श्री कृष्ण जी के जीवन का यदि हम अध्ययन करते हैं तो हम पाते हैं कि उनको अनेक कार्यों का ज्ञान था । किसी भी कार्य को जब वो करते थे तो बड़ी ही कुशलता पूर्वक करते थे । उनका सिद्धान्त भी यह है कि “योगः कर्मसु कौशलम्” उनके समस्त कार्यों में कुशलता होने के कारण ही यह सर्वविदित है कि उनको योगीराज कहा जाता है । चाहे किसी भी सांसारिक सम्बन्धों को निभाने के दृष्टि से हो चाहे किसी भी व्यावहारिक नीतियों को अपने जीवन में अपनाने की दृष्टि से हो, श्री कृष्ण जी सब में निपुणता पूर्वक ही करते थे । इसीलिए उनको नीतिज्ञ भी कहा जाता है ।
श्री कृष्ण जी के जीवन से हमें यह भी प्रेरणा मिलती है कि व्यक्ति को किसी भी कार्य को छोटा या बड़ा नहीं मानना चाहिए । प्रत्येक कार्य अपने आप में महत्वपूर्ण होता है । उस कार्य को करनेवाला कैसा है और वह भी किस शैली से करता है, कितनी उत्तमता से करता है, उस कार्य को किस परिणाम तक पहुंचाता है, इन सब के द्वारा ही उस कार्य की विशेषता प्रदर्शित होती है । श्री कृष्ण जी चाहे किसी भी कार्य को करते थे तो उसको पूर्ण ईमानदारी से, पूर्ण पुरुषार्थ पूर्वक तन्मयता से ही करते थे और उसको उत्तम स्वरूप प्रदान करते थे ।
एक राजा होने के नाते अपनी प्रजा का पुत्र के समान यथावत् न्याय-पूर्वक ही पालन किया करते थे । यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि श्री कृष्ण जी ने अपने मित्र सुदामा जी के साथ कैसी मित्रता निभाई थी । इसी प्रकार चाहे अपने भाई के साथ हो, चाहे अपनी बहन के साथ हो, अपने व्यावहारिक सम्बन्धो को बनाये रखने में कहीं चुकते नहीं थे ।
इन सब कार्यों में कुशलता का प्रमुख कारण है गुरुकुलों में यह सब विद्या सिखाई जाती थी और श्री कृष्ण जी ने श्रद्धा पूर्वक गुरुकुल में गुरु जी सानिध्य में अध्ययन करते हुए इन समस्त कार्यों को सिखा था तभी जाकर जब वो समाज में अपने कार्य क्षेत्र में उतरे तो अपनी गुरुकुलीय विद्या, शिक्षा और अपने माता-पिता तथा गुरुजनों का मान बढ़ाया । अपने आपको एक आदर्श के रूप में स्थापित करके सम्पूर्ण विश्व में पूजनीय बन गए ।
जब उन्होंने महाभारत युद्ध में एक सारथी का कार्य किया तो बताया जाता है कि युद्ध में शस्त्र न उठाने का उन्होंने प्रण किया हुआ था फिर भी बिना शस्त्र का प्रयोग किये एक सारथी का कार्य दायित्व उत्तमता से सम्पादन किया । कभी यह विचार नहीं किया कि मैं एक राजा होकर के क्यों एक सारथी का कार्य करूँ ?
ठीक इसी प्रकार जब युद्ध होने की सम्भावना दिखाई दी । श्री कृष्ण जी को लगा कि युद्ध होने से बहुत बड़ी हानि होगी, पूरे विश्व की महती अपूरणीय क्षति होगी, इस युद्ध में असीम रक्त प्रवाहित होगा, अतः एक बार इन सबको समझाने के लिए अन्तिम प्रयत्न करके देखना चाहिए, आखिर ये अपने ही हैं, जिससे यह महान् युद्ध टल जाये । फिर वो एक दूत का कार्य करने के लिए भी तैयार हो गए और पाण्डवों की तरफ से कौरवों को समझाने के लिए शान्तिदूत बन के गए थे । उन्होंने इस कार्य को भी अत्यन्त कुशलता पूर्वक किया था । इस प्रकार के अनेक कार्यों में निपुण थे, समस्त कार्यों को दक्षता पूर्वक किया करते थे । इनके गुणों को अच्छी प्रकार जान कर उन गुणों को हमें अपने जीवन में भी अपनाते हुए उन जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए ।
लेख – आचार्य नवीन केवली