प्यास लगती है तो उसे बुझाने के लिए बीस रूपये की मिनरल वाटर की बोतल खरीदनी पड़ती है. कारण आज हमारे आस-पास पानी दूषित हो चूका लेकिन कल अगर हम स्वच्छ वायु के लिए ओक्सीजन सिलेंडर पीठ पर बांधकर चले तो इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता. यदि कोई सोच हो कि नहीं ऐसा तो नहीं होगा तो उनसे बस यह सवाल है कि क्या आज से बीस वर्ष पहले किसी ने सोचा था कि हमें साफ पानी के लिए घरों में फिल्टर आदि लगाने पड़ेंगे? यदि आज प्रदूषण से उत्पन्न महाविनाश के विरुद्ध सामूहिक रूप से कोई उपाय नहीं किया जायेगा तो इस युग में मानव जीवित नहीं रह पायेगा.

प्रकृति के इस भयावह असंतुलन से बचने के लिए जहाँ विश्व के लोग विज्ञान के और दौड़ रहे है वहीं अनेकों वैज्ञानिक उपाय समाधान और आशा की खोज में हमारे वेदों की और लौट रहे है. रूस के प्रसिद्ध वैज्ञानिक शिरोविच ने लिखा है कि गाय के घी को अग्नि में डालने से उससे उत्पन्न धुंआ परमाणु विकिरण के प्रभाव को बड़ी मात्रा में दूर कर देता है. हमारी आध्यात्मिक पद्धति में इस क्रिया को यज्ञ कहा जाता है. जलती शक्कर में वायु शुद्ध करने बड़ी शक्ति विधमान है इससे चेचक, हेजा, तपेदिक आदि बीमारियाँ तुरंत नष्ट हो जाती है. पर्यावरण पर शोध करने वाले फ्रांस के वैज्ञानिक ट्रिलवर्ट ने यह बात दावे के साथ लिखी है कि मुनक्का, किशमिश आदि फलों को (जिनमें शक्कर अधिक होती है) को जलाकर देखा तो पता चला कि आन्त्रिक ज्वर के कीटाणु 30 मिनट और दुसरे कीटाणु एक या दो घंटे में नष्ट होते है. पर्यावरण के इस विज्ञान में डॉ. कर्नल किंग कहते है कि केसर तथा चावल को मिलाकर हवन करने से प्लेग के कीटाणु भी समाप्त हो जाते है.

आज यज्ञ विज्ञान को दुनिया के बड़े-बड़े शोधकर्ता पर्यावरण को बचाने में एकमात्र सबसे सरल उपयोग का साधन बता रहे है हमारे तत्त्वदर्शी ऋषियों के निर्देशों के अनुसार जीवन व्यतीत करने पर पर्यावरण-असन्तुलन की समस्या ही उत्पन्न नहीं हो सकती. पर्यावरण-सन्तुलन से तात्पर्य है जीवों के आसपास की समस्त जैविक एवं अजैविक परिस्थितियों के बीच पूर्ण सामंजस्य. इस सामंजस्य का महत्त्व वेदों में विस्तारपूर्वक वर्णित है विश्व विख्यात इतिहासकार आर्नोल्ड टॉयनबी ने मानवता के लिए भविष्य की राह देखी थी. उन्होंने कहा है कि बीसवीं सदी के अंत तक विश्व पर पश्चिमी प्रभुत्व रहेगा किन्तु 21वीं सदी में भारत उन देशों को जीत लेगा जिन्होंने कभी उसे पराजित किया था. और भारत की यह जीत उसके अध्यात्म के बल पर होगी, हथियारों के बल पर नहीं. टॉयनबी का स्पष्ट विचार था कि मानवता को यदि आत्मविनाश से बचना है तो उसे पश्चिमी तौर-तरीके से प्रारंभ हुए अध्याय का समापन भारतीय रीति-रिवाज और वेदों के माध्यम से करना ही होगा. बात सच होती दिख रही है. दुनिया भारतीय आध्यात्म में संस्कृति की सुगंध अनुभव कर रही है. लेकिन इसमें आप और हम मिलकर सहयोग करेंगे तभी मानवता बच सकती है.

विनय आर्य

 

 

विनय आर्य

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