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शिष्य के गुण और कर्तव्य

जो कोई भी विद्यार्थी विद्या प्राप्ति की इच्छा से किसी गुरु के सानिद्ध्य में रहता हुआ नियम-अनुशासन का अनुकरण करके गुरु जनों की आज्ञाओं का पालन करता है और अनेक प्रकार की विद्याओं को प्राप्त करता है और जीवन को आदर्शमय बनता है, वास्तव में वह शिष्य कहलाने योग्य है । वैसे तो अनेक प्रकार के धर्म-शास्त्रों में नीति-शास्त्रों में शिष्यों के लिए कर्तव्याकर्तव्य का निर्देश किये गए हैं परन्तु इस प्रकार वेदों में भी अनेक प्रकार के निर्देश प्राप्त होते हैं और जो कुछ भी अन्य शास्त्रों में उपलब्ध होते हैं उन सबका मूल वेदों से ही समझना चाहिये । अब हम कुछ उदहारण के रूप में विद्यार्थियों के लिए या शिष्यों के लिए आवश्यक कर्तव्यों का निर्देश उपस्थापित करने का प्रयत्न करते हैं । जैसे कि –
ऋग्वेद और अथर्ववेद आदि में शिष्य के कुछ गुणों का उल्लेख किया गया है । इन गुणों से युक्त विद्यार्थी ही शिक्षा प्राप्ति के अधिकारी होते थे ।

प्रवेश परीक्षा – अथर्ववेद में उल्लेख है कि “आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं इच्छते …तं रात्रिस्तिस्र उदरे बिभर्ति…।” आचार्य प्रवेश से पूर्व विद्यार्थी को तीन दिन परिक्षण में रखता था । जो विद्यार्थी उस कठोर परीक्षण में उत्तीर्ण होते थे, उन्हें ही प्रवेश दिया जाता था और उनका उपनयन संस्कार किया जाता था । मन्त्र में तीन दिन के लिए तीन रात्रि का प्रयोग आया है।

छात्र जिज्ञासु हो – ऋग्वेद का कथन है कि “तान् उशतो वि बोधय..।” अर्थात् जो व्यक्ति जिज्ञासु होते हैं और वेदादि का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें ही शिक्षा देनी चाहिये ।
शिष्य कर्मठ हो – “अप्नस्वती मम धीरस्तु ।” विद्यार्थी या शिष्य को कर्मठ होना आवश्यक है । शिष्य तीव्र बुद्धि वाला हो – जिसकी बुद्धि जितनी तीव्र व सक्रिय होती है वही ज्ञान का अधिकारी होता है, वही ज्ञान ग्रहण करने में समर्थ हो पाता है अतः ऋग्वेद का कथन है कि “शिक्षेयमस्मै दित्सेयम्…।” अर्थात् गुरु उसी विद्यार्थी को उच्च शिक्षा प्रदान करना चाहता है जिसकी बुद्धि तीव्र हो ।

इसके अतिरिक्त विद्यार्थी को गुरु जी के अनुशासन में रहते हुए गुरूजी के आज्ञाकारी होना चाहिये । गुरूजी के आज्ञा के विपरीत या गुरु जी का कोई अप्रिय आचरण कभी भी न करे । गुरु जी के प्रति सदा श्रद्धा भाव रखने वाला तथा अन्तर्मन से गुरु जी की सेवा करने वाला होना चाहिये ।

इस प्रकार विद्यार्थी के कुछ कर्तव्य भी होते हैं जो कि वेदों में विस्तृत रूप में वर्णित है । विद्यार्थी अपने जीवन को वेदानुकुल ही बनाने का प्रयत्न करे । अथर्ववेद का निर्देश है कि विद्यार्थी वेदों के आदेशों के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करे । ऐसा कोई भी कार्य न करे जो कि वेदों में निषेध किया गया हो ।

ऋग्वेद में बताया गया है कि “विश्वान देवान उषर्बुध..” अर्थात् विद्यार्थी का कर्तव्य है कि उस को प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में ही शय्यात्याग करना चाहिये । जो प्रातःकाल शीघ्र ही उठता है वह स्वस्थ, बलवान, दीर्घायु होता है ।

विद्यार्थी को चाहिए कि उसको कभी भी आलस्य, प्रमाद और वाचालता आदि से युक्त न होना चाहिये । उसको सदा संयमी और सदाचारी होना चाहिए । इस प्रकार जब हम वेदों का अध्ययन करते हैं तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, किन-किन गुणों से युक्त होना चाहिए और किन-किन गुणों से रहित होना चाहिए यह सब बातें विस्तृत रूप में वर्णित है । अतः हमारा कर्तव्य है कि इन ईश्वर प्रदत्त निर्देशों का अच्छी प्रकार अनुसरण करके अपने जीवन को सुख-शान्ति से युक्त करें और एक आदर्श व्यक्ति बनने का प्रयत्न करें ।

लेख – आचार्य नवीन केवली

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