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मदरसों से परेशान पाकिस्तान

आतंकवाद की परवरिश करने वाला पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय दबाव के बीच एक बड़ा एक्शन लेने के लिए मजबूर हुआ है। इमरान खान शासन ने पाकिस्तान में चल रहे 30 हजार से ज्यादा मदरसों को सरकार के अधीन लाने का निर्णय लिया है। इन मदरसों में अब मुख्यधारा की विषयों को भी पढ़ाया जाएगा। यानि पाकिस्तान ये मानने को तैयार हो गया है कि मदरसों से आतंक की फैक्ट्री चलाई जाती है। पुलवामा के बाद पाकिस्तान ने 182 मदरसों को अपने कंट्रोल में लेने और प्रतिबंधित गुटों के 100 से ज्यादा आतंकियों को गिरफ्तार किया था और यह दिखाने का प्रयास किया था कि वह आतंक के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है।

हालाँकि इससे पहले पाकिस्तान के पेशावर स्कूल पर हमले में जिसमें कि 150 छात्रों का कत्ल कर दिया गया तब पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियों ने खुले तौर पर इसमें मदरसो की भूमिका को स्वीकार किया था। इसके बाद दिसम्बर 2017 में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने मदरसों की तीखी आलोचना करते हुए कहा था इस्लाम की शिक्षा देने वाले मदरसों की अवधारणा पर एक बार फिर ध्यान देना होगा। क्योंकि यह छात्रों को आधुनिक दुनिया के लिए तैयार नहीं करते बाजवा ने सवाल पूछते हुए कहा था आज पाकिस्तान के मदरसों मे करीब 25 लाख बच्चे पढ़ते हैं लेकिन वे क्या बनेंगे, क्या वे मौलवी बनेंगे अथवा आतंकवादी बनेंगे?

यदि यह प्रश्न भारत के संदर्भ में देखा जाये तो आधुनिक शिक्षा प्रणाली  से मदरसों की दूरी मापते हुए कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने भी मदरसों को खत्म करने की पैरवी की थी। उन्होंने भारत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर मांग की थी कि वक्त आ गया है कि मदरसा शिक्षा को मुख्यधारा से जोड़ा जाए। रिजवी ने इस पत्र में लिखा था कि कुछ संगठन और कट्टरपंथी मुस्लिम बच्चों को सिर्फ मदरसे की शिक्षा देकर उन्हें सामान्य शिक्षा की मुख्यधारा से दूर कर रहे हैं। मदरसों में जो बच्चे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, उनकी शिक्षा का स्तर निचली सतह का है। ऐसे बच्चे सर्व समाज से दूर होकर कट्टरपंथ की तरफ बढ़ रहे हैं, ऐसे में मदरसों को खत्म करने की जरूरत है और उसकी जगह सामान्य शिक्षा नीति बनाई जाए। वसीम रिजवी ने एक प्रश्न देश के सामने यह भी रखा था कि मदरसों ने कितने डॉक्टर, इंजीनियर और आईएएस अफसर पैदा किए हैं?  लेकिन कुछ मदरसों ने आतंकी जरूर पैदा किए हैं। मदरसों में शिक्षित युवा रोजगार के मोर्चे पर अनुत्पादक होते हैं। उनकी डिग्रियां सभी जगह मान्य नहीं होती और खासकर निजी क्षेत्र में जो रोजगार है, वहां मदरसा शिक्षा की कोई भूमिका नहीं होती। ऐसे में पूरा समुदाय समाज के लिए हानिकारक हो जाता है।

वसीम रिजवी और बाजवा के बयान को मिलाकर देखा जाये तो कई चीजें निकलकर सामने आती है कि मध्यकाल से लेकर अब तक चूँकि विश्व की सभ्यताओं में सामाजिक और संस्कृतिक चेतना में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। इस परिवर्तन को अगर अरब देशों में ही देखें तो जहाँ लोग कबीलों में जीवन गुजारते थे आज वहां गगनचुंबी इमारते हैं। किन्तु इन सब परिवर्तनों के बावजूद जब वहां के मदरसों में प्रवेश करते हैं तो उनकी इमारते तो भव्य दिखाई लेकिन शिक्षा के नाम पर आज भी रुढ़िवादी शिक्षा का इस्लामिक पाठयक्रम ही दिखाई देगा। यदि कुछ मदरसे आधुनिक होने का दंभ भी भरते तो वहां लगे अत्याधुनिक कम्प्यूटर की हार्डडिस्क में भी मध्यकाल की पुरातन कथा, लाइब्रेरी में गौरवशाली इस्लामिक इतिहास, कुरान-हदीश और अन्य इस्लामिक विद्वानों की पुस्तक ही मिलेगी।

यानि अधिकांश मदरसों के अन्दर रुढ़िवादी सोच को परोसना तथा अपने अन्य मत’मतान्तरो के लोगों की पूजा उपासना के प्रति नफरत और विश्व में इस्लामी साम्राज्य की स्थापना का रह गया है।  एक किस्म से कहें तो मदरसों में इस्लामिक शिक्षा के नाम पर एक भीड़ तैयार हो रही हैं जो आधुनिकता को एक सिरे से खारिज करती दिख रही हैं। इसका जीता जागता एक ताजा उदहारण यह भी है कि वसीम रिजवी के लिखे पत्र के बाद एक टीवी प्रोग्राम की बहस में इस्लाम का पक्ष रखते हुए एक भारतीय मौलाना ने खुलकर स्वीकार किया था कि मदरसों के जरिये हम लोग नमाज पढने और पढ़ाने वाले ही तैयार करते हैं।

हालाँकि ये अकेले रिजवी का मत नहीं था इससे पहले भारत में इराक के तत्कालीन राजदूत फाख़री हसन अल ईसा ने भी कहा था कि चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट ने भारत में स्लीपर सेल स्थापित किए हो सकते हैं। भारत समेत कई देशों में विदेश से फंड हासिल करने वाले मदरसों में जो इस्लाम सिखाया जा रहा है वह इस्लामिक स्टेट के उदय के लिए जिम्मेदार है। ये खबर द हिंदू अख़बार में भी छपी थी कि भारत को मदरसों और इस्लामी उपदेशकों पर नजर रखनी चाहिए कि वो किस तरह के इस्लाम की सीख दे रहे हैं।

भारत के संदर्भ में कही गयी उपयुक्त दोनों ही बातों को इस्लामवादियों की ओर से खारिज किया गया था, किन्तु ये प्रश्न अपनी जगह खड़ें रह गये और उनका जवाब किसी भी इस्लामवादियों ने देना उचित नही समझा था। यदि मदरसे शैक्षिक संस्थान हैं केवल अपने समुदाय के लिए विशेष ना होते। तो क्या यह वास्तव में सांप्रदायिक अड्डे हैं? जिनका उद्देश्य धर्म की सेवा नहीं बल्कि अपने मजहब का प्रचार हैं जो कि राष्ट्र को संप्रदायों में विभाजित करने के लिए बना रहे हैं? क्योंकि भारतीय इतिहास अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उपजे बंटवारे के बीजों को भुला नहीं सका है। जिसे इस सवाल से चिढ हो वह कम से कम इन मदरसो का मुख्य ध्येय तो बता ही सकता है?

आखिर क्या कारण है भारत जैसे विविधता भरे समाज में जिन मदरसों में हिंदी और अंग्रेजी की तालीम के उलट अरबी, फारसी, उर्दू की तालीम दी जा रही है। साथ-साथ तकनीकी प्रशिक्षणों जैसे कंप्यूटर प्रशिक्षण, इंजीनियिरंग, मेडिकल, सीए, वकालत, आदि जैसे अन्य प्रकार के प्रोफेशनल शिक्षा की तालीम नदारद है। सिर्फ दीनी तालीम के भरोसे बैठे लोगों को मदरसे क्या देंगे इसका अंदाजा सहज लगाया जा सकता है, लेकिन प्रश्न के ये अक्षर जवाब के बजाय गुस्से और तुष्टीकरण की राजनीति से ढक दिए जा रहे है। इस विषयों पर बहसें होती है पर कभी हल नहीं निकलता।

 राजीव चौधरी 

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