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विद्यायुक्त सत्य वैदिक धर्म की उन्नति में बाधायें

वैदिक धर्म संसार का सबसे प्राचीनतम एवं ज्ञान विज्ञान से युक्त प्राणी मात्र का हितकारी धर्म है। यही एक मात्र धर्म है जो मनुष्यों को श्रेष्ठ गुण, कर्म व स्वभाव को धारण करने की प्रेरणा करता है। वैदिक धर्म से इतर हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम आदि मत-मतान्तर हैंं। धर्म श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव व आचरण को धारण करने को कहते हैं। यदि हमें श्रेष्ठ गुणों का ज्ञान ही नहीं होगा तो फिर उनका आचरण हम कदापि नहीं कर सकते। इसी लिए शिक्षा की आवश्यकता होती जिसमें मनुष्य को श्रेष्ठ गुण, कर्म व आचरण आदि के महत्व को बताया जा सके। मत-मतान्तरों में इन महत्वपूर्ण बातों की प्रवृत्ति व परम्परा का अभाव दिखाई देता है। प्रायः सभी मत अपने को श्रेष्ठ व अन्य मतों को अपने से निम्न कोटि का मानते हैं। अध्ययन से यह बात सामने आती है कि मनुष्य को जिन श्रेष्ठ गुणों को धारण करना चाहिये, इसका ज्ञान वेदाध्ययन व ऋषि मुनियों के बनाये सत्य मान्यताओं के ग्रन्थों के अध्ययन से होता है। इस महत्वपूर्ण बात को ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की शिक्षा से जाना था और उन्होंने उनकी प्रेरणा से वेद व सत्य धर्म प्रचार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। इसके पीछे उनका उद्देश्य था कि देश व संसार से अविद्या व अज्ञान तथा इनसे उत्पन्न अन्धविश्वास, पाखण्ड व पक्षपातपूर्ण परम्परायें आदि दूर हो सकें और संसार सत्य विचारों व मान्यताओं को मान कर एक दूसरे का हितैषी व शुभ चिन्तक बन सके। यदि ऐसा होगा तो सर्वत्र सुख व शान्ति हो सकती है और नहीं होगा तो जो स्थिति वर्तमान में है, वह जारी रहेगी अर्थात् लोग सुख व दुःख में फंसकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से सर्वथा वंचित रहेंगे। यह ध्यातव्य है कि सत्य धर्म वेद की शिक्षाओं के पालन से ही चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष सिद्ध होते हैं और यही वैदिक धर्म का प्रयोजन है।

 वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने सृष्टि उत्पन्न कर अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को दिया था। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है अतः उसका ज्ञान सर्वथा सत्य व निर्दोष है। इसमें कोई बुद्धिमान व्यक्ति व विद्वान सन्देह नहीं कर सकता। महाभारतकाल के बाद ऋषि दयानन्द एकमात्र ऐसे ऋषि हुए हैं जिन्होंने वेदों का अध्ययन, अनुसंधान वा इनकी जांच-पड़ताल की और प्राचीन अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त आदि वेदांगों की सहायता से वेदों के यथार्थ अर्थों को जाना और पाया कि वेदों का प्रत्येक वाक्य सत्य ज्ञान व क्रियाओं का उद्घाटन करता है। उन्होंने आर्यसमाज का एक नियम भी बनाया कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। उन्होंने सभी मत-मतान्तर व विद्वानों को इस मान्यता की पुष्टि करने की चुनौती भी दी थी। सन् 1875 में बने इस नियम को उनके बाद के 8 वर्षों के जीवन तथा अब तक किसी मत-मतान्तर के आचार्य या विद्वान ने चुनौती नहीं दी। इसका यह अर्थ लिया जा सकता है कि सबको यह नियम स्वीकार है। अन्य नियमों की भी यही स्थिति है। किसी मत-मतान्तर के आचार्य ने आर्यसमाज के 10 नियमों में से किसी नियम को चुनौती नहीं दी और न इसका तर्क व युक्ति से संबंधित प्रमाण ही मांगा। इससे यह निश्चित होता है कि आर्यसमाज के दस नियम व ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में लिखी सभी बातें सत्य हैं और सबको स्वीकार हैं। यह भी जान लेना आवश्यक है कि जब किसी मत के विद्वान ने आर्यसमाज की किसी मान्यता पर शंका की अथवा ईर्ष्या द्वेष वश उनका प्रतिवाद किया तो आर्यसमाज के विद्वानों ने उनका युक्ति व प्रमाणों से शिष्टता पूर्वक उत्तर दिया। आर्यसमाज का एक नियम यह भी है कि वह सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सदैव उद्यत रहने के नियम को मानता है व उसका प्रचार भी करता है। चाहे ईश्वर व आत्मा का स्वरूप व उसके गुण, कर्म एवं स्वभाव की बात हो व मनुष्यों के कर्तव्य व परम्पराओं की बात हो, आर्यसमाज के इन विषयों संबंधी सभी मन्तव्य युक्ति व तर्क के आधार पर सत्य हैं और इनको मानकर एक सामान्य व धनवान सभी मनुष्य सुखपूर्वक, पक्षपातरहित होकर व सबसे आत्मीय भाव रखकर जीवन यापन कर सकते हैं।

 आर्यसमाज की सभी मान्यतायें, सिद्धान्त व नियम आदि यदि सत्य व श्रेष्ठ हैं तो इनकों समाज व देश स्वीकार क्यों नहीं कर रहा है। इसके क्या कारण हो सकते हैं? इस प्रश्न पर यदि हम निजी तौर पर विचार करें तो हमें लगता है कि विद्या को प्राप्त करना पड़ता है और अविद्या जीवन में विद्यमान रहती है या स्वतः आ जाती है। उस अविद्या को विद्या के अध्ययन से ही दूर किया जा सकता है। इसी प्रकार प्रकाश व अन्धकार का उदाहरण हैं। अन्धकार को उत्पन्न नहीं करना पड़ता। वह तो विद्यमान रहता है या प्रकाश के न रहने पर स्वमेव उत्पन्न होता है। अन्धकार दूर करने के लिए प्रकाश को उत्पन्न किया जाता है। इसी प्रकार अविद्या व अज्ञान भी मनुष्य में विद्यमान रहता है। विद्या व ज्ञान को शिक्षा, अध्ययन, विद्वानों के उपदेश आदि के द्वारा उत्पन्न किया जाता है। यह निर्विवाद तथ्य है कि वेद संसार में ईश्वर, जीवात्मा, कारण व कार्य प्रकृति तथा धर्म आदि सभी सत्य विद्याओं के ग्रन्थ है। यदि कोई व्यक्ति वेदों व वेदों पर आधारित ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करेगा तो वह सत्य ज्ञान को प्राप्त नहीं हो सकता। लोग वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करते इसी कारण से संसार में अविद्या व अज्ञान फैला हुआ है और इसके दुष्परिणामों से लोगों को पीड़ित होना पड़ता है। मत-मतान्तरों में वेदों के समान विद्या व ज्ञान नहीं है। हम यहां गायत्री मन्त्र का एक उदाहरण देना चाहते हैं। गायत्री मन्त्र में ईश्वर मनुष्यों को उपदेश करते हैं कि तुम मुझसे इस प्रकार से प्रार्थना करो ‘जो सब समर्थों में समर्थ सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, नित्य शुद्ध, नित्य मुक्तस्वभाव वाला, कृपासागर, ठीक-ठीक न्याय का करनेहारा, जन्ममरणादि क्लेशरहित, आकाररहित, सब के घट-घट का जानने वाला, सब का धर्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पोषण करने हारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप है उसी को हम धारण करें। इस प्रयोजन के लिये कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा और बुद्धियों को अपने अन्तर्यामीस्वरूप से दुष्टाचार व अधर्म्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार सत्य मार्ग में चलावें, उस को छोड़कर दूसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें। क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है वही हमारा पिता राजा न्यायाधीश और सब सुखों का देनेहारा है।’ हम यह अनुभव करते हैं कि इस प्रकार की श्रेष्ठ प्रार्थना किसी मत-पन्थ के ग्रन्थ में नहीं हैं। वेदों में तो इस प्रकार की अनेकानेक प्रार्थनायें हैं जिनको स्वामी दयानन्द ने अपनी पुस्तक ‘आर्याभिविनय’ में प्रस्तुत किया है।

 वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में जो बाधायें हैं वह प्रमुख तो यही है कि देश व समाज के लोग वेद एवं ऋषियों के बनाये ग्रन्थ दर्शन, उपनिषद आदि का अध्ययन नहीं करते। यदि करेंगे तभी उन्हें ज्ञान होगा और वह उसे अपना सकेंगे। वेदादि का अध्ययन न करने के कारण यह लोग प्रचलित अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों की साधारण बातों में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं जिससे वह वेदाध्ययन आदि से होने वाले अनेक लाभों मुख्यतः सत्यज्ञान व उपासना से वंचित हो जाते हैं। दूसरा कारण हमें यह भी लगता है कि लोग आजकल भौतिक उन्नति से आकृष्ट हो रहे हैं। सभी माता-पिता अपने पुत्र व पुत्रियों को धन व सुख सुविधाओं से सम्पन्न देखना चाहते हैं। इसलिये वह वेद और संस्कृत शिक्षा की उपेक्षा कर उन्हें अंग्रेजी भाषा मुख्य रूप से पढ़ाते हैं और मैकाले पद्धति से शिक्षा दिलाते हैं जिससे वह डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या अध्यापक, आईएएस, पीसीएस, सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, व्यवसायी आदि बने। बच्चों का आरम्भिक जीवन अंग्रेजी शिक्षा की प्राप्ति व बाद का जीवन धन कमाने व सुख साधनों को उपलब्ध करने व उनको बनाये रखने में ही बीत जाता है। इस कारण भी लोग वेदाध्ययन व ऋषि ग्रन्थों के अध्ययन में श्रम नहीं कर पाते।

 वेद एवं वेद पर आधारित साहित्य के अध्ययन से प्रत्यक्षतः भौतिक लाभ व सुख सुविधायें प्राप्त नहीं होती अपितु बहुत से विद्वानों को हम संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने हुए देखते हैं। उनका अपने ही लोग शोषण भी करते हैं। इससे जो थोड़े लोग वेदों की शरण में आते भी हैं वह अर्थाभाव आदि कारणों से इससे दूर हो जाते हैं। मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ व मोह आदि की प्रवृत्ति सामान्यतः होती है। वैदिक मत का अध्ययन करने वाले भी प्रायः इन दुर्गुणों में फंसे रहते हैं। इसलिये भी वैदिक धर्म का प्रचार होने पर भी बहुत से लोग इसे स्वीकार नहीं करते। आजकल आदर्श जीवन व आदर्श चरित्र मिलना कठिन दिखाई देता है। ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी आदि का जीवन आदर्श जीवन था। अतः उनके प्रभाव से लोग वैदिक धर्म के प्रति आकर्षित होते थे। अब ऐसे विद्वान नहीं हैं, इसलिए भी अधिक लोग वैदिक धर्म की शरण में नहीं आ रहे हैं। वैदिक धर्म को जानने के लिए निरन्तर स्वाध्याय व साधना की आवश्यकता होती है। आजकल लोगों के पास समय का भी अभाव है। दूसरे कामों में व्यस्तता के कारण उन्हें स्वाध्याय व साधना के लिए समय ही नहीं मिलता। इस कारण वह इनसे होने वाले आध्यात्मिक लाभों को नहीं जान पा रहे हैं। यदि यह सब कारण दूर हो जायें और अविद्या पर आधारित मत-मतान्तर के लोग अपने तुच्छ स्वार्थ भूल कर सत्य को स्वीकार करने की भावना से वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करें तभी वेदों का विश्व में प्रचार हो सकता है। हमने एक सामान्य व्यक्ति के रूप में वेद प्रचार में बाधक कुछ बातों की चर्चा की है। विद्वान इस विषय को अधिक प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत कर सकते हैं। लेख को यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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