टंकारा के युवा मूलशंकर ने बाईस वर्ष की आयु में गृह त्याग किया तथा नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। अब उनका नाम शुद्ध चैतन्य हुआ। अध्ययन, भ्रमण तथा साधना करते-करते उन्होंने अनुभव किया कि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पालन की भी अनेक मर्यादाएं तथा नियम हैं। इनमें एक है स्वयंपाकी होना, अर्थात् अपना भोजन स्वयं पकाना। इस कार्य में ब्रह्मचारी का पर्याप्त समय और श्रम लग जाता है। उधर तीव्र वैराग्य तथा ज्ञान प्राप्ति की अदम्य लालसा ने शुद्ध चैतन्य के मन में ब्रह्मचर्य से सीधे संन्यास लेने की इच्छा उदय हुई। संन्यास के लिए उपयुक्त गुरु की तलाश आरम्भ हुई। स्वामी चिदाश्रम ने उन्हें संन्यास देने से इनकार कर दिया। कारण था ब्रह्मचारी का अल्पवयस्क होना। इसी समय पता चला की दक्षिण से आये एक संन्यासी पूर्णानन्द सरस्वती नर्मदा तट के चाणोद ग्राम के समीप वन में ठहरे हैं। शुद्ध चैतन्य ने स्वयं का परिचय देकर उक्त संन्यासी से स्वयं के चतुर्थाश्रम की दीक्षा देने का निवेदन किया। यह भी पता चला
कि स्वामी पूर्णानन्द क्षृंगेरी मठ से आ रहे हैं और उनका लक्ष्य द्वारिका जाने को है। अपने एक साथी पण्डित के साथ शुद्ध चैतन्य उक्त संन्यासी की सेवा में उपस्थित हुए और अपना अभिप्राय बताया। जब स्वामी पूर्णानन्द को ज्ञात हुआ कि यह ब्रह्मचारी गुर्जर गुजरात देशीय है तो उन्होंने यह कह कर उसे संन्यास देने से इन्कार कर दिया कि वे स्वयं द्रविड़ – देशोत्पन्न हैं और किसी गुर्जर देशीय को दीक्षा नहीं देंगे। जब उन्हें यह बताया गया कि गुर्जर लोग भी पञच द्राविड़ों आंध्र] कर्नाटक, केरलीय, महराष्ट्र तथा गुजरात में गिने जाते हैं तो उन्होंने इस युवा ब्रह्मचारी को संन्यास देना स्वीकार कर लिया। मूलशंकर विधिपूर्वक शुद्ध चैतन्य संन्यासी बन गये। शिखा सूत्र का विसर्जन कर दिया। दण्ड धारण किया और गुरु के आदेश से दयानन्द सरस्वती नाम ग्रहण किया। प्रतीत होता है कि घर का एक नाम ’दयाराम’ होने के कारण उन्होंने संन्यास का नाम दयानन्द रखा। इस प्रकार संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् उनकी
अपने दीक्षा गुरु पूर्णानन्द सरस्वती से कभी भेंट नहीं हुई। दीक्षा देकर पूर्णानन्द ने द्वारिका की ओर प्रस्थान किया। अपने संन्यास ग्रहण तथा दीक्षा गुरु का नामोल्लेख स्वयं ऋषि दयानन्द ने अपनी संक्षिप्त अपूर्ण आत्मकथा में किया है। ऋषि दयानन्द के योग गुरु:- दयानन्द को संन्यास देकर गुरु पूर्णानन्द तो चले गये, परन्तु शिष्य की साधना यथावत् चलती रही। अब उन्होंने अनुभव किया कि परम तत्व परमात्मा की प्राप्ति के लिए योग साधना ही सर्वाधिक महत्व का साधन है। यह योग महर्षि पतञजलि द्वारा उपदिष्ट अष्टांग योग ही है जो समस्त जनसमुदाय के लिए सूत्रबद्ध किया गया है तथा जिसे राजयोग कहते हैं। ऐसे योगनिष्णात गुरुओं की तलाश का कार्य आरम्भ हुआ तो दयानन्द सरस्वती को 1906 वि. में चाणोद में दो योगी मिले। ये थे – शिवानन्द गिरि तथा ज्वालानन्दपुरी। योग के जिज्ञासु दयानन्द ने जब इनसे सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा कि इस समय तो वे पर्यटन में हैं। एक मास पश्चात् वे अहमदाबाद के दुग्धेश्वर महादेव के मन्दिर में आयेंगे, वहीं दयानन्द उनसे मिले। योग द्वय के आदेश को शिरोधार्य कर जब दयानन्द 1907 वि., अहमदाबाद के दुग्धेश्वर मन्दिर में उनसे मिले तो इन दोनों योग विद्या निष्णात संन्यासियों ने दयानन्द को योग के सैद्धांतिक पक्ष तथा व्यावहारिक पक्ष का परिपूर्ण ज्ञान कराया। यहां रहकर उन्होंने योग की शिक्षा किस प्रकार प्राप्त की इसका विस्तृत विवरण तो नहीं मिलता किन्तु स्वामी दयानन्द ने अपने आत्म वृतांत में लिखा है- यहां उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की और अपने वचनानुसार मुझे निहाल कर दिया। अर्थात् उन्हीं महात्मा योगियों के प्रभाव से मुझे पूर्ण योग विद्या और उसकी साघन क्रिया अच्छी प्रकार विदित हो गई, इसलिए में उनका असत्यंत कृतज्ञ हूँ । स्वामी दयानन्द ने योग के कुछ रहस्य आबू पर्वत के प्रवास में भवानी गिरि नामक एक योगी से भी सीखे थे, जो उस समय अर्बुदा भवानी के मन्दिर में निवास करते थे। दयानन्द के विद्या गुरु-दण्डी विरजानन्द सरस्वती तीव्र वैराग्यवान तथा योग निष्ठ संन्यासी को भी शास्त्रों का उच्चतर ज्ञान तो अपेक्षित होता ही है। स्वामी दयानन्द का उत्तराखण्ड तथा नर्मदा के तटवर्ती प्रान्त का भ्रमण ऐसे ही किसी सर्व शास्त्र निष्णात गुरु की तलाश में लगा किन्तु उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। अंततः उन्हें पता लगा कि इस समय मथुरा में एक वृद्ध अंध संन्यासी विरजानन्द हैं जो अपने छात्रों को विभिन्न शास्त्रों और विशेष रूप से व्याकरण का गहन अध्यापन कराते हैं। स्वयं नेत्रहीन होने पर भी उन्हें समस्त शास्त्र हस्तामलकवत् उपस्थित हैं। पं. लेखराम के अनुसार दयानन्द को दण्डीजी का परिचय उस समय मिला, जब वे नर्मदा के पुलिन पर भ्रमण कर रहे थे। अपने आगे की यात्रा को स्थगित कर दयानन्द 1860 ई0 के नवम्बर मास में मथुरा आये और दण्डीजी के समक्ष उपस्थित होकर उनके अन्तेवासी के रूप में शास्त्राध्ययन का अपना अभिप्राय प्रकाशित किया। दण्डीजी ने उन्हें अपने निवास तथा भोजन की व्यवस्था पूरी कर लेने के लिए कहा क्योंकि गृह त्यागी संन्यासी के निवास तथा उदर पोषण की कोई व्यवस्था तो होती नहीं। जब जोशी अमरलाल के सौजन्य से भोजन की स्थायी व्यवस्था हो गई और निवास के लिए लक्ष्मीनारायण मन्दिर की एक कोठरी का निश्चय हो गया तो स्वामी जी का विधिवत अध्ययन आरम्भ हुआ। दो अढ़ाई वर्ष की अल्पावधि में दयानन्द ने गुरु चरणों में बैठ कर आर्ष व्याकरण के ग्रन्थों पाणिनीय अष्टाध्यायी तथा पातञजलि महाभाष्य वेदान्त तथा निरुक्त शास्त्र का अध्ययन किया। वे जब गुरु से विदा होने लगे तो दण्डीजी ने उनको निम्न कर्तव्यों का भावी जीवन निर्वाह करने के लिए कहा। 1. सर्वोपरि शास्त्र वेद तथा तदनुवर्ती ऋषिकृत ग्रन्थों का प्रचार उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य होगा। 2. वर्तमान में समस्त भारत शैव, वैष्णव, शाक्त आदि संकीर्ण सम्प्रदायों के आक्रांत है। इस कारण वैदिक एकेश्वरवाद सर्वथा लुप्त हो गया है। अतः एकमेव परमात्मा की
उपासना का प्रचार आवश्यक है। 3. वैदिक ज्ञान के अस्तंगत होने के फलस्वरूप भागवतादि वैष्णव पुराणों का प्रचार अत्याधिक बढ़ गया है। पुराणों की दूषित शिक्षाओं पर अंकुश लगाना चाहिए। 4. सर्वोपरि, भारतदेश की पराधीनता का नाश हो तथा स्वदेशोन्नति का मार्ग प्रशस्त हो, इसका उपाय किया जाना आवश्यक है। कृतार्थ दयानन्द ने अपने इसी विद्या गुरु विरजानन्द सरस्वती का पुनः अपने ग्रन्थों में इस प्रकार किया है। ’इति श्रीमत्परमहंस परिब्राजकाचार्यणां परम विदुषां श्री विरजानंद सरस्वती स्वामिना शिष्व्येणश्रीमद्ददयानन्द सरस्वती स्वामिना विरचित’ ऋषि दयानन्द के ये सभी गुरु हमारे लिए
आदरास्पद तथा स्वस्मरणीय है।