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वेद और देव

वेदों में देव विषय को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं।
 
शंका  1– देव शब्द से क्या अभिप्राय समझते हैं ?
समाधान- निरुक्त[i] में यास्काचार्य के अनुसार देव शब्द दा, द्युत और दिवु इस धातु से बनता हैं। इसके अनुसार ज्ञान,प्रकाश, शांति, आनंद तथा सुख देने वाली सब वस्तुओं को देव कहा जा सकता हैं। यजुर्वेद[ii] में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि को देव के नाम से पुकारा गया हैं। परन्तु वेदों[iii]  में तो पूजा के योग्य केवल एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, भगवान ही हैं।
देव शब्द का प्रयोग सत्यविद्या का प्रकाश करनेवाले सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए भी होता हैं क्यूंकि वे ज्ञान का दान करते हैं और वस्तुओं के यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित करते हैं [iv] । देव का प्रयोग जीतने की इच्छा रखनेवाले व्यक्तियों विशेषत: वीर, क्षत्रियों, परमेश्वर की स्तुति करनेवाले तथा पदार्थों का यथार्थ रूप से वर्णन करनेवाले विद्वानों, ज्ञान देकर मनुष्यों को आनंदित करनेवाले सच्चे ब्राह्मणों, प्रकाशक, सूर्य,चन्द्र, अग्नि, सत्य व्यवहार करने वाले वैश्यों के लिए भी होता हैं[v] ।
 
शंका  2– वेदों में 33 देवों होने से क्या अभिप्राय हैं?
समाधान- वेदों एवं ब्राह्मण आदि ग्रंथों में 33 देवों का वर्णन मिलता हैं। 33 देवों के आधार पर यह निष्कर्ष प्राय: निकाला जाता हैं की वेद अनेकेश्वरवादी अर्थात एक से अधिक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं। वेदों में अनेक स्थानों पर 33 देवों का वर्णन मिलता हैं[vi] । ईश्वर और देव में अंतर स्पष्ट होने से एक ही उपासना करने योग्य ईश्वर एवं कल्याणकारी अनेक  देवों में सम्बन्ध स्पष्ट होता हैं।
शतपथ[vii] के अनुसार 33 देवता हैं 8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, द्यावा और पृथ्वी और 34 वां प्रजापति परमेश्वर हैं। इसी बात को ताण्ड्य महाब्राह्मण[viii] और ऐतरेय ब्राह्मण[ix] में भी कहा गया हैं।
शतपथ के अनुसार 8 वसु हैं अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, अंतरिक्ष, सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र क्यूंकि यह जगत को बसाने वाले हैं। 11 रुद्रों से तात्पर्य 10 प्राण एवं 11 वें आत्मा से हैं क्यूंकि ये शरीर से निकलते हुए प्राणियों को रुलाते हैं। 12 आदित्य से तात्पर्य वर्ष के 12 मासों से हैं क्यूंकि ये हमारी आयु को मानो प्रतिदिन ले जा रहे हैं। 32 वां इंद्र अथवा बिजली हैं एवं 33 वां प्रजापति अथवा यज्ञ हैं।
 
शंका  3– परमेश्वर और 33 देवों में क्या सम्बन्ध हैं?
 परमेश्वर और 33 देवों के मध्य सम्बन्ध का वर्णन करते हुए कहा गया हैं कि ये 33 देव जिसके अंग में समाये हुए हैं उसे स्कम्भ (सर्वाधार परमेश्वर) कहो। वही सबसे अधिक सुखदाता हैं। ये 33 देव जिसकी निधि की रक्षा करते हैं उस निधि को कौन जानता हैं? ये देव जिस विराट शरीर में अंग के समान बने हैं उन 33 देवों को ब्रह्मज्ञानी ही ठीक ठीक जानते हैं, अन्य नहीं ,इत्यादि। इन सभी में पूजनीय तो वह एकमात्र देवों का अधिदेव और प्राणस्वरूप परमेश्वर ही हैं।
वेद में अनेक मन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को देवों का पिता, मित्र, आत्मा, जनिता अर्थात उत्पादक, अंतर्यामी, अमरता को प्रदान करने वाला, कष्टों से बचानेवाला, जीवनाधार,  देवों अर्थात सत्यनिष्ठ विद्वान का मित्र आदि के रूप में कहा गया हैं। जैसे
1. जो श्रद्धा से देवों के पिता वा पालक उस ज्ञान के स्वामी परमेश्वर की उपासना करता हैं उसका जन्म सफल हो जाता हैं[x]।
2. परमेश्वर सत्यनिष्ठ विद्वानों (देव) का कल्याणकारी मित्र हैं[xi]।
3. परमेश्वर देवों का आत्मा हैं[xii]।
4. परमेश्वर सब देवों का अंतर्यामी आत्मा हैं[xiii]।
5. परमेश्वर सब देवों का अधिष्ठाता देव हैं[xiv]।
6. परमेश्वर सब देवों में बड़ा देव हैं[xv]।
7. वह परमेश्वर हमारा बंधु हैं[xvi]।

8. जैसे वृक्ष के तने के आश्रित सब शाखाएं होती हैं, वैसे ही उस परम देव के आश्रय में अन्य सब देव रहते हैं [xvii]।

 शंका  4– स्वामी दयानंद के अनुसार देवता शब्द का क्या अभिप्राय हैं ?
स्वामी दयानंद देव शब्द पर विचार करते हुए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका[xviii] में लिखते हैं की  दान देने से देव नाम पड़ता हैं और दान कहते हैं अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना। दीपन कहते हैं प्रकाश करने को, द्योतन कहते हैं सत्योपदेश को, इनमें से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही हैं की जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे हैं तथा विद्वान मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों के देनेवाले होने से देव कहाते हैं। दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव हैं। तथा माता-पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन, विद्या और सत्योपदेशादी के करने से देव कहाते हैं। वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करनेवाला हैं, सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव हैं, अन्य कोई नहीं।
कठोपनिषद[xix] का भी प्रमाण हैं की सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इस सबका प्रकाश करनेवाला एक वही है क्यूंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा हैं। इसमें यह जानना चाहिये की ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करनेवाला नहीं हैं , इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं।
शंका  5– वेदों में एकेश्वरवाद अर्थात ईश्वर के एक होने के क्या प्रमाण हैं?
समाधान- पश्चिमी विद्वान वेदों में बहुदेवतावाद या अनेकेश्वरवाद मानते हैं। जब उन्हें वेदों में उन्होंने यहाँ तक कह डाला की वेदों ने प्रारम्भिक से अनेकेश्वरवाद के क्रमबद्ध तत्वज्ञान का विकास प्राकृतिक, एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद की मंजिलों से गुजरते हुए किया[xx]। यह एक कल्पना मात्र हैं क्यूंकि निष्पक्ष रूप से पढ़ने ज्ञात होता हैं की वेदों में अनेक देवताओं का वर्णन मिलता हैं मगर पूजा का विधान केवल देवाधिदेव सभी देवों के अधिष्ठाता एक ईश्वर की ही बताई गई हैं। इंद्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम, मातरिश्वा, वायु, सूर्य, सविता आदि प्रधानतया उस एक परमेश्वर के ही भिन्न-भिन्न गुणों को सुचित करने वाले नाम हैं।
   वेदमंत्रों में ईश्वर के एक होने के अनेक प्रमाण हैं। जैसे 
ऋग्वेद

1. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओ का ईश्वर हैं [xxi]।
2. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता हैं[xxii] ।
3. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य हैं[xxiii] ।
4. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं, तू अकेला समस्त जगत का राजा हैं[xxiv] ।
5. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा हैं[xxv] ।
6. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका इश्वर बना हुआ हैं [xxvi]।
7. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया हैं [xxvii]।
8. हे दुस्तो को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं[xxviii] ।
9. एक सतस्वरूप परमेश्वर को बुद्धिमान ज्ञानी लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। उसी को वे अग्नि, यम, मातरिश्वा,इंद्र, मित्र, वरुण, दिव्य, सुपर्ण इत्यादि नामों से याद करते हैं[xxix]।
10. जो ईश्वर एक ही हैं, हे मनुष्य!  तू उसी की स्तुति कर[xxx]।
11. ऋग्वेद के 10/121 के हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रजापति के नाम से भगवान का स्मरण करते हुए परमेश्वर को चार बार “एक” शब्द का प्रयोग हुआ हैं। इस सूक्त में एकेश्वरवाद का इन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन हैं की न चाहते हुए भी मैक्समूलर महोदय ने लिखते हैं “मैं एक और सूक्त ऋग्वेद 10/121 को जोड़ना चाहता हूँ, जिसमें एक ईश्वर का विचार इतनी प्रबलता और निश्चय के साथ प्रकट किया गया हैं की हमें आर्यों के नैसर्गिक एकेश्वरवादी होने से इंकार करते हुए बहुत अधिक संकोच करना पड़ेगा।[xxxi]”
ईसाई मत के पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के कारण मैक्समूलर महोदय ने एक नई तरकीब निकाली एकेश्वरवाद को सिद्ध करने वाले मन्त्रों को नवीन सिद्ध करने का प्रयास किया[xxxii]।

यजुर्वेद

1. वह ईश्वर अचल हैं, एक हैं, मन से भी अधिक वेगवान हैं [xxxiii]।

अथवर्वेद
1. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे,जो जगत का स्वामी हैं, एक ही हैं, नमस्कार करने योग्य हैं, बहुत सुख देने वाला हैं [xxxiv]।
2. आओ, सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी हैं, एक हैं, व्यापक हैं और हम मनुष्यों का अतिथि हैं[xxxv]।
3. वह परमेश्वर एक हैं, एक हैं, एक ही हैं. उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं हैं, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं हैं, आठवां, नौवां, दसवां नहीं हैं. वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा हैं[xxxvi]।

इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रो से यह सिद्ध होता हैं की परमेश्वर एक हैं।
शंका 6मैक्समूलर द्वारा प्रचारित (Henotheism) हीनोथीइज़्म में क्या खामियां हैं?
समाधान- मैक्समूलर महोदय द्वारा प्रचारित हीनोथीइज़्म[xxxvii] के अनुसार प्रत्येक वैदिक कवि वा ऋषि जब जिस देवता की स्तुति करने लगता हैं तब उसी को सर्वोत्कृष्ट बताने और उसके अंदर सर्वोत्कृष्टता के सब गुणों को समाविष्ट करने का प्रयत्न करता हैं।वेद के अनेक ऐसे सूक्तों को पाना बहुत सुगम हैं, जिनमें प्राय: प्रत्येक देवता को सबसे ऊँचा और पूर्ण बताया गया हैं। ऋग्वेद के द्वितीय मंडल के प्रथम  सूक्त में अग्नि को सब मनुष्यों का बुद्धिमान राजा, संसार का स्वामी और शासक, मनुष्यों का पिता, भाई, पुत्र और मित्र कहा गया हैं और दूसरे देवों की सब शक्तियां और नाम स्पष्टया उसकी मानी गई हैं।
 मैक्समूलर महोदय वेदों के अटल सिद्धांत को समझ नहीं पाये। वेद के ही अनुसार ईश्वर को इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा, ब्राह्मणस्पति, वरुण,मित्र, अर्यमा, रूद्र, पूषा, द्रविणोदा, सवितादेव और भग कहा गया हैं और ये सब नाम प्रधानतया उस एक अग्निपद्वाच्य सर्वज्ञ परमेश्वर के हैं और उन्हीं के गुणों को सूचित करते हैं[xxxviii]। जैसे कि परिवार में एक ही व्यक्ति को अनेक संबंधों के कारण भिन्न भिन्न व्यक्ति पिता, चाचा, दादा, भाई,मामा आदि नामों से पुकारते हैं वैसे ही एक परमात्मा के अनंत गुणों को सूचित करने के लिए अनेक नाम प्रयुक्त किये जाते हैं। जब ज्ञानस्वरूप के रूप में उसका स्मरण किया जाता हैं तो उसे अग्नि कहा जाता हैं, उसकी परमैश्वर्य सम्पन्नता दिखाने के लिए ब्रह्मा, ज्ञान का अधिपतितत्व दिखाने के लिए ब्राह्मणस्पति, सर्वोत्तमता और पापनिवारकता सूचित करने के लिए वरुण, सबके साथ प्रेम दर्शाने के लिए मित्र, न्यायकारिता के लिए अर्यमा, दुष्टों को रुलाने के लिए  रूद्र, ज्ञानादि देने के लिए द्रविणोदा, प्रकाशस्वरूप होने के लिए सविता आदि कहते हैं। अर्थात यह सभी नाम एक ही ईश्वर के हैं जोकि उनके विभिन्न गुणों को दर्शाते हैं।
वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी हैं जैसे-
1. परमेश्वर एक ही हैं ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामो से पुकारते हैं, उसे इन्द्र कहते हैं, मित्र कहते हैं, वरुण कहते हैं, अग्नि कहते हैं, और वही दिव्या सुपर्ण और गरुत्मान भी हैं, उसे ही वे यम और मातरिश्वा भी कहते हैं[xxxix]।
2. एक होते हुए भी उस सुपर्ण परमेश्वर को ज्ञानी कविजन बहुत नामो से कल्पित कर लेते हैं[xl]।
3. यहीं भाव ऋग्वेद 3/26/7, ऋग्वेद 10/82/3, यजुर्वेद 32/1, अथर्वेद 13/4 में भी कहाँ गया हैं।
उदहारण के लिए जिस प्रकार बाईबिल में ईश्वर को God, Almighty, Lord आदि अनेको नाम से पुकारा गया हैं उसी प्रकार वेदों में ईश्वर को भी विभिन्न नाम से पुकारा गया हैं।
श्री अरविन्द घोष ने मैक्समूलर के हीनोथीइज़्म की कथित आलोचना अपने ग्रंथों में की हैं[xli]। मैक्समूलर की यह कल्पना वेदों में एकेश्वरवाद को असफल रूप से सिद्ध करने के प्रयासों की एक कड़ी मात्र हैं।
इस प्रकार से यह सिद्ध होता हैं की वैदिक ईश्वर एक हैं एवं वेद विशुद्ध एकेश्वरवाद का सन्देश देते हैं। वेदों में बहुदेवतावाद एक भ्रान्ति मात्र हैं और देव आदि शब्द कल्याणकारी शक्तियों से लेकर श्रेष्ठ मानव आदि के लिए प्रयोग हुआ हैं एवं उपासना के योग्य केवल एक ईश्वर हैं। ईश्वर के भी विभिन्न गुणों के कारण अनेक नाम हो सकते हैं एवं अनेक नाम देवों के भी हो सकते हैं।

[i] निरुक्त 7/15
[ii] यजुर्वेद 14/20
[iii] ऋग्वेद 6/55/16, ऋग्वेद 6/22/1, ऋग्वेद 8/1/1, अथर्ववेद 2/2/1
[iv] शतपथ 3/7/3/10, शतपथ 2/2/2/6, शतपथ 4/3/44/4, शतपथ 2/1/3/4, गोपथ 1/6,
[v] शतपथ 6/3/1/15,शतपथ 7/5/1/21, शतपथ 7/2/4/26, गोपथ 2/10
[vi] अथर्ववेद 10/7/13,अथर्ववेद 10/7/27, ऋग्वेद 1/45/27, ऋग्वेद 8/28/1, यजुर्वेद 20/36
[vii] शतपथ ब्राह्मण 4/5/7/2
[viii] ताण्ड्य महाब्राह्मण 6/2/5
[ix] ऐतरेय ब्राह्मण 2/18/37
[x] ऋग्वेद 2/26/3
[xi] ऋग्वेद 1/31/1
[xii] ऋग्वेद 4/3/7
[xiii] ऋग्वेद 10/168/4
[xiv] ऋग्वेद 10/121/8
[xv] ऋग्वेद 1/50/9
[xvi] यजुर्वेद 32/10
[xvii] अथवर्वेद 10/7/38
[xviii] वेदविषयविचार अध्याय 4 ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका
[xix] कठोपनिषद 5/15
[xx] It has been generally held that the Rigvedic Religion is essentially poly-theistic one, taking on a pantheistic coloring only in a few of its latest hymns. Yet a deeply abstract philosophizing crops up unexpectedly in some hymns as a reminder of the long journey made from primitive polytheism to systematic philosophy, through the stages of Naturalistic poly-theism, monotheism and monism.p.37, Vedic Age
[xxi] ऋग्वेद 1/7/9
[xxii] ऋग्वेद 1/84/6
[xxiii] ऋग्वेद 6/22/1
[xxiv] ऋग्वेद 6/36/4
[xxv] ऋग्वेद 6/45/16
[xxvi] ऋग्वेद 8/6/41
[xxvii] ऋग्वेद 10/81/3
[xxviii] ऋग्वेद 4/30/1
[xxix] ऋग्वेद 1/164/46
[xxx] ऋग्वेद 5/51/16
[xxxi] I add only one more Hymn (Rig. 10-121) in which the idea of one God is expressed with such power and decision, that it will make us hesitate before we deny to the Aryans an instinctive Mono-theism. P.578, History on Ancient Sanskrit Literature by Maxmuller.
[xxxii]  This is one of the Hymns which have always been suspected as modern by European interpreters. P.3, Vedic hymns by Maxmuller
[xxxiii] यजुर्वेद 40/4
[xxxiv] अथवर्वेद 2/2/2
[xxxv] अथवर्वेद 6/21/1
[xxxvi] अथवर्वेद 16/4/16-20
[xxxvii] Ancient Sanskrit Literature. p.353-35. Prof. Maxmuller
[xxxviii] ऋग्वेद 2/1/3-7
[xxxix] ऋग्वेद 1/164/46
[xl] ऋग्वेद 10/114/5[xli] Dayanand Bankim Tilak, P.17-18  by Shri Arvind

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