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राजनैतिक दलों पर सुप्रीम कोर्ट की चोट

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से निश्चित ही राजनितिक दलों की दुकानदारी पर ताला सा जड़ता दिख रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने 2 जनवरी को कहा कि जाति, समुदाय, धर्म तथा भाषा के नाम पर वोट मांगना अवैध है. प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस.ठाकुर के नेतृत्व में एक संवैधानिक पीठ ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (3)  के आधार पर 4/3 के बहुमत से फैसले के आदेश को पारित किया गया. अवश्य ही इससे भारतीय राजनीति की गिरती गरिमा में सुधार के परिणाम नजर आयेंगे. आजकल हम आए दिन समाचार पत्रों के माध्यम से “टी.वी” चैनल के माध्यम से देखते हैं सुनते हैं कि हमारे देश के कई महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति अपनी मर्यादाएँ खोते नजर आते है. सियासत के सियासतकारों के “जाति-धर्म” पर कई तीखे प्रहार सुनने में आते हैं. तब मन में कई सवाल खड़े हो जाते है. आखिर क्यों महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर बैठ कर व्यक्ति इतना गैर जिम्मेदार हो जाता है? कि हर बात में जाति या धर्म को खींचकर अपना अपनी निज महत्वकांक्षी पूरी करता है? क्यों अपने कर्तव्यों को भूल जाता है? क्यों दोहरा चरित्र अपना लेता है? क्यों अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल करता है? क्यों सेवा का भाव ख़त्म होकर वह भाषा जातिवाद को लेकर समाज और देश को तोड़ता दिख जाता है? क्यों संविधान की ली हुई सच्चाई ईमानदारी के मार्ग पर चलने की कसमें भुला देता है?

ऐसे कई सवाल मन को झिंझोड़ते हैं. हमें हमारे इतिहास से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है. पता नहीं हमारे राजनेता एक बात क्यों भूल जाते है कि हमारा अधिकांश इतिहास गुलामी के प्रष्टो से भरा पड़ा है. जिसका कारण यह कदाचित नहीं था कि हम कमजोर या कायर थे. बल्कि उसका सीधा सच्चा कारण एक था जातिवाद क्षेत्रवाद. जिसे राजनेता एक बार फिर पुनर्जीवित कर अपनी लालसा पूरी करना चाहते है. थोडा पीछे हटकर देखे तो जातिवाद की राजनीति ने देश को जितने भी नेता दिए वो हमेशा अपना जातिवाद के नाम पर अपना भला करते नजर आयें. बिहार चुनाव में सबने देखा था कि किस तरह भाषा, धर्म और जातियों के नाम पर वोट मांगे गये. बिहार ही क्या देश के कई राज्यों में अक्सर देखने में आता कि कोई यादव-मुस्लिम कोई दलित-मुस्लिम कोई जाट-गुज्जर आदि जातियों को लेकर समीकरण बनाने पर ही अपनी पूरी उर्जा लगा देते है. वोट के लिए छोटी-छोटी घटनाओं में जाति धर्म तलाशकर अपना समीकरण बैठाने की जुगत में सभी दल लगे रहते है.

कई बार इनकी इस राजनीति में धर्मगुरु भी घुसने से परहेज नही करते शाही इमाम से लेकर अन्य धार्मिक गुरु भी इस राजनीति से अछूते नहीं रहे. थोक के भाव वोट हासिल करने के लिए धर्म-गुरुओं और धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करते हैं. आज की इस वर्तमान राजनीति को समझना बहुत जरूरी हैं. आजकल भिन्न-भिन्न वर्गों को लुभाने में जुटी हुई हर बार की भाँति इस बार भी सभी मतदाओं को एक से बढ़कर एक लोक-लुभावन वादों का स्वाद चखाया गया. जातिवाद की इस राजनीति में नेताओं के अलावा मीडिया भी शामिल है. जब चुनाव आते है किस तरह मीडिया हर एक विधानसभा-लोकसभा सीट का जातीय आंकड़ा पेश करती है सबको पता है फिर नेता उन आंकड़ो पर बयानबाजी करते है जिस कारण समाज जातिवाद बंटकर खड़ा हो जाता है जिससे विकास के मुद्दे उनकी मूलभूत जरूरते गौण हो जाती है.

भारत का इतिहास बताता है कि देश की आजादी के लिए कैसे सभी लोगों ने मिल कर एकता, अखंडता और भाई-चारे का संदेश दिया. दया, करुणा, सहिष्णुता, सहयोग यह हमारी संस्कृति है. क्या हमारा देश किसी एक जाति समुदाय का देश है? क्या भारत की आजादी में सिर्फ एक जाति या समुदाय के लोगों का ही योगदान है? क्या दलितों समुदाय का ही योगदान है? क्या मुस्लिम समुदाय का ही योगदान है? अगर ऐसा नहीं है तो क्यों राजनैतिक पार्टियाँ धर्म के नाम पर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकती है. कोर्ट के इस फैसले का पालन कराने की बड़ी जिम्मेदारी अब चुनाव आयोग की है। हम चुनाव आयोग से अपील करते हैं कि इसका पालन नहीं करने वाले राजनेता या पार्टी की चुनावी मान्यता बिना देरी किए तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया जाए। “भारतीय राजनीति में आगे बढ़ने के लिए कुछ पार्टियों ने धर्म व जाति को अपनी विचारधारा का हिस्सा बना लिया है, जिसे हतोत्साहित करने की जरूरत है.

यह फैसला देश निर्माण में मील का पत्थर साबित होगा. कोर्ट के इस फैसले से तुष्टीकरण के आधार पर की जाने वाली वोट बैंक की राजनीति को आघात पहुंचेगा और इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे इस फैसले का अक्षरश: और आत्मा से पालन होना चाहिए. वरना आज देश के हालत को देखते हुए लगता है कि कुछ राजनैतिक पार्टियों विशेष रूप किसी एक धर्म विशेष समुदाय को बहुत अधिक बढ़ावा देकर आपस में लड़ने का काम और अपना राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने की चाल चल रही हैं. हमें इसे समझना पड़ेगा. इस पर मंथन करना पड़ेगा. इस पर विचार करना पड़ेगा यदि सही मायने में देखे तो राजनैतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा विकास के आधार पर होनी चाहिए शिक्षा, स्वास्थ, भोजन व रोजगार सभी को मिले तभी सही मायने में लोकतंत्र भी परिभाषित होगा और लोगों की भलाई भी इसी में होगी. मतदाताओं को भी ये सुनिश्चित करना ही होगा कि वो हर हाल में ऐसी पार्टी को चुने जो विकास की राजनीति करे. महज वोट बैंक की राजनीति करने वाले उन तमाम दलों को बाहर का रास्ता दिखाना ही होगा. सभी मतदाताओं को जाति-धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर देश के लिए सोचना होगा हम सब पहले भारतवासी हैं.

राजीव चौधरी

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