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महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ आध्यात्मिक व सामाजिक

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सच्चे शिव की खोज में 18 वर्ष की अवस्था में अपने घर व परिवार का परित्याग किया। घर पर रहकर वह अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर सकते थे। वह 36 वर्ष की अवस्था तक अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु यत्र-तत्र भ्रमण करते हुए सन् 1960 में मथुरा में वेद, आर्ष ग्रन्थों के पारदर्शी  विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में पहुंचें। उनके पास 3 वर्ष तक रहकर आर्ष व्याकरण पाणिनी-अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरूक्त पद्धति सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया जिससे वह अपने लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों को पूर्णतया जान सके। अध्ययन समाप्ति पर गुरू-दक्षिणा के अवसर पर गुरूजी ने उनसे अपना सारा जीवन वेदों के पुनरूद्धार में लगाने व देश से अनार्ष ज्ञान को हटा कर उसके स्थान पर वेद व आर्ष कहे जाने वाले ऋषियों के ज्ञान को स्थापित करने के लिए वचन लिया। महर्षि दयानन्द ने गुरू को उनकी इच्छानुसार कार्य करने का वचन दिया और वहां से कुछ दूरी पर आगरा में अवस्थित होकर लगभग 18 माह तक गहन चिन्तन-मनन-विचार कर योजना को अन्तिम रूप दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी योजना में अवतारवाद, मूर्ति पूजा, बाल व बेमेल विवाह, अशिक्षा, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वासों, कुरीतियों व असत्य मतों का खण्डन, वैदिक मत को तर्क, प्रमाणों व युक्तियों से प्रस्तुत करना तथा उनका मण्डन करना, सत्य मत की स्थापना के लिए शास्त्रार्थ, वार्तालाप, शंका समाधान आदि का आश्रय सम्मिलित था। अध्ययन व विचार करने पर हमें लगता है कि लेखन कार्यो को महत्व देना, मण्डन व खण्डन से सम्बन्धित किसी ग्रन्थ का निर्माण करना, वेदों का भाष्य करना, संस्कारों व ईश्वर की प्रार्थना-विनय पर पुस्तक या ग्रन्थों की रचना का विचार यहां उनमें प्रादूर्भूत नहीं हुआ था। हिन्दी भाषा उनके उपदेशों व प्रवचनों की भाषा हो, इसका भी विचार या निर्णय उन्होंने नहीं लिया था। वह संस्कृत में वार्तालाप एवं इसी में उपदेश दिया करते थे। आर्य समाज जैसी किसी संस्था की स्थापना का विचार भी उनके मन व मस्तिष्क में नहीं था। वह गुरू को दिये हुए वचन के अनुसार कार्य आरम्भ कर चुके थे। आगरा से आगे भी जाना था। वह वहां से ग्वालियर की ओर चले और जहां भी जाते वहां पौराणिक व कथित सनातनधर्म के अनुयायियों से मिलकर उन्हें वैदिक धर्म का उपदेश करते, मूर्ति पूजा आदि अवैदिक कृत्यों का खण्डन करते तथा विपक्षियों व विरोधियों को शास्त्रार्थ की चुनौती देते। इस क्रम में काशी के आनन्द बाग स्थान में 16 नवम्बर, सन् 1869 ई. को काशी नरेश श्री ईश्वरीनारायण सिंह की अध्यक्षता में वहां के 27 प्रमुख पण्डितों से मूर्ति पूजा को वेदों से सिद्ध करने पर शास्त्रार्थ हुआ। लगभग 50 हजार दर्षकों में 2 पादरी भी उपस्थित थे। इस शास्त्रार्थ से उनका यश व कीर्ति न केवल देश में अपितु विश्व के कुछ देशों तक भी जा पहुंची थी। इस घटना ने सारे देश को प्रभावित किया था। सभी विद्वानों व पण्डितों के मूर्तिपूजा के संस्कार इस अवैदिक कृत्य से गहराई से जुड़े हुए थे। स्वार्थ भी इसको न छोड़ने के प्रमुख कारणों में से एक था। उन काशी के पण्डितों की सभी युक्तियां, तर्क व प्रमाण असत्य सिद्ध हो जाने पर भी उनके मानने वालें वेदों के सत्य मत जो ईश्वर को सच्चिदानन्द, अजन्मा, शरीर व नस-नाड़ी के बन्धनों से रहित, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता, जगत का धारक व पालक, कर्म-फल-व्यवस्था का संचालक मानता है, वेदों के उस पूर्ण सत्य को स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं थे। न केवल वह अपने अवैदिक मत में स्थित रहे अपितु अपने अनुयायियों में भी असत्य का आश्रय लेकर नाना प्रकार के भ्रम उत्पन्न करते रहे जिससे सत्य पूरी तरह स्थापित नहीं हो सका और देष अन्धविश्वासों, पाखण्ड, कुरीतियों व अज्ञान से मुक्त नहीं हो सका।

इस घटना से महर्षि दयानन्द की देश भर में प्रसिद्धि हो जाने से यत्र-तत्र लोग उनके दर्शन करने, उनका सत्संग प्राप्त करने और उनसे लाभान्वित होने के लिए सम्पर्क करने लगे। यद्यपि उन्होंने देश के अधिकांश भागों का भ्रमण कर वहां वेदोपदेश व सत्य व असत्य का मण्डन व खण्डन किया, तथापि उनके पूना में हुए प्रवचनों का विशेष महत्व है। इन प्रवचनों में से 15 प्रवचन नोट कर सुरक्षित कर लिये गये थे जो बाद में मराठी व उससे अनुदित होकर हिन्दी आदि अन्य भाषाओं में प्रकाशित हुए। आज यह पूना प्रवचन आर्य समाज के विद्वानों व अनुयायियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें अनेक दुर्लभ जानकारी उपलब्ध है। 10 अप्रैल, सन् 1875 को महर्षि दयानन्द ने अपने प्रमुख कार्यो में से एक कार्य, आर्य समाज की काकड़वाड़ी, मुम्बई में स्थापना की। आर्य समाज की स्थापना न केवल आर्य समाज के इतिहास में अपितु देश व विश्व के इतिहास की एक प्रमुख घटना है। अब यह आवश्यक हो गया कि आर्य समाज के विधिवत् व सुचारू रूप से संचालन के लिए उसके नियम व उपनियम निश्चित हों व लेखबद्ध हों। आर्य समाज की मान्यताओं का अपना एक ग्रन्थ होना भी आवश्यक था। यह ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश ही हो सकता था जिसे महर्षि दयानन्द ने कुछ समय पूर्व ही राजा जयकृष्णदास, डिपूटी कलेक्टर, काशी की प्रेरणा पर रचा था और राजाजी ने ही इसका प्रकाशन भी किया था। इस ग्रन्थ में प्रथम 12 समुल्लास ही छपे थे। राजाजी ने 13 व 14 हवें समुल्लास प्रकाशित नहीं कराये जिसका कारण इसमें ईसाई व मुस्लिम मत की समीक्षा थी। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समीक्षा को यदि प्रकाशित कर दिया जाता तो ऐसा होने पर अंग्रेज सरकार, मनमोहन कुमार आर्य ईसाई मत व मुस्लिम मत के पादरियों व मौलवियों का विरोध व कोप महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के विरूद्ध भयंकर रूप में सामने आता। हो सकता था कि स्वामी दयानन्द ने उसके प्रकाशन के बाद अक्तूबर, 1883 तक जो वेद प्रचार व अन्य कार्य किये, वह सब प्रभावित होते या ऐसा भी हो सकता था कि उनको प्रचार से रोक दिया जाता जिनमें उनकी हत्या कराया जाना भी हो सकता था। हमें तो विचार करने पर ऐसा भी लगता है कि महर्षि दयानन्द की मृत्यु के सत्य कारण प्रकाश में नहीं आये हैं। उन्हें रात्रि में विषयुक्त दुग्ध का पान कराने वाले को पकड़कर पूछताछ भी नही की गई। न ही आर्य समाज व महर्षि के भक्तों ने इसकी कोई मांग की? महर्षि ने भी अपनी ओर से इसके कारणों पर कुछ नहीं कहा और न सन्देह व्यक्त किया। जिस जगन्नाथ रसोईये को विषपान कराने वाला कहा जाता है, उस नाम का रसोईयां था भी या नहीं, था तो वह कहां का रहने वाला था, कब, कैसे व कहां वह महर्षि के साथ जुड़ा, रसोईया बना, इसका विवरण हमारी दृष्टि में नहीं आया है? नन्हीं भगतन के बारे में सन्देह है कि आलोचना के कारण उसने इस कृत्य को अंजाम दिया था। यह बात सत्य हो सकती है परन्तु इसके पीछे अन्य षड़यन्त्रकारी सहायक रूप में हो सकते हैं। अंग्रेज सरकार व उसके अधिकारियों का भी कुछ गुप्त सहयोग व षडयन्त्र तो नहीं था? इसकी तो कोई जांच नहीं हुई और न किसी ने शक ही किया। जांच सम्भव भी न थी क्योंकि अंग्रेज देश के शासक थे। श्री आदित्यपाल सिह आर्य के अनुसार सत्यार्थ प्रकाश के दूसरे संशोधित संस्करण में ग्याहरवें समुल्लास में बाघेर लोगों की वीरता की प्रशंसा की घटना का अंग्रेजों को ज्ञान हो जाने पर यही उनकी मृत्यु का कारण बनी थी। स्पष्ट प्रमाण न होने से सन्देह तो किया ही जा सकता है और वह सत्य व असत्य दोनों हो सकता है।

सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय करते हुए यह प्रश्न भी बहुधा आता है कि ऋषि दयानन्द ने यह ग्रन्थ क्यों लिखा? इस प्रश्न का उत्तर, एक अन्य प्रश्न के उत्तर में निहित है कि यदि वह यह ग्रन्थ न लिखते तो क्या होता? हम समझते हैं कि सन् 1875 व उससे पूर्व देश भर में धर्म के नाम पर नाना प्रकार के कर्मकाण्ड, उचित-अनुचित व्यवहार, ईश्वरोपासना के नाम पर भिन्न-भिन्न व परस्पर विरूद्ध उपासना-पद्धतियां अस्तित्व में थी। यह सब सत्य परम्पराओं के विस्मृत होने, आलस्य, अज्ञान व अविद्या की वृद्धि के कारण अस्तित्व में आईं थीं। मूर्तिपूजा, भिन्न-भिन्न मन्दिरों में मूर्तियों के दर्शन, पाषाण व धातुओं की मूर्तियों को भोग लगाना, उनके आगे सिर नवाना या हाथ जोड़कर उन्हें सम्मान देना, उन्हें वस्त्र पहनाना, उनसे सुख-समृद्धि-आरोग्यता व मनोरथों की सिद्धि की कामना व भावना-प्रार्थना, वृक्ष-पूजा, नदियों में स्नान या नदियों व मन्दिरों को तीर्थं मानना व वहां आना जाना, यत्र-तत्र यज्ञ का विकृत रूप, तुलसीदास कृत राम चरित मानस का पाठ व उसका ही यज्ञ, आरती, भजन, कीर्तन आदि नाना प्रकार के कर्मकाण्ड अस्तित्व में थे। किसी को यह पता नहीं था कि यह सब ईश्वरोपासना क्यों व कैसे है? इनके उत्तर किसी के पास नहीं थे और आज भी नहीं हैं। इनके उत्तर कोई किसी से पूछता था, न कोई विचार करता था और न हि कोई किसी को बताता था। इसी प्रकार से सामाजिक व्यवहार पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि समाज जन्म के आधार पर निर्धारित नाना जातियों में विभक्त था। यह सब कृत्रिम जातियां समान नहीं थी अपतिु इनमें ऊंच-नीच का भाव विद्यमान था। नीच कहे जाने वाली जाति के मनुष्य उच्च जाति के मनुष्यों के साथ सामान्य रूप से उठ-बैठ नहीं सकते थे, अध्ययन-अध्यापन, खान-पान का व्यवहार नहीं होता था, शादी-विवाह, मित्रता, कुंवें व तालाब से जल लेने में भी ऊंच-नीच आड़े आती थी। निम्न वर्ग का व्यक्ति उच्च वर्ग के कार्य या व्यवसाय भी नहीं कर सकता था। निम्न जाति के बन्धु अमानवीय व नारकीय जीवन व्यतीत करते थे जिसका कारण उच्च जाति के तथाकथित लोगों का अहंकार, अज्ञान व स्वार्थ था। कहने का भाव यह है कि समाज में सर्वत्र विषमता, असमानता व सच्चे समाजिक व्यवहार के ज्ञान व तदानुसार व्यवहार का अभाव था। महर्षि जहां-जहां जाते व जो भाषण देते वह श्रोताओं को प्रिय लगते थे। वह चाहते थे कि काश, उन्हें स्वामी दयानन्द की हर बात स्मरण रह पाती, परन्तु यह असम्भव था। अतः राजा जयकृष्ण दास जी ने अपने अनुभव व इच्छा को स्वामी जी को इन शब्दों में निवेदन किया कि महाराज, आप जो उपदेश देते हैं वह बहुत उपयोगी होते हैं, परन्तु उनका प्रभाव आपके प्रवचन के उपस्थित लोगों पर कुछ घण्टों व दिनों तक ही रहता है। बाद में वह मुख्य व प्रमुख उपयोगी बातें विस्मृत हो जाती है। यदि आप अपनी मान्यताओं का एक ग्रन्थ दिख दें, तो इससे यह लाभ होगा कि आपके सभी विचार, मान्यतायें व सिद्धान्त चिरस्थाई हो जायेगें। इससे वह लोग जो आपके उपदेशों को सुनने सभा-सत्संग स्थल पर नहीं आ पाते, वह दूर स्थानों पर होकर भी लाभान्वित हो सकते हैं और साथ हि विपक्षियों व विरोधियों को भी इससे विचार-चिन्तन-खण्डन-मण्डन व सत्य व असत्य को जानने में सहायता मिलेगी। इसका अन्य लाभ यह भी होगा कि दीर्घकाल तक यह धार्मिक व सामाजिक विषयों में भारतीय प्रजा का मार्गदर्शन करेगें। स्वामीजी इस प्रस्ताव के मर्म को समझ गये और उन्होंने इसे तत्काल स्वीकार कर लिया और कुछ ही महीने, प्रस्ताव के लगभग साढ़े तीन महीने बाद, यह ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश नाम से तैयार हो गया। इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने पर जीवन के सभी वैचारिक, मानसिक, आत्मिक महत्वपूर्ण पहलुओं, धर्म, अधर्म, ईश्वर-जीवात्मा-सृष्टि का यथार्थ स्वरूप, भक्ष्य-अभक्ष्य, जन्म, मृत्यु, मोक्ष, बन्धन, वेद, विद्या, अविद्या आदि अनेकानेक विषयों पर वैदिक मान्यताओं का ज्ञान लोगों को हुआ। इस ग्रन्थ के लिपिकर, मुद्रण से जुड़े लोग तथा स्वयं ग्रन्थ के प्रस्तावक व प्रकाशक पौराणिक विचारों के थे, अतः मांसाहार, मृतक श्राद्ध व मूर्ति पूजा आदि विषयों में ग्रन्थकर्ता के आशय के विपरीत कुछ विचार ग्रन्थ में इन लोगों ने स्वेच्छाचार से प्रकाशित कर दिए। इतना होने पर भी जो विषय निर्विवाद रहे, उनका साधारण जनों में ज्ञान होना उस समय की एक बहुत बड़ी क्रान्ति थी। अब जिन मतों, मान्यताओं, सिद्धान्तों, कर्मकाण्डों, विचारों, रीति-रिवाजों, धर्म, संस्कृति व सभ्यता से जुड़े विचार व जिनका खण्डन ग्रन्थ में था, उससे देश का सारा जनमानस प्रभावित हुआ। समय-समय पर लिपिकर, मुद्रण व शब्द-संयोजन करने वाले प्रेस कर्मचारी व प्रकाशक की ओर से की गई अशुद्धियां, परिवर्तन व मिलावट ग्रन्थकर्ता स्वामीजी महाराज के ध्यान में लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाती रहीं। इसका लाभ यह मिला कि ग्रन्थकर्ता ने अति व्यस्त होने पर भी इस ग्रन्थ का नया संस्करण तैयार करने का निर्णय किया जो यद्यपि उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ परन्तु इसका महत्व व प्रभाव प्रथम संस्करण से कहीं अधिक है। महर्षि के समय में वेदों में ईश्वर के लिए प्रयुक्त अनेक नामों के कारण वेदानुयायियों को बहु-ईश्वरवादी माना जाता था। महर्षि दयानन्द ने सप्रमाण सिद्ध किया कि वेदों में आये ईश्वर के सभी नाम गुणवाचक या सम्बन्धसूचक आदि हैं। यह एक ही ईश्वर के भिन्न-भिन्न नाम हैं एवं इन शब्दों व नामों का समावेश एकमात्र ईश्वर नामी सत्ता में है। सत्यार्थ प्रकाश के पहले समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के 100 नामों का उल्लेख कर व उनके अर्थ, गुण व सम्बन्धों को सूचित कर सिद्ध किया है कि वेद एकेश्वरवाद को मानने वाले ग्रन्थ हैं। दूसरे समुल्लास में मुख्यतः बाल शिक्षा का विषय है। महर्षि के काल में बालक-बालिकाओं के माता-पिता, यहां तक कि आचार्यो को ज्ञान ही नहीं था कि बच्चों को क्या शिक्षा दी जानी चाहिये? महर्षि दयानन्द ने इस समुल्लास को लिखकर इस आवश्यकता की पूर्ति की। तीसरे समुल्लास में अध्ययन-अध्यापन का विषय है। इस अध्याय में ऋषि ने प्रसंगानुसार गायत्री मन्त्र का अर्थ, यज्ञ-अग्निहोत्र, उपनयन, ब्रह्मचर्य उपदेश, पठनपाठनविधि तथा स्त्री-शूद्राध्ययन-विधि आदि पर प्रकाश डाला है। महर्षि दयानन्द यजुर्वेदीय मन्त्र ‘‘यथेमां वाचं कल्याणीमवदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्याम् शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणय।।’’ के आधार पर शूद्रों व स्त्रियों सहित मानवमात्र को वेदाध्ययन का अधिकार सिद्ध करते हैं। इस प्रमाण की उपस्थिति में स्त्री- शूद्रों के वेदाध्ययन में कहीं कोई बाधा न रही। हमारी अपनी दृष्टि में स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार इस लिए भी वेदसम्मत, तर्क व युक्ति से सिद्ध है कि जो स्त्री ब्राह्मण से विवाह करेगी वह ब्राह्मणी कहलायेगी। ब्राह्मण विद्या के पढ़ने व उसका अध्ययन-अध्यापन करने व कराने से होता है। यदि यह गुण उसकी स्त्री ब्राह्मणी में नहीं होगें तो वह ब्राह्मणी तो कदापि कहला नहीं सकती, ज्ञान शून्य स्त्री तो तो शूद्रा ही कही जा सकती है। इसी प्रकार किसी शूद्र कुल या परिवार में जन्में बालक या बालिका की बुद्धि यदि अन्य वर्ण के बालक-बालिकाओ की भांति विद्या ग्रहण करने में सक्षम व समर्थ है, तो उन्हें विद्या के ग्रहण करने से वंचित करना अन्याय, पक्षपात,

स्वार्थ, अज्ञान की श्रेणी में आता है। जिनकी ऐसी सोच हो वह ब्राह्मण तो कदापि नहीं हो सकते। उन्हें आर्यो की श्रेणी में रखना आर्य शब्द के अर्थ के विपरीत है। उन्हें तो अनार्य, वेद-अनभिज्ञ, वेदविरोधी, स्वार्थी, अज्ञानी, अनाड़ी ही कह सकते हैं। विद्याध्ययन व वेदाध्ययन में सभी चार वर्णो के बालक-बालिकाओं का पूर्ण व समान अधिकार है। प्राचीन काल में ऐसा उल्लेख मिलता है कि शूद्रों को यज्ञोपवीत को धारण करने का अधिकार नहीं दिया गया था या विद्याध्ययन करते समय उसे यज्ञोपवीत से वंचित किया जाता था। हमारा मानना है कि उपनयन में यज्ञोपवीत प्राप्त कर ही कोई बालक अध्ययन-विद्यार्जन-वेदाध्ययन का अधिकारी होता है। शूद्रों सहित सभी स्त्री-पुरूषों व उनके बच्चों को यज्ञोपवीत धारण करने का उतना ही अधिकार है जितना कि ब्राहमण सन्तान या क्षत्रिय सन्तानों को है। हां, यदि कोई यज्ञोपवीत का दुरूपयोग करे तो उसका अधिकार छीना जा सकता है फिर चाहे वह ब्राह्मण हो या अन्य। मनुस्मृति तो दण्ड व्यवस्था में राजपुरूषों व ब्राह्मणों को शूद्रों की तुलना में कहीं अधिक दण्ड का प्राविधान करती है। यही व्यवस्था यज्ञोपवीत धारण के अधिकार व छीनने में भी लागू होनी चाहिये। महर्षि दयानन्द के समय में विवाह व गृहस्थ आश्रम को लेकर बहुत भ्रान्तियां थी। इनका निराकरण करने के लिए महर्षि दयानन्द ने चतुर्थ समुल्लास का प्रणयन किया जिसमें विवाह, स्त्री-पुरूष व्यवहार, पंच-महायज्ञ, गृहस्थ धर्म, पण्डित व मूर्ख के लक्षण, पुनर्विवाह पर विचार, आपद्धर्म नियोग तथा गृहस्थ आश्रम के अन्य आश्रमों से श्रेष्ठ होने पर वैदिक मान्यताओं का प्रमाण-पुरस्सर प्रकाश किया है। गृहस्थाश्रम की अवधि 50 वर्ष की अवस्था तक निर्धारित है। इसके बाद वानप्रस्थ आश्रम और वानप्रस्थ के बाद सन्यास आश्रम अन्तिम आश्रम है। इन दोनों, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रमों का वर्णन सत्यार्थ प्रकाश के पांचवे समुल्लास में हुआ है। छठा समुल्लास राजधर्म पर है जिसमें राज्य के संचालन, दण्ड व्यवस्था, राज्य रक्षा और युद्ध, कर ग्रहण प्रकार, व्यापार, न्यायकरण पर प्रकाश डाला गया है। सातवें समुल्लास में ईश्वर विषय के अन्तर्गत ईश्वर, जीव व वेद आदि पर विचार किया गया है और इस विषय पर जो सामग्री दी गई है वह विश्व के मत-मतान्तरों व इतर साहित्य में दुर्लभ है। सत्यार्थ प्रकाश का आठवां समुल्लास सृष्टि उत्पत्ति पर है जिसमें ईश्वर द्वारा कारण प्रकृति से सृष्टि के निर्माण के साथ मनुष्यादि सृष्टि विश्व में प्रथम किस स्थान पर हुई, आर्य मलेच्छ आदि की व्याख्या के साथ इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर से धारित बताया व सिद्ध किया गया है। यद्यपि आजकल बहुत से वैज्ञानिक इस ब्रह्माण्ड को ईश्वर से धारित नहीं मानते परन्तु यदि ऐसा न होता तो कब की प्रलय हो जाती। हम समझते हैं कि ईश्वर द्वारा धारित सृष्टि भी विज्ञान के अन्तर्गत आनी चाहिये परन्तु यह भविष्य का प्रश्न है। हमें लगता है कि यदि महर्षि दयानन्द द्वारा व्याख्यात सृष्टि उत्पत्ति, पालन व धारण तथा प्रलय के बारे में युक्ति, तर्क व वेद प्रमाणों से समन्वित विचारों का जोर-शोर से विश्व में प्रचार हो और विश्व के वैज्ञानिक इसमें रूचि लें, तो आने वाले समय में वह सृष्टि-उत्पत्ति, धारण, रक्षण व पालन आदि से सम्बन्धित वैदिक विचारधारा को अवश्य स्वीकार कर लेगें। सत्य को तो देर-सवेर स्वीकार करना ही है। अभी उनकी बुद्धि में यह बात बैठी नहीं और हमारे पुरूषार्थ में भी कमी है, परन्तु सत्य होने से आने वाले समय में वह स्वयं की खोजों से भी इसे स्वीकार कर सकते हैं। नवम् समुल्लास का विषय विद्या व अविद्या तथा बन्ध व मोक्ष है। विद्या से मोक्ष प्राप्त होता है तो अविद्या से बन्धन होता है। दसवां समुल्लास आचार, अनाचार, भक्ष्य तथा अभक्ष्य पर है। इन विषयों पर आज भी देश व विश्व भ्रमित है। इसे पढ़कर निश्चय कर जीवन को अधिक उपयोगी व उद्देश्य को पूरा करने में सहायक बनाया जा सकता है। हम समझते हैं कि इन 10 समुल्लासों में जितना मण्डनात्मक ज्ञान है उतना संसार कि सभी मतों व मजहबों आदि की पुस्तकों में नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह सारा ज्ञान, मान्यतायें व सिद्धान्त वेदों पर तो आधारित हैं ही, इसके साथ सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें बड़े-बड़े तार्किक ढूंढने पर भी सैद्धान्तिक त्रुटियां नहीं निकाल सकते। इसके बाद सत्यार्थ प्रकाश` में 4 समुल्लास और हैं। 11 हवें समुल्लास में आर्यावर्तीय-मत-मतान्तरों का खण्डन-मण्डन का विषय है। इसे पढ़कर इस देश में महर्षि के समय में प्रचलित वरन् आज भी नये प्रचलित मत-मतान्तर व गुरूडमों की निरर्थकता का ज्ञान होता है। 12 हवें समुल्लास में नास्तिकमत समीक्षा के अन्तर्गत चारवाक, जैन व बौद्ध मत की समीक्षा करते हुए असत्य विचारों व मान्यताओं का खण्डन किया गया है। अन्त के 13 व 14 समुल्लास ईसाईमत व यवनमत समीक्षा के हैं जिसमें इन मतों की पुस्तकों के उदाहरण देकर उनकी सत्यासत्यता व उचित-अनुचितता की परीक्षा की गई है। इस पूरे ग्रन्थ को पढ़ कर मनुष्य को सत्य मत वा मानव धर्म का ज्ञान हो जाता है और वह और कोई नहीं अपितु वेदों पर आधारित वैदिक धर्म है। महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश आदि सभी छोटे-बड़े ग्रन्थों को पढ़कर लगता है कि इन ग्रन्थों में जिन सत्य व रहस्यों का अनावरण हुआ है, उन सब विचारों-मान्यताओं व ज्ञान को वेदांग की संज्ञा दी जा सकती है। यह नया वेदांग ऐसा है कि जिससे अन्य 6 वेदांग भी महिमा को प्राप्त होते हैं। यद्यपि सभी 6 वेदांग अपने-अपने विषय में पूर्ण हैं तथापि वेदों की जन-सामान्य में प्रवृत्ति महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों के बिना नहीं हो सकती। अतः इनका महत्व निर्विवाद है।

सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से अध्येता को वेदों का यथार्थ परिचय तो मिलता ही है, इसके साथ वेदों का विश्व के साहित्य में ज्येष्ठ व श्रेष्ठ ग्रन्थ होना भी सिद्ध होता है। वह यह जान लेता है कि वेदों की विश्व में विद्यमान इतर साहित्य से कोई समानता नहीं है अर्थात् वेद सर्वोच्च हैं। वेदों में विचारों की जिस उच्चता व श्रेष्ठता के दर्शन होते हैं वैसी संसार की अन्य किसी पुस्तक व ग्रन्थ में सम्भव नहीं है। इनका अध्येता यह भी जान लेता है कि जिन ग्रन्थों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है उनका अतीत में कुछ मूल्य रहा होगा परन्तु आज के समय में वह न तो सत्य व यथार्थ हैं और न ही वेदों व सत्यार्थ प्रकाश के समान उपयोगी, प्रसांगिक व उपादेय हैं। वेदेतर मत के लोगों का उन अपने ग्रन्थों पर अन्ध विश्वास blind faith है। हम अनुभव करते हैं कि यदि कोई व्यक्ति या विद्वान बिना सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदों में प्रवेश करता है तो वह सत्य अर्थो को प्राप्त नहीं हो सकता। सायण, महीधर, भारतीय व पाश्चात्य अनेक विद्वानों के उदाहरण हमारे सामने हैं। यह तो महर्षि दयानन्द के गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द की चमत्कारिक प्रेरणा व मान्यता ही थी कि स्वामी दयानन्द वेदों के यथार्थ रहस्यों का साक्षात्कार कर पाये। ऐसा लगता है कि ईश्वर ने स्वयं इन दोनों महनीय व्यक्तियों के शिक्षक बन कर उनकी अन्तरात्मा में पे्ररणायें कीं जिससे वह वेदों के यथार्थ स्वरूप जो सम्भवतः महर्षि जैमिनी के बाद किसी को साक्षात् नहीं हो सके थे, इन दो महनीय व्यक्तियों को हो सके। हम यह भी पाते हैं कि अन्य ज्ञात ऋषियों की तुलना में महर्षि दयानन्द का कार्य क्षेत्र अति विस्तृत था। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका व संस्कार विधि आदि ग्रन्थों को पढ़ लेने के बाद वेदों का सत्य स्वरूप इनके अध्येताओं पर प्रकट हो जाता है। इनके द्वारा जो स्वरूप वेदों का प्रकट होता है उससे भिन्न विचारों व मान्यताओं को पढ़कर उनकी असारता व निरर्थकता स्वयं आत्मा को विदित हो जाती है। कोई कितनी ही दलीलें दे ले, परन्तु महर्षि दयानन्द की मान्यताओं पर ऐसा विश्वास टिकता है जिसे कोई बदल नहीं सकता। आज के युग में सत्यार्थ प्रकाश वेदरूपी सूर्य की किरणें, उसकी प्रभा, उषा व ज्योति हैं, ऐसा कह सकते हैं।

सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका का अध्ययन करने पर अध्यात्म के अनेक रहस्यों का ज्ञान होता है। सत्यार्थ प्रकाश के साथ महर्षि ने जो स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश दिया है वह इसके ग्रन्थकर्ता द्वारा वेदों के मन्थन से प्राप्त हुआ एक ऐसा ज्ञान-भण्डार व ज्योति-पुंज है जैसा पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र के मन्थन से प्राप्त अमृत कहा जाता है। स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश वेदों व सत्यार्थ प्रकाश के मन्थन से उत्पन्न सारगर्भित कल्याणकारी अमृत तुल्य ज्ञानामृत है जिससे मनुष्य का जीवन आदर्श जीवन बन कर उसे मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ करा देता है। स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के समान ही ऋषि का लघु ग्रन्थ आर्योद्देश्यग्रन्थमाला भी है। यह दो लघुग्रन्थ गागर में सागर के समान हैं। यदि कोई मनुष्य इन दोनों ग्रन्थों का अध्ययन कर अपने जीवन को इनके अनुसार बना ले तो उसका कल्याण, धर्म-अर्थ-काम की प्राप्ति, अवश्यम्भावी होगी और यह बात निःसंकोच कही, समझाई व मनवाई जा सकती है। मोक्ष की उसकी यात्रा में यह सब परम सहायक हैं, यह भी विचार करने पर प्रतीत होता है।

सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से अध्येता की बुद्धि शुद्ध, पवित्र होकर सत्य व असत्य का विवेक करने में समर्थ होती है। एक प्रकार से महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश आदि सभी ग्रन्थ बुद्धि के परिष्कार के उपकरण हैं। कुछ हमारे प्रचार में कमियां हैं और कुछ मत-सम्प्रदाय-मजहबों की हठधर्मिता है कि वह सत्य को ग्रहण व असत्य को छोड़ना नहीं चाहते हैं। यदि वेद व सत्यार्थ प्रकाष को सभी मत-मतान्तर-सम्प्रदाय-मजहबों द्वारा अपना लिया जाता तो सारी मानव जाति आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त होकर सुखी-समृद्ध-कल्याणप्रद-उन्नत जीवन व्यतीत कर सकती थी जो कि वस्तुतः सारे संसार के लोगों का मुख्य उद्देश्य है। वेदों में ईश्वर की आज्ञा है ‘‘कृण्वन्तो विश्मार्यम्’’, जिससे यह ध्वनित होता है कि असत्य व दुरित को हठाकर आर्यत्व वा सत्य को स्थापित करना है। हम समझते हैं कि संसार के सभी भद्रपुरूषों का यह कर्तव्य है कि वह विश्व में एक सत्यमत की स्थापना के लिए वचनबद्ध हों जिसमें उनका व सारे संसार का हित है। इसके विपरीत करने पर उनके इस जन्म के बारे में तो कुछ कहा नहीं जा सकता परन्तु यह निश्चित है कि कर्म-फल व्यवस्थानुसार उनका परजन्म भावी जीवन निश्चय ही दुःख-दारिद्रय व कष्टों से युक्त होगा। हो सकता है कि मृत्यु के पश्चात कई जन्मों तक उन्हें मनुष्य का जन्म ही ईश्वर न दें। अतः अध्ययन-चिन्तन अर्थात् सोच-समझकर विवेक से ही कर्तव्य को जानकर उसका आचरण वेदेतर सभी मतस्थ बन्धुओं को करना चाहिये।

सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन व प्रचार से वर्तमान व भविष्य में उत्पन्न होने वाले असत्य-अज्ञान से पूर्ण विचारों, मान्यताओं, अन्धविश्वासों व कुरीतियों पर प्रतिबन्ध लगता है। हम समझते हैं कि हमारे सभी मत-मतान्तरों के महापुरूषों की आत्मायें, यदि आज होती तो, अवश्य सन्तुष्ट होती क्योंकि उनका यह अभिप्राय तो हो नहीं सकता था कि लोग परस्पर पृथक-पृथक मतों का अनुसरण कर एक दूसरे के विरोधी होकर सुख से वंचित हो दुःखमय जीवन व्यतीत करें। हम यह बात इस आधार पर भी कह रहे है कि इतिहास में प्रसिद्ध धर्म-मत प्रचारकों व संस्थापकों के समय में न तो उन्हें वेदो का ज्ञान प्राप्त था और न उनके पास सत्यार्थ प्रकाश जैसा सरल, जनसाधारण की भाषा में लिखा हुआ धर्म ग्रन्थ था। यदि होता तो वह निश्चय ही कोई नया मत-पन्थ न चलाते। उन्होंने तो एक प्रकार से अपने समय में मनुष्यों का कल्याण ही सोचा था। अल्पज्ञता के कारण उनसे कुछ भूलें होना भी सम्भव है। इस बात को आज कल के मत-पन्थों के सर्वेसर्वाओं व अनुयायियों को स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचना चाहिये। हम तो यहां तक विचार करते हैं कि यदि प्रमुख मतों के संस्थापक महापुरूष आज होते तो सत्यार्थ प्रकाश का समर्थन कर सकते थे। इसका एक कारण तो यह है कि सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने कोई बात स्वार्थवश नहीं लिखी है अपितु आदि से अन्त तक उन्होंने पक्षपातरहित होकर न्यायपूर्वक सत्य का ही पालन किया है। सत्यार्थ प्रकाश में इतना ज्ञान है कि इसके अध्येता को अध्यात्म व धर्म के विषय की सभी शंकाओं का समाधान स्वतः हो जाता है। कोई शंका बचती ही नहीं है। यदि होती भी है तो सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से जो विवेक उत्पन्न होता है उससे नई शंकाओं का समाधान व्यक्ति स्वयं ही कर लेता है। इस स्थिति में पहुंच कर मनुष्य को मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक सन्तोष की उप्लब्धि होती है।

पश्चिमी देशों के अध्येताओं ने पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर भारत के वैदिक ग्रन्थों में यह बुद्धि रखी कि वह सत्य मान्यताओं से पूर्ण न होकर असत्य मान्यताओं से युक्त हैं। उनकी यह मान्यता स्वमतपोषण के कारण पक्षपातपूर्ण थी। यदि वह निष्पक्ष होते तो उन्हें स्वमत का मण्डन व आर्य मत का खण्डन करना अभीष्ट था। ऐसा वह नहीं कर सके। मुस्लिमों ने पाश्चात्य विद्वानों जैसा अध्ययन तो नहीं किया और न किसी अध्ययन के आधार पर स्वमत की श्रेष्ठता व वैदिक धर्म की न्यूनता पर प्रकाश डाला परन्तु स्वयं को मूर्तिभजंक व अपने विरोधियों को काफिर कह कर उनका धर्मान्तरण, मूर्ति व मन्दिरों का विध्वंस, विनाश तथा नानाविध अमानवीय तरीकों से चारित्रिक व आर्थिक शोषण किया। इसके सर्वथा विपरीत महर्षि दयानन्द ने सब के प्रति प्रेम, दया, करूणा व सर्वहित को लक्ष्य बनाकर निष्पक्ष रूप से अन्यों के मत में सत्य को सत्य कहा व माना और असत्य को असत्य कहा। यद्यपि इससे वेदेतर मतावलम्बियों को बुरा तो लगा परन्तु उनकी स्थिति यह बनी कि उनके पास उसका प्रतिवाद व खण्डन करने के लिए युक्ति, तर्क व प्रमाण नहीं थे, कहते तो क्या कहते? बड़े से बड़ा तार्किक व्यक्ति, ज्ञानी व्यक्ति के सम्मुख असत्य को सत्य सिद्ध नहीं कर सकता। हमें लगता है कि यहां भी ऐसा ही हुआ। झूठ के पैर नहीं होते की कहावत चरितार्थ हुई। हम यह भी समझते हैं कि सत्य, सत्य होता है व असत्य, असत्य। जो जितना अधिक बुद्धिमान होगा वह सत्य व असत्य के भेद को उतना ही अधिक जान सकता है। आज हम यदि कुछ सत्य जानते हैं तो वह अपने कुछ अध्ययन, विचार व चिन्तन से व अधिकांश महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि आदि ग्रन्थों से जान पाये हैं और वह भी अध्ययन व स्वाध्याय के अन्तर्गत आ जाता है। सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों के अध्ययन से यह भी जाना जाता है कि जो व्यक्ति स्वयं के अध्ययन से व किसी दूसरे के बता देने पर सत्य को स्वीकार नहीं करता उसका परिणाम भावी समय में उसका अकल्याण, अहित, दुर्गति तथा जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति में असफलता होने से इतनी बड़ी हानि होती है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्य को मानना पुण्य व न मानना पाप है। आज सारा संसार धार्मिक क्षेत्र में सत्य ईश्वर की उपासना, सत्कर्म व वेदाचार को न मानने के कारण जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति से दूर होकर अपने जीवन को बर्बाद कर रहा प्रतीत होता है।

हमें सत्यार्थ प्रकाश की दो प्रकार की भूमिकायें दिखाई देती हैं। सत्यार्थ प्रकाश से वेदों की रक्षा, वेदों का प्रचार तथा वेदों की सार्वजनीनता व सर्वमान्यता का स्वरूप प्रकट होता है। दूसरा देश-देशान्तर के वेदेतर व वेद विरोधी मतों से रक्षा व उनसे रक्षा के उपाय व प्रयास सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से प्राप्त होते हैं। इन मतों में सत्य व असत्य का मिश्रण व विष मिश्रित अन्न के समान इनकी स्थिति है। मानव जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य तक से यह अनभिज्ञ हैं। जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त तो यह क्या करायेगें, इसका इन्हें भली-भांति ज्ञान ही नहीं है। यह मत कर्म-फल के सिद्धान्त, शुभ व अशुभ सभी कर्मो के फल जीवात्मा को अवश्यमेव भोगने ही पड़ेगें, से भी रहित या शून्य है। यह आरोप इन मतों पर लगते हैं। न इन मतों के विद्वानों व अनुयायियों को ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान है और न जीवात्मा व प्रकृति के स्वरूप का। न उपासना का यथार्थ ज्ञान है न अग्निहोत्र आदि कर्तव्यों का। यहां तक की मनुष्य का भोजन सात्विक अन्न होना चाहिये, पशुओं का मांस नहीं, इन सबका भी इन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं है। उनका धर्म पुस्तक ईश्वर से प्रेरित है या नहीं। यदि है तो उनमें निहित असत्य भी क्या ईश्वर प्रेरित है? नहीं, तो फिर उनके मत प्रवर्तक का मानना पड़ेगा जिसे वह स्वीकार नहीं कर सकते। दोनों तरफ से मुसीबत है। उनका मत ज्ञान की दृष्टि से अपूर्ण क्यों है? उनमें सभी विषय व सर्वपक्षीय व बहुपक्षीय ज्ञान, पूर्ण ज्ञान क्यों नहीं है जैसा कि चार वेदों में है? क्या भारतीय 6 दर्शनों के समान उनमें से किसी के भी पास एक दर्शन है जिसमें हमारे दर्शनों जैसी गम्भीरता, उच्च विचार, ऊहापोह से युक्त कथन, सत्यासत्य की परीक्षा, तत्व विवेचन या मीमांसा हो? इससे उन मतों की यथार्थ स्थिति को सत्यार्थ प्रकाश का अध्येता जान लेता है। यह सत्यार्थ प्रकाश की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसके लिए स्वामी दयानन्द विश्वगुरू स्वयं तो सिद्ध होते ही हैं, साथ में सभी दर्शनकार, मनुस्मृतिकार, पाणिनी , महाभाष्यकार व यास्क आदि ऋषि भी विश्वगुरू सिद्ध होते हैं। हमारे इन ऋषियों के समान ज्ञानी, विचारक, चिन्तक, गवेषक, मीमांसक व विश्लेषक इन मतों के आचार्य नहीं थे, यह सिद्ध होता है।

हमारे मन में यह विचार भी आता है कि बड़े से बड़ा विद्वान भी जब किसी ग्रन्थ का प्रणयन करता है तो वह प्रथम विषय का चिन्तन करता है। उसकी रूप-रेखा पहले मस्तिष्क में बनती है, तदुपरान्त वह कागज पर उसके मुख्य विषय, बातों, अध्यायों आदि को तैयार करता है। जब उसका पूरा मानचित्र मन या मस्तिष्क में बन जाता है, तब वह उसका लेखन आरम्भ करता है। उसकी पाण्डुलिपि बन जाने पर पुनः उसे देख कर उसमें संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन, कुछ अनावश्यक भाग को हटाने, कुछ बिल्कुल नये अध्याय या सामग्री को बीच में स्थान देने जैसा नाना प्रकार से उसका परिशोधन व परिमार्जन किया जाता है। हम संसार के सभी बड़े धार्मिक मनुष्यों के बारे में भी यह पाते हैं कि यदि उनका जीवन काल और अधिक बड़ा हुआ होता तो वह अपनी कई मान्यताओं में परिवर्तन, परिवर्धन, परिशोधन, परिमार्जन आदि का कार्य करते। उनकी अनुपस्थिति में अब क्योंकि वह महापुरूष-प्रवर्तक नहीं हैं, तो उनके अनुयायियों का यह कर्तव्य बनता है कि वह उन महापुरूषों के साहित्य व विचारों को पढ़कर उसका अन्धानुकरण ही न करें परन्तु उसे वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप बनाकर उसे तर्क, युक्ति, प्रमाण, सृष्टिक्रम के अनुरूप प्रस्तुत करें। यहां पहुंच कर हमें लगता है कि ऐसा करते समय उन्हें व उनके समानधर्मी लोगों को यह अनुभव होगा कि सत्य तो एक ही है और ऐसा करने पर ऐसा समय आयेगा कि जब सब मतों की मान्यतायें एक समान, एक दूसरे की पूरक, अविरोधी होगीं। यह कार्य यदि नहीं करेगें तो कूप-मण्डूकता की कहावत चरितार्थ होगी। मनुष्यकृत कोई भी कार्य या रचना निदोर्ष व पूर्ण नहीं होती। वह तो सर्वव्यापक व सर्वज्ञ ईश्वर की ही रचना व कार्य होता है जो पूर्ण होने के साथ निर्दोष भी होता है। हमें इस पक्ष पर बहुत गम्भीरता से विचार व निर्णय करना चाहिये जिससे कोई कर्तव्य छूटे न और कोई अकर्तव्य न हो जाये। यह बात हमने प्रमुख विदेशी मतों के लिए कही है।

हम जब ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़ते हैं तो हम यह अनुभव करते हैं कि उनके ग्रन्थ का प्रत्येक शब्द व वाक्य उनकी आत्मा, मन व मस्तिष्क का सफर करता हुआ उनकी वाणी वा उंगलियों तक आया था और वह शब्दमय होकर उसने उस ग्रन्थ का स्वरूप ग्रहण किया था। इसमें उनका ज्ञान, चिन्तन, अनुभव, भावना, ईश्वर व गुरू की आज्ञा का पालन, अपने कर्तव्य की पूर्ति, मनुष्य-देश-समाज का हित व कल्याण निहित था। ईश्वर द्वारा सृजित सृष्टि के मूल उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की भावना से वह लेखन में प्रवृत्त हुए थे तथा यह सब गुण व विशेषतायें उनके लेखन कार्यों व ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। जब हम व अन्य लोग उनके लिखे व लिखायें गये ग्रन्थों को पढ़ते हैं तो पढ़ते समय हमारा अर्थात् हमारी आत्मा का सम्बन्ध उनकी उस समय आत्मा से प्रस्फुटित विचारों व भावना, जो ज्ञान से परिपूर्ण है, हो जाता है। यदि हम उनके लिखे हुए को पूरा-पूरा जान व समझ रहे होते हैं तो उतने-उतने अर्थो में हम व उनकी आत्मा का परस्पर मिलन होकर एकाकार होता है और उससे हमें जो ज्ञान होता है वह हमारी आत्मा का स्वामी दयानन्द की आत्मा के संयोग से उत्पन्न ज्ञान होता है जिसे स्वामी दयानन्द प्रदत्त ज्ञान कह सकते हैं। यह जान लेने पर हमें अपूर्व प्रसन्नता व सन्तोष की प्राप्ति होती है। यद्यपि आज महर्षि दयानन्द सरस्वती इस संसार में अपने शरीर सहित नहीं है परन्तु फिर भी हम वर्तमान में उनकी आत्मा से अपनी आत्मा को जोड़ पाते हैं, यह अकाट्य तथ्य एवं वास्तविकता है। विवेक से भी हमें उनके ग्रन्थों से प्राप्त ज्ञान के साथ दोनों आत्माओं, स्वामी दयानन्द व हम, के संयोग से एक प्रकार का आत्म-सन्तोष व आनन्द उपलब्ध होता है। हम समझते हैं कि ईश्वर की उपासना से प्राप्त होने वाले आनन्द से इतर होने पर भी यह आनन्द अपने आप में एक विशेष प्रकार का आनन्द है जो आगे ईश्वर उपासना में अति लाभप्रद सिद्ध होता है। हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द के समग्र साहित्य को पढ़ लेने पर ईश्वर उपासना की प्रेरणा तो प्राप्त होती ही है, साथ ही दोनों आनन्दों के जुड़ने से उपासना में सोने में सुहागा की स्थिति उत्पन्न होती है। हम आर्यबन्धुओं से प्रार्थना करते हैं कि जब वह महर्षि के ग्रन्थों के स्वाध्याय में प्रवृत्त हों तो इस भावना को अपने अन्तर में उत्पन्न कर स्वाध्याय करें। इससे स्वाध्याय से लाभ व आनन्द में अपूर्व स्थिति का लाभ प्राप्त होगा। स्वाध्याय भी एक प्रकार से उपासना से एक सोपान पूर्व की उपासना ही है। सद्ग्रन्थों व ऋषियों के ग्रन्थों के स्वाध्याय से अपूर्व आनन्द की स्थिति स्वाधायीजनों में बनती है। इसका लाभ भी सभी अध्येताओं को लेना चाहिये।

महर्षि दयानन्द के तीन प्रमुख ग्रन्थों सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका और संस्कार विधि के अध्ययन से आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान सहित विज्ञानादि विविध विषयों के अध्ययन की प्रेरणा व उनका प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त होता है। जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य तथा इनके प्राप्ति के उपायों का भी ज्ञान होता है। इन ग्रन्थों की शिक्षा के अनुसार जीवन व्यतीत कर कोई भी मनुष्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि से अपना जीवन सफल कर सकता है। महर्षि दयानन्द के यह तीन ग्रन्थ विश्व के धार्मिक व आध्यात्मिक साहित्य में सर्वोत्कृष्ट, सर्वोत्तम, उपादेय व प्रासंगिक हैं। इनका स्वाध्याय करना जीवन की सफलता है व इनसे दूरी होना जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति में असफल होना है। इस आधार पर स्वामी दयानन्द विश्व गुरू हैं और विगत 5,000 वर्षों में संसार में उत्पन्न मानवों में सर्वोपरि होने के कारण अनुकरणीय व अभिनन्दनीय हैं। उनकी स्मृति को शत् शत् नमन्।

-मनमोहन कुमार आर्य

निवासः 196 चुक्खूवाला-2, देहरादून-248001

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