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ये प्रतिरोध है या प्रतिशोध?

सहारनपुर हिंसा की घटना मीडिया के केमरों और राजनेताओं के बयान से खूब परवान चढ़ी. अब राज्य सरकार की नजर में स्थानीय अराजक तत्व दोषी है तो विपक्ष के लिए राज्य सरकार. किन्तु क्या कोई ऐसा भी है जो यह मनाने को तैयार हो कि सहारनपुर जैसी घटना के लिए सिर्फ वो लोग जिम्मेदार है जो आज समाज में एक दुसरे के प्रति नफरत बाँट कर अपनी राजनैतिक रोटी सेंक रहे हैं? दरअसल सामाजिक मोर्चे से शुरू हुई इस लड़ाई में राजनेताओं के बयानों की आहुति ने जो ज्वाला भड़काई वो एकदम समाप्त नहीं होगी. लेकिन हमें आज इसका हल सोचना है क्योंकि यह घटना एक प्रक्रिया भर है और आगे जो होगा कहीं ज्यादा खतरनाक हो सकता है.

मीडिया और सामाजिक विश्लेषको के नजरिये से इस घटना का खूब विश्लेषण हो चूका है जिसमें कोई प्रसाशन तो कोई भीम सेना समेत अन्य धार्मिक जातिगत संगठनो को दोषी ठहरा रहा है हालाँकि इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता कि इन सबका इसमें कोई किरदार न रहा हो. किन्तु असल सच यह है कि इसका असली दोषी है वह झूठा साम्यवाद जो कलम से लेकर भाषणों तक में दलितों को दलित बनाकर रखना चाहते है जो उनकी गरीबी, उनकी सामाजिक स्थिति के लिए सिर्फ और सिर्फ कथित ऊँचे वर्ग को दोषी ठहराकर उनके वोट से लेकर भावनात्मक शोषण तक कर रहे है.

गरीब और शेक्षिक रूप से पिछड़े लोग हर देश, हर शहर, गाँव, मोहल्ले और परिवारों में मिल जायेंगे इसका हल क्या यही है कि हिंसा से सब कुछ पाया जाये? प्रतिरोध अवश्य हो लेकिन उसमें प्रतिशोध की भावना न हो. पर सहारनपुर हिंसा में जिस तरह के ओडियों वीडियो सामने आ रहे है उनमें प्रतिरोध के बजाय प्रतिशोध की भावना स्पष्ट दिखाई दे रही है. हो सकता है आज दलित चिन्तक, विचारक लेखक इसी आस में बैठे है कि यहाँ से हिंसा का कोई बड़ा तांडव हो और वो इन इनकी लाशों पर नया महाभारत लिख सके कि देखों हमने तो पहले ही कहा था दलितों को शोषण हो रहा है.

हर बार की तरह दलित समाज के लोगों ने अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए धर्मपरिवर्तन का पुराना रास्ता अपनाया है. दलित समाज के अनेक लोगों द्वारा शासन और प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए देवी-देवताओं के चित्रों और प्रतिमाओं का विसर्जन बड़ी नहर में कर नये धर्म सिद्धांत की तलाश की जा रही है. मुझे नहीं पता इसमें वह कितने सफल होंगे कितने नहीं पर किसी भी सिद्धांत को परखने की कसौटी उसका व्यवहार है. जब-जब “जय श्री राम” का नारा लगाया जाता है, कोई न कोई दलित चिंतक शंबूक की कहानी लेकर बैठ जाता है. वही शूद्र शंबूक, जो था तो ऋषि लेकिन उसे अपनी जान राम के आदेश पर गंवाना पड़ी थी, क्योंकि वह जाति से शूद्र था. सामाजिक वर्णक्रम पर आधारित जाति-व्यवस्था और उसकी दीवारों को मजबूत करने की राजनीति भी इन पौराणिक कथाओं के आधार बखूबी हो रही है. इसमें लोग एक बात भूल जाते है कि धर्म बदलने से केवल रीति-रिवाजों में परिवर्तन आता है. सामाजिक स्तर पर कोई खास बदलाव नहीं आता है.

समाज में जातीय शोषण नकारा नहीं जा सकता दलित समाज समेत अनेक लोग इसका शिकार है सहारनपुर में हुई हिंसा के मामले में भीम आर्मी और दलित समाज के लोगों के खिलाफ जो कार्रवाई हो रही है, उससे वह काफी निराश हैं. मायावती समेत अनेक जातीय राजनीति करने वाले दल इस हिंसा को “दलित गरिमा” और “दलित अस्मिता’ के ऊपर हमले का सवाल बना देना चाहते हैं. मायावती ख़ुद इस घटना को एक बड़े राजनीतिक अभियान में बदल देना चाहती हैं. जिसका इशारा इस और है कि राजनीतिक सत्ता के माध्यम से ही दुसरे वर्ग का शोषण किया जाये. पर क्या शोषण ही सत्ता का मुख्य काम रह गया?  क्यों न सरकार और समाज मिलकर कोई ऐसा समाधान निकाले कि जातीय शोषण उत्पीडन की यह व्यवस्था ही धरासाई हो जाये.

जब आजादी की लहर उठी तो उसमें देश के हर वर्ग का व्यक्ति जूझने लगा था. दलित बहुजन समुदाय गरीब था, शोषित था, और पीड़ित था. वह भी मुक्ति चाहता था आर्थिक असमानता से. वह मुक्ति चाहता था सामाजिक विषमता से. वह मुक्ति चाहता था धार्मिक शोषण की जंजीरों से. इसलिए वह मरे मन से नहीं, अपितु उत्साहित मन से इस स्वतंत्राता संग्राम में कूद पड़ा जिसमें बलिदान देने वाले तिलका मांझी, उदईया, मातादीन भंगी, महाबीरी देवी वाल्मीकि, वीरांगना झलकारी बाई, ऊदादेवी पासी, चेतराम जाटव और बल्लू मेहतर समेत अनेक वीर क्रन्तिकारी योद्धा मौजूद थे. परिणाम यह रहा कि अंग्रेज शाशन, जन आक्रोश से समक्ष अंततः हिल उठा. शोषक समझ गया कि जिस देश का गरीब भी जाग गया हो अब अधिक दिन भारत को गुलाम नहीं बनाये रक्खा जा सकता. आखिरकार देश आजाद हो गया. खुशी, चारों और खुशी मनायी गयी लेकिन अंग्रेजी शासन के आकाश से गिरने वाली स्वतंत्राता कहां आकर रुक गयी? उन्ही जातीय लडाइयों में जिनके कारण यह देश हजारों साल गुलाम रहा!!

किसी हिंसा लड़ाई या सामाजिक स्तर पर यदि किसी कारण एक कमजोर या पिछड़े वर्ग की किसी की जान चली जाति है तो मीडियाकर्मियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों और राजनेताओं द्वारा इसे एक नया रूप दिया है कि जैसे पीड़ित पूरा कथित छोटा वर्ग हो और शोषित कथित ऊँचा वर्ग. इस कारण फैला यह जहर आज जातीय नफरत का बड़ा कुंड बन चूका है. शायद सहारनपुर हिंसा इस तरह के प्रचार का ही नतीजा है. महाराणा प्रताप और अम्बेडकर में कौन बड़ा कौन छोटा विवाद आखिरकार इस हिंसा का कारण बन गया. जबकि महाराणा प्रताप और अम्बेडकर दोनों ही इस देश के सच्चे सपूत थे एक ने देश को स्वाभिमान दिया तो दुसरे ने देश को संविधान तो फिर फालतू की रार क्यों? जागरूकता के आन्दोलन होने चाहिए स्वतंत्र समाज हर किसी को इसकी आजादी बशर्ते आंदोलन का उद्देश्य हिंसक न हो, एक ऐसे समाज की स्थापना हो जिसमें सामाजिक-आर्थिक विषमता न हो, जो ऊँच-नीच की अवधारणा से रहित हो और जो सामाजिक समानता पर आधारित हो. सामाजिक शोषण, उत्पीडन अब मुक्त समाज का दरकार है पर समाज के लोगों के सामने यह प्रश्न बार बार उठता है कि आखिर इस मुक्ति का आंदोलन के नेतृत्व कौन करेगा. प्रश्न इतना ही नहीं है कि नेतृत्व कौन करेगा? बल्कि प्रश्न सच्चे नेतृत्व का है?

राजीव चौधरी

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